
कश्मीर की सर्द हवाओं को मोदी-लोन की मुलाक़ात ने गर्म कर दिया है। जैसा कि लोन ख़ुद बताते हैं वे पहले भी दिल्ली आकर नेताओं से मिलते रहे हैं, लेकिन तब इतनी बड़ी ख़बर नहीं बनती थी। इस बार बन रही है तो इसके कई मायने हैं। पहले थोड़ा सज्जाद लोन के बारे में जानते हैं।
सज्जाद लोन कश्मीर के कोई बहुत बड़े नेता नहीं हैं। उनकी छवि अलगाववादी नेता से लेकर राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल होने वाले नेता तक की बदली और बनी है। 2008 में अमरनाथ ज़मीन विवाद के समय कश्मीर मुद्दे के हल की आवाज़ बन कर टीवी डिबेट में छाए रहे। कश्मीर वादी के इनके पैतृक ज़िले कुपवाड़ा में इनका थोड़ा बहुत जनाधार है जो मुख्यत: इन्हें विरासत में मिली है। 2009 ये ख़ुद और 2014 में इनके उम्मीदवार लोकसभा चुनाव हार चुके हैं।
सज्जाद लोन बड़े कश्मीरी नेता अब्दुल ग़नी लोन के बेटे हैं। अब्दुल ग़नी लोन 1990 के बाद हुर्रियत कांफ्रेंस का हिस्सा बने, लेकिन अपने उदारवादी रुख के चलते कट्टरवादियों से उनकी अनबन रही। 21 मई 2002 को श्रीनगर के ईदगाह मैदान में एक रैली के दौरान हत्या कर दी गई।
पिता की हत्या के बाद अलगाववादी हुर्रियत कांफ्रेंस से सज्जाद लोन का बिलगाव हुआ। वे मुख्यधारा राजनीति की ओर मुड़े। 2002 के चुनाव में इनका प्रॉक्सी उम्मीदवार जीता। हुर्रियत ने इन्हें और उनकी पार्टी पीपुल्स कांफ्रेंस को अपने गठजोड़ से निकाल दिया।
पीपुल्स कांफ्रेंस इस विधानसभा चुनाव में कुपवाड़ा-हंदवाड़ा की 12 सीटों पर लड़ रही है। कश्मीर घाटी में इस बार मेहबूबा मुफ्ती और उनकी पार्टी पीडीपी का ज़ोर बताया जा रहा है। सज्जाद लोन अकेले अपने बूते कश्मीर की राजनीतिक फिज़ा बदलने में कोई कारक साबित नहीं हो सकते। 12 में वे कितनी सीट निकाल पाएंगे ये कहना भी मुश्किल है।
कश्मीर के चुनावी दंगल में कोई उन्हें बड़ा पहलवान नहीं मान रहा इसलिए मीडिया भी एक सीमा के आगे उन्हें वजन नहीं देता। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मुलाक़ात ने उन्हें सुर्खियों में ला दिया है।
दरअसल 44 प्लस का मिशन लेकर चल रही बीजेपी को कश्मीर घाटी में अपना पैर जमाने की दरकार है। पार्टी की कठोर हिंदूवादी छवि को तोड़ने के लिए इसे स्थानीय कश्मीरी नेताओं के साथ की ज़रूरत है। इसके ज़रिये पार्टी घाटी में अपनी स्वीकार्यता का ढिंढोरा पीट सकती है। सज्जाद लोन पार्टी को ये मौक़ा मुहैया करा सकते हैं। जो कभी अलगावादी नेता रहा हो वो अगर बीजेपी के साथ होता है, तो पार्टी न सिर्फ इसे कश्मीर में बल्कि पूरे देश में भुना सकेगी।
पार्टी इसे मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रवाद के एक नए उभार के तौर पर पेश कर सकेगी। इसे अपना 'हीलिंग टच' कह सकेगी। ''वे गर्मजोशी से मिले। बातचीत में लगा, वे नहीं मैं प्रधानमंत्री हूं। उन्होंने हर बात ध्यान से सुनी। कश्मीर के लिए कुछ ख़ास है उनके दिल में'' मोदी से मुलाक़ात के बाद लोन के ऐसे बयान बीजेपी को सीना चौड़ा करने का मौक़ा दे भी रहे हैं।
बीजेपी को भरोसा है कि जम्मू में तो वे बेहतर करेगी ही जहां 37 सीटें हैं। असल चुनौती घाटी 46 सीटों पर है। लोन के बीजेपी की तरफ होने से ये अवधारणा तोड़ने में मदद मिलेगी की 'घाटी का अपनी राजनीतिक विरासत वाला कोई सुन्नी मुसलमान नेता' कभी बीजेपी के बारे में सोच नहीं सकता और ये भी बीजेपी 'कभी अलगाववादी रहे मुसलमानों' की तरफ हाथ नहीं बढ़ा सकती।
बीजेपी लोन के साथ आने से किनारों पर खड़े लोगों को इससे एक रास्ता मिलेगा। एनसी और पीडीपी के शासनों के दौर से पके और निराश लोगों की एक ऐसी तादाद घाटी में भी है जिसे नए विकल्प की तलाश है। उनके लिए ये नया विकल्प सीधे तौर पर बीजेपी नहीं हो सकता, और ना ही 'बड़े क़द का नेता नहीं' होने के कारण वे लोन पर ही दांव लगा सकते हैं।
लेकिन, 'एक राष्ट्रीय पार्टी से गठबंधन' लोन की बातों में वो वजन पैदा कर सकती है, जिससे वोटर उसकी तरफ आएं। आख़िर कश्मीरियों की परेशानी और समस्याओं के हवाले से सेंटर से बेहतर तालमेल और मदद की आस में ही तो फारूक-उमर अब्दुल्ला या मुफ्ती मोहम्मद-मेहबूबा दिल्ली की सरकार के क़रीब जाते रहे हैं। लोन अपने दायरे में उनके लिए ऐसा ही एक विकल्प देने की बात कर सकते हैं। बेशक वे घाटी के उमर अब्दुल्ला या मेहबूबा मुफ्ती न हों। पर सज्जाद लोन और उनकी पार्टी के पीछे बीजेपी 'चुनावी लॉजिस्टिक्स' लगा कर उन्हें ज़्यादा बड़ी क़ामयाबी के नज़दीक ले जा सकती है।
बीजेपी ने अभी से लोन की पार्टी की कम से कम छह सीटों पर जीत का आकलन कर लिया है। तभी पार्टी की राज्य ईकाई ने अपने मिशन 44+ को 50+ कर दिया है। महाराजा हरि सिंह के पोते और कांग्रेस नेता कर्ण सिंह के बेटे अजातशत्रु सिंह को बीजेपी में शामिल कर वो पहले ही एक राजनीतिक संदेश दे चुकी है।
कुल मिला कर छोटे घोड़े पर दांव के ज़रिये बीजेपी बड़ी रेस में जीत साधने की कोशिश में है। मोदी-लोन मुलाक़ात ने नवबंर दिसंबर के बर्फबारी के महीनों में घाटी में ऐसी चुनावी सरगर्मी पैदा की है जिससे कई उन्नत चोटियों की बर्फ पिघल सकती है।
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