पितृ पक्ष 2017: श्रद्धा यदि सत्य को छू ले तो समझना चाहिए श्राद्ध धन्य हो गया.
खास बातें
- श्रद्धा यदि सत्य को छू ले तो समझना चाहिए श्राद्ध धन्य हो गया
- श्राद्ध का तात्पर्य श्रद्धाभिव्यक्ति परक कर्म हैं
- 365 दिन देव-पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाए तो और उत्तम है.
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक श्राद्ध किए जाते हैं. 7 सितम्बर से 20 सितम्बर तक इस वर्ष पितृ पक्ष रहेंगे. भारतीय संस्कृति में श्राद्ध को एक विशेष दर्जा दिया गया है. श्राद्ध क्या है? श्राद्ध क्यों करें? श्राद्ध की क्या आवश्यकता है? इन प्रश्नों पर विचार करें तो कई उपयोगी बातें सामने आती हैं.
आपको पता होगा कि श्राद्ध का तात्पर्य श्रद्धाभिव्यक्ति परक कर्म हैं जो देवात्माओं, महापुरुषों, ऋषियों, गुरुजनों और पितर पुरुषों की प्रसन्नता के लिए किए जाते हैं. वार्षिक श्राद्ध भी जो किए जाते हैं, उसमें श्रद्धाभाव का, पितृ पुरुषों के उपकारों के लिए उनके प्रति आभार व्यक्त करने की भक्ति भावना प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया जाता है.
इन सब प्रयत्नों में पितरों की तृप्ति के लिए उनकी पूजा-उपासना के साथ वैदिक विधान से पिण्डदान के साथ उनका तर्पण किया जाता है. पिण्ड तो प्रतीक भर होते हैं, असली समपर्ण श्रद्धा-भावना ही होती है. वही पितर, देव, ऋषि व महापुरुषों को प्रसन्न करने के माध्यम बनती है.
वैसे श्राद्ध जब भी किया जाए उत्तम है. बारह महीनों के पूरे 365 दिन देव-पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाए तो और उत्तम है. पूजा-उपासना जितनी अधिक हो, उतना अच्छा. देव-पितरादि को जितनी अधिकाधिक श्रद्धा भावना समर्पित करके प्रसन्न किया जायए उतना उत्तम.
पितृ पक्ष का श्राद्ध ऐसा है कि नित्य यदि श्रद्धार्पण न बन पड़े तो नैमित्तिक सही, करते रहना चाहिए. असली श्रद्धा तो नित्य देव पूजन, पितर पूजन, ऋषि आत्माओं का पूजन और सत्स्वरूप ईश्वर आराधन है. यह जितना अधिक हो सके उनता ही सत्य की निकटता प्राप्त होने का अवसर मिलता है.
हमें इस अधिकाधिक श्रद्धा समर्पण के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए. एक महानुभवी ने अच्छी तुकबंदी की है-
अगर हो सके तो उनको सांस-सांस में बसाया जाए.
पलकने की जरूरत नहीं, आंख मुंदे ही देखा जाए॥
इधर ढूंढ़ा न उधर ढूंढ़ा, अभी यहीं बस दरसा जाए.
यह रहे न वह रहे, बस हम ही हम हो हरसा जाए॥
श्रद्धा यदि इस हद तक पहुंच जाए तो समझना चाहिए श्राद्ध सार्थक हो गया. श्रद्धा यदि सत्य को छू ले तो समझना चाहिए श्राद्ध धन्य हो गया. वर्ष में एक बार श्राद्ध किया तो क्या किया? श्रद्धार्पण हर वक्त, हर पल, हर क्षण होना चाहिए. हमें देव पुरुषों, पितर पुरुषों, दिव्यात्माओं और ईश्वरीय सत्ता के जितना अधिक आशीष मिले, उतना ही अहोभाग्य है.
श्राद्ध के साथ-साथ एक और बात भी करने योग्य है. हम ईश्वर या पितर पुरुषों से सुख सौभाग्य की कामना करते हैं. सुख सौभाग्य केवल ईश्वर से नहीं मिलते. उनके रचित इस सुविस्तृत निसर्ग में भी वह मौजूद है जो पञ्च महाभूतों से निर्मित है. इन भूतों में धरती हमारे सबसे निकट है, बस-वास और खान-पान का आधार है. इसमें अन्न जल ही नहीं, वृक्ष वनस्पति भी हमारे जीवित एवं स्वस्थ रहने में सहायक होते हैं.
वृक्ष वनस्पतियों से निकले ऑक्सीजन से हम सभी की प्राण रक्षा और पोषण होता है. इस दृष्टि से हमारा भी कर्तव्य बनता है कि वृक्ष वनस्पतियों की कमी न आए, इसलिए वृक्षारोपण करते रहना चाहिए. हालांकि वन प्रदेशों में रहने वालों को शायद इसकी आवश्यकता उपयोगिता कम मालूम पड़े, परंतु रेगिस्तान में जाकर देखिए वृक्षों का क्या महत्व है.
जब तपती रेत की असह्य ऊष्मा से जान निकल रही होती है, तभी हरी-भरी धरती के सुशीतल आंचल की महत्ता समझ में आती है. इसीलिए पेड़ लगाने का क्रम भी श्राद्ध के साथ-साथ करते रहना चाहिए. जिस तरह पितर हमारे पालक पोषक हैं, उसी तरह वृक्ष भी हमारे जीवन रक्षक हैं. उनके बिना किसी भी प्रकार सुख सौभाग्य की संभावना नहीं बन सकती.
तो आइए, श्राद्ध के अवसर पर हम एक तरफ पितरों, देव आत्माओं और ऋषि आत्माओं को श्रद्धा अर्पित करें तो दूसरी तरफ एक-एक पौधा भी धरती की गोदी में रोपित करते जाएं. हरियाली रहेगी, तभी हम रहेंगे और सत्य के निकट पहुंचाने वाली श्रद्धाभिव्यक्ति-श्राद्ध कर्मो को करने का सुअवसर हमें मिलेगा.