'शोले' के 40 साल : बचपन की तस्वीरों को देखकर खुश होने जैसा एहसास देती है...

'शोले' के 40 साल : बचपन की तस्वीरों को देखकर खुश होने जैसा एहसास देती है...

नई दिल्ली:

सैकड़ों-हज़ारों अन्य फिल्मों की तरह आज से 40 साल पहले 1975 में भी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर रिलीज़ हुई थी 'शोले', जिसकी कहानी में कुछ खास नयापन नहीं था, और दिलचस्प बात यह है कि समीक्षकों ने भी लगभग एकमत से इसे नकार दिया था, लेकिन इसके बावजूद इस फिल्म ने कालांतर में वह स्थान हासिल किया, जो बीसियों फिल्मों के 100-200-300-करोड़ी क्लब में पहुंच जाने के बावजूद आज तक किसी को नहीं मिला...

आज के युवाओं के पास सबसे ज़्यादा पसंद की गईं, सबसे ज़्यादा कमाने वाली, सबसे बड़ी हिट फिल्मों के नाम पर 'कयामत से कयामत तक', 'मैंने प्यार किया', 'हम आपके हैं कौन' और 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' से लेकर 'गजनी', '3 इडियट्स', 'पीके' और 'धूम-3' तक मौजूद हैं, लेकिन हमारी पीढ़ी के अंतर्मन में जिस तरह 'शोले' बसी हुई है, 'दर्शकों का वह प्यार और अपनापन' इन सभी, और इन जैसी बीसियों अन्य फिल्मों के लिए दुर्लभ है...

'शोले' का एक-एक किरदार, एक-एक संवाद, एक-एक दृश्य आज भी लगभग सभी दर्शकों को जिस तरह याद है, उस तरह तो अपने कोर्स की किताबें भी किसी को याद नहीं होतीं। भले ही मेरा यह कथन आज के युवाओं को अतिशयोक्ति लगे, लेकिन यकीन जानिए, सच यही है... इस पर भी आपको भरोसा न हो तो अपने किसी बड़े से पूछकर देखिए...

'शोले' में जिस वक्त 'गब्बर सिंह' गुस्से में चीखता हुआ 'ठाकुर बलदेव सिंह' के हाथ काट देता है, सभी दर्शकों की सांसें रुक-सी जाती हैं... और अंत में, जिस समय अपाहिज 'ठाकुर बलदेव सिंह' उसी तरह चीखते हुए 'गब्बर सिंह' को मार रहे हैं, उस समय हर दर्शक के दांत भिंचे रहते हैं...

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इन दोनों दृश्यों के अलावा ढेरों ऐसे दृश्य 'शोले' ने हमें दिए हैं, जो आज भी ज़हन में ताज़ा हैं... चाहे वह 'वीरू' का पानी की टंकी पर चढ़कर 'सुसाइड' करना हो, या 'जय' का 'मौसी' को 'वीरू-बसंती' के रिश्ते के लिए मनाने की कोशिश करना... चाहे 'जय' का 'बसंती' से उसका नाम पूछना हो, या 'बसंती' का 'धन्नो' से अपनी इज़्ज़त बचाने की गुहार करना... चाहे वह 'गब्बर' का 'कालिया' को धमकाना हो, या 'वीरू' का चीखकर 'बसंती से कुत्तों के सामने नहीं नाचने के लिए' कहना... चाहे वह 'सूरमा भोपाली' का डींगें हांकना हो, या इमाम साहब का गांव में पसरे 'सन्नाटे' के बारे में सवाल करना...
 


जीपी सिप्पी द्वारा निर्मित, रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित और राहुलदेव बर्मन के संगीत से सजी 'शोले' में मुख्य भूमिकाओं में दिखे धर्मेंद्र, संजीव कुमार, हेमा मालिनी, अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी और 'गब्बर सिंह' बने अमजद खान को भूलना तो मुमकिन ही नहीं है, लेकिन 'सूरमा भोपाली' बने जगदीप, 'अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर' की भूमिका में असरानी, 'हरिराम नाई' का किरदार निभाते केश्टो मुखर्जी, 'इमाम साहब' बने एके हंगल, 'उनके पोते' की भूमिका में सचिन पिलगांवकर, 'बसंती की मौसी' के किरदार में लीला मिश्रा, 'कालिया' बने विजू खोटे और 'सांभा' बने मैकमोहन भी किसी को भूले नहीं भूलते... किरदारों के अलावा 'शोले' के डायलॉग भी हमारे ज़हन में इस तरह रच-बस चुके हैं कि आज भी सुनाई देते रहते हैं... आइए, आपको उनमें से कुछ आपको याद दिलाते हैं...
 
  • कितने आदमी थे...?
  • ये हाथ हमको दे दे, ठाकुर...
  • जो डर गया, समझो मर गया...
  • अब तेरा क्या होगा, कालिया...?
  • इतना सन्नाटा क्यों है, भाई...?
  • तुम्हारा नाम क्या है, बसंती...?
  • हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं...
  • कब है होली...?
  • अरे ओ, सांभा...
  • चल धन्नो, आज तेरी बसंती की इज़्ज़त का सवाल है...

'शोले' को लेकर लिखना शुरू करने के बाद समझना मुश्किल हो जाता है, क्या लिखें, क्या छोड़ें, लेकिन हमारी पीढ़ी के मन में इस फिल्म को लेकर इतना कुछ बसा हुआ है कि जितना भी लिखो, जितना भी पढ़ो, कम ही लगता है... सभी को लगभग सब कुछ याद है, लेकिन फिर भी पढ़ते वक्त पुरानी यादों में उतरने का जो एहसास होता है, वह बिल्कुल वैसा ही महसूस होता है, जैसा अपने या अपने परिवार के बचपन की पुरानी तस्वीरें देखते वक्त लगता है... सो, आपको इन्हीं यादों में डूबते-तरते छोड़कर मैं चलता हूं, और मौका पाते ही सबसे पहले एक बार फिर देखूंगा 'शोले'...