नमस्कार, मैं रवीश कुमार... इस बार कौन जीतेगा? वही जीतेगा, तो कितने से जीतेगा...कहीं वो तो नहीं जीत जाएगा। सर्वे भी कह रहा है। मालूम नहीं चल रहा है। कहीं सर्वे गलत तो नहीं कह रहा है? पिछला सर्वे तो सही था, लेकिन उससे पहले वाला सर्वे गलत था। चुनाव आता है, तो इस तरह की बातें चर्चा-ए-चकल्लस की दुनिया की खुराक बन जाती हैं। ओपिनियन पोल हमेशा से संदिग्ध रहा है, विवादास्पद रहा है। जैसे स्टिंग ऑपरेशन की वैधता और नैतिकता का सवाल दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न की तरह लटका रहता है, वैसे ही ओपिनियन पोल प्रतिबंधित करने का सवाल लघु-उत्तरीय वस्तुनिष्ठ प्रश्न नहीं हो सकता है।
मंगलवार को न्यूज़ एक्सप्रेस नामक न्यूज़ चैनल ने एक स्टिंग कर यह बताया कि किस तरह से कुछ ले-देकर सर्वे करने की कंपनी सीटों में घट-बढ़ कर देती है। स्टिंग करने वाले न्यूज़ एक्सप्रेस के अनुसार ऐसी 11 कंपनियां हैं, जो नतीजो में हेरफेर करती हुई पाई गईं।
सर्वे करने वाली कंपनियां आम तौर पर कमी-बेसी होने के लिए तीन प्रतिशत का मार्जिन लेकर चलती हैं, मगर स्टिंग के अनुसार सी वोटर के अधिकारी इसे तीन से बढ़ाकर पांच प्रतिशत तक करने को तैयार दिख रहे थे। हम इस स्टिंग की सत्यता का परीक्षण करने योग्य नहीं हैं, इसलिए न्यूज़ एक्सप्रेस की तरह दावा नहीं कर सकते। न हीं हमारे पास स्टिंग में शामिल सभी कंपनियों के पक्ष हैं। इन सब बातों का ध्यान रखना इसलिए जरूरी है, ताकि संतुलन की औपचारिकता की आदत बनी रहे। वैसे सी वोटर के यशवंत देशमुख ने कहा कि उन्होंने न्यूज़ एक्सप्रेस चैनल के लिए भी सर्वे किए हैं। उन्हें अपनी टीम पर गर्व है।
तीन से पांच प्रतिशत के मार्जिन को यूं समझिए कि इतना प्रतिशत किसी के पक्ष में स्विंग हो गया, तो सर्वे में उसकी हवा, फिर आंधी और फिर लहर दिखने लगेगी। जहां 10 हज़ार से लेकर पांच हज़ार के अंतर से हार-जीत होती हो, वहां यह मार्जिन खतरनाक है। वह भी पैसा देकर। इस बात का कोई मुकम्मल अध्ययन नहीं है कि आप सर्वे से प्रभावित होकर ही वोट देते हैं। ज्यादातर बातें अंदाजी टक्कर हैं। अगर सर्वे गलत हुए हैं, तो इसका मतलब यह भी है कि आप सर्वे से बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं होते हैं।
आज आम आदमी पार्टी ने ओपिनियन पोल की वैधता पर सवाल उठाया और कहा कि देश में राजनीतिक षडयंत्र चल रहा है। अरविंद केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली चुनावों में किस तरह से बीजेपी को पहले 20, फिर 30 और चुनाव आते-आते 40 सीटें दी जाने लगीं। यही काम लोकसभा चुनाव के समय हो रहा है। हर हफ्ते बीजेपी की पहले 160 आएंगी, फिर 190 आएंगी और सब लोगों को पता है कि चुनाव आते-आते इसे 280 तक ले जाया जाएगा। और 280 पर दिखाया जाएगा कि देश के अंदर मोदी जी की सरकार बन रही है।
एक सवाल यह खड़ा होता है कि एक हफ्ते के अंदर पूरे देश में इतने सर्वे कैसे हो जाते हैं। योगेंद्र यादव ने प्रतिबंध की बात नहीं कही, लेकिन पारदर्शिता की वकालत की। कांग्रेस नेता अजय माकन और लीगल सेल के अध्यक्ष केसी मित्तल ने भी आज चुनाव आयोग से मुलाकात कर कहा कि ओपिनियन पोल पर बैन लगना चाहिए।
केजरीवाल अब मोदी और भारतीय जनता पार्टी से पूछ रहे हैं कि किस चैनल को कितने पैसे बांटे और किस पोल एजेंसी को कितने पैसे बांटे, इसकी एसआईटी बनाकर जांच होनी चाहिए। कांग्रेस के अजय माकन कह रहे हैं कि ओपिनयन पोल में कालाधन लग रहा है। वैसे इसी 23 फरवरी को हिन्दुस्तान टाइम्स में हरिंदर बवेजा की खबर छपी है कि राहुल गांधी अपने उम्मीदवारों की लोकप्रियता का पता लगाने के लिए सर्वे करा रहे हैं। सीरियस रहिए ये प्राइम टाइम है।
आज ही मुख्य चुनाव आयुक्त का बयान आया है कि आयोग ने तो 10 साल पहले 2004 में सर्वदलीय बैठक में यह सुझाव दिया था। फैसला तो सरकार को ही करना है। इसी जनवरी में टाइम्स आफ इंडिया की खबर है कि सरकार ओपिनयन पोल पर प्रतिबंध लगाने पर सोच रही है। सोचती रह गई। यह ध्यान में रखिये कि 2009 में संसद ने कानून बनाकर मतदान के सभी चरणों के पूरा होने से पहले एग्जिट पोल दिखाने पर बैन किया है।
आयोग का तर्क है कि दक्षिण भारत सहित पूरे भारत में राजनीतिक दलों और नेताओं के अपने चैनल हैं। क्या इनका ओपिनियन पोल तटस्थ हो सकता है? क्या कोई पैसे और प्रभाव के दम पर सर्वे दिखाकर गुमराह नहीं कर सकता? पिछले साल अक्तबूर में इन्हीं सब सवालों को लेकर चुनाव आयोग ने तमाम दलों को लिखा था, लेकिन कुछ नहीं हुआ। सरकार को जैसे स्टिंग का इंतजार था, ताकि हर सर्वे में बढ़त को प्राप्त नरेंद्र मोदी और बीजेपी पर निशाना बनाया जा सके।
ओपिनियन पोल के बारे में बीजेपी की राय प्रतिबंध करने की नहीं है। सर्वे बीजेपी के खिलाफ भी गलत हुए हैं। 2004 के तमाम सर्वे में बढ़त के बाद भी अटल जी चुनाव हार गए थे। 4 नवंबर, 2013 के टाइम्स ऑफ इंडिया में नरेंद्र मोदी का बयान छपा है कि सर्वे बैन करना मौलिक अधिकारों का हनन है। उनका कहना था कि मैं इनकी सीमाओं से अवगत हूं। 2002 में ओपिनियन पोल ने दिखाया था कि बीजेपी की सरकार गुजरात में नहीं बनेगी। ओपिनियन पोल का मिक्स रिकार्ड रहा है। यह राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है कि हम पोल का क्या करें। लेकिन बैन करने का मकसद ही समझ नहीं आता।
क्या एग्जिट पोल की तरह सर्वे को बैन कर देना चाहिए? दुनिया भर में सर्वे होते हैं और विवादास्पद भी रहे हैं। क्या सर्वे भी पेड न्यूज आइटम हो गए हैं?
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