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This Article is From May 03, 2014

चुनाव डायरी : यूपीए को पूरे नंबर नहीं आए तो क्यों विपक्ष में बैठेगी कांग्रेस?

चुनाव डायरी : यूपीए को पूरे नंबर नहीं आए तो क्यों विपक्ष में बैठेगी कांग्रेस?
राहुल गांधी और सोनिया गांधी की फाइल तस्वीर
नई दिल्ली:

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की तरफ से साफ़ संकेत दिए जा रहे हैं कि अगर यूपीए को सरकार बनाने लायक नंबर नहीं मिले, तो कांग्रेस विपक्ष में बैठना पसंद करेगी। हालांकि पार्टी पोस्ट पोल एलायंस पार्टनर ढूंढने की कोशिश ज़रूर करेगी, लेकिन तीसरे मोर्चे को समर्थन देने जैसी बातों पर पार्टी में एक राय नहीं है।

सलमान खुर्शीद जैसे कांग्रेसी नेता कह चुके हैं कि 'सांप्रदायिक ताक़तों' को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस तीसरे मोर्चे को अपना समर्थन देकर सरकार बनवा सकती है। इसी तरह की बात सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की तरफ से भी की गई। हालांकि बाद में उन्होने स्पष्टीकरण दिया की उनके कहने का मतलब तीसरे मोर्चे को समर्थन देने का नहीं था।

असल में कांग्रेस की ऊहापोह की हालत के पीछे दो मुख्य कारण हैं। एक तो यह कि अगर वह बहुत ख़ुश होकर भी सोच ले, तो सीटों की तादाद 100-110 से आगे जाती नहीं दिख रही। हालांकि पार्टी 140 सीट तक लाने पर ज़ोर लगा रही है। अपनी पतली हालत के चलते कांग्रेस को पता है कि सत्ता इस बार आसान नहीं। किसी तरह जोड़-तोड़ कर सरकार बनाने से एक तो स्थायित्व नहीं रहेगा और दूसरा यह कि एलायंस पार्टनर अपने-अपने हिसाब से खींचतान करेंगे, जिससे यूपीए की बदनामी और बढ़ सकती है। ऐसे में सत्ता से दूर रहना ही बेहतर विकल्प होगा।

लेकिन दूसरी तरफ वह बीजेपी को सत्ता से दूर रखना चाहती है, इसलिए पार्टी नेताओं के एक तबके को लगता है कि बाहर से समर्थन देकर भी तीसरे मोर्च की सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को तैयार रहना चाहिए। लेकिन कहा जा रहा है कि राहुल इसके लिए तैयार नहीं।

आख़िर राहुल परहेज़ क्यों करना चाहते हैं? यह जानने के लिए कांग्रेस के इतिहास में थोड़ा पीछे चलते हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की लहर पर सवार कांग्रेस को 1984 में 404 सीटें मिलीं। लेकिन बोफोर्स घोटाले, पंजाब में आतंकवाद इत्यादि के मुद्दे पर कांग्रेस सरकार घिरती गई। 1989 के चुनाव में कांग्रेस को महज़ 197 सीटें हासिल हुई, लेकिन कांग्रेस ने सरकार बनाने की बजाय कांग्रेस के खिलाफ लड़कर जीते वीपी सिंह की सरकार बनने दी।

यह सरकार लंबी नहीं चली। देवीलाल की बजाय वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाए जाने से नाराज़ चंद्रशेखर ने जनता दल से 64 सांसदों के साथ अलग राह लेकर समाजवादी जनता पार्टी का गठन किया। कांग्रेस ने समर्थन देकर चंद्रशेखर को पीएम बना दिया। चंद महीने बाद ही चंद्रशेखर सरकार पर राजीव गांधी की जासूसी का आरोप लगा। कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया।

1991 के चुनाव के बीच में ही राजीव गांधी की हत्या हो गई। कांग्रेस को 244 सीटें मिलीं। पार्टी फिर सत्ता में आई और पीवी नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री बने। सरकार बनाने और बचाने के लिए नरसिम्हाराव पर जेएमएम सांसदों की ख़रीद-फ़रोख़्त के आरोप लगे। विवाद ने तूल पकड़ा, लेकिन सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया।

90 के दशक से ही गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हो चुका था। बीजेपी ने 24 दलों के साथ नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस यानि एनडीए बनाकर 1998 से लेकर 2004 तक राज किया। 1999 के चुनाव में कांग्रेस महज़ 114 सीट पर सिमट गई थी। यह सवाल भी उठने लगा था कि कांग्रेस गठबंधन सरकार नहीं चला सकती। 2004 के चुनाव में कांग्रेस को 145 सीटें मिलीं। कांग्रेस युनाईटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (यूपीए) बना सत्ता पर काबिज़ हुई। सरकार पूरे पांच साल चली।

ग़ौरतलब है कि 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बावजूद 2009 में कांग्रेस 206 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। बात सरकार बनाने की आई, तो पार्टी के रणनीतिकारों में से एक जनार्दन द्विवेदी जैसे नेता ने गठबंधन सरकार बनाने के खिलाफ अपनी राय दी। उनका मानना था कि पूरे पांच साल तक गठबंधन सरकार चलाकर कांग्रेस ने गठबंधन राजनीति में ख़ुद को साबित कर दिया है। कांग्रेस ने यूपीए वन की अपनी उपलब्धियों के आधार पर अपने लिए बहुमत मांगा था, जो वोटरों ने नहीं दिया। तो जब पार्टी को जनादेश नहीं मिला है, तो उसे विपक्ष में बैठना चाहिए।

इस तर्क के पीछे आकलन यह था कि कांग्रेस के बिना जो भी मिलीजुली सरकार बनेगी, वह पंगु साबित होगी और कुछ महीने या एकाध साल की मेहमान होगी। उसके गिरने के बाद फिर चुनाव होंगे, जिसमें कांग्रेस को अपनी पूरी ताक़त से लड़ना चाहिए। उन्होंने 1989 का उदाहरण भी दिया, जब 197 सीटें होने के बावजूद राजीव गांधी ने सरकार बनाने का दावा पेश करने की बजाय सरकार से बाहर बैठना पसंद किया। दो साल बाद 1991 में कांग्रेस फिर सत्ता में लौट आई। (हालांकि इसमें राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति भी बड़ी वजह रही) लेकिन द्विवेदी के तर्क को नहीं सुना गया और यूपीए टू की सरकार बनी।

कांग्रेस ने यूपीए वन के दौरान कई अच्छे कामों की वजह से जो नंबर पाए, वे यूपीए टू के दौरान और ख़ासतौर पर आख़िरी दो साल के दौरान सामने आए घपले, घोटालों और महंगाई पर काबू नहीं रख पाने की वजह से गंवा दिए।

पिछले दिसंबर में दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद भी पार्टी नेताओं के एक तबके की राय थी कि जनता ने न तो सरकार बनाने का और न ही सरकार बनवाने का जनादेश दिया है, लेकिन फिर भी कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनने दिया। केजरीवाल बेशक 49 दिन में इस्तीफ़ा दे सत्ता से भाग गए हों, लेकिन इस दौरान कांग्रेस का अनुभव अच्छा नहीं रहा। सरकार बनवा कर भी उसे खरीखोटी सुननी पड़ी।

2009 में केंद्र और 2013, दिसंबर में दिल्ली में सरकार बनाने और बनवाने के अनुभव के बाद पार्टी को लगने लगा है कि जनादेश से अलग जाकर सरकार बनने या बनवाने में अपनी भूमिका निभाना नुकसानदेह ही साबित होता है।

राहुल और उनके क़रीबियों को लगता है कि पूरे नंबर न आने के बावजूद सरकार बनाने बनवाने के खेल में शामिल होने से कांग्रेस अपनी ही ज़मीन खोती है और खोएगी। फ्रैक्चर्ड मैनडेट मिलने की स्थिति में जो भी पार्टी चाहे जोड़-तोड़ कर सरकार बनाए, कांग्रेस चुपचाप अपनी बारी का इंतज़ार करे। इस बीच कांग्रेस अपनी संगठनात्मक कमज़ोरियों को दूर करने का काम करे। यूपी-बिहार जैसे राज्यों में पार्टी में जान फूंकने की कोशिश हो। मिली-जुली सरकार की स्थायित्व का भरोसा नहीं होता। ऐसे में जैसे ही वह सरकार गिरे, कांग्रेस कमर कस कर तैयार रहे चुनावी कामयाबी को हासिल करने के लिए।

इससे न तो उस पर गठबंधन साथियों के सामने झुक-झुक कर सरकार चलाने की मजबूरी होगी, न ही सबको साथ साधने में अपनी ऊर्जा खर्च करनी होगी। राहुल के पास भी वक्त होगा कि वह जिस तरह से पार्टी को युवाओं के हाथ में सौंपना चाहते हैं, उस दिशा में आगे बढ़ें।

पार्टी के एक धड़े के मुताबिक निचले स्तर से लेकर कांग्रेस कार्यसमिति और यहां तक कि पार्टी में महासचिव, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत तमाम पदों के लिए चुनाव कराने जैसी बातों को लागू करना चाहते हैं, वे सब करें। देश के सामने एक नई कांग्रेस पार्टी लेकर आएं। इसलिए विपक्ष में बैठना कांग्रेस को भविष्य के लिए तैयार करेगा, इसके बरक्स सत्ता में शामिल होने वाली पार्टियों पर डेलीवर करने का दबाव होगा और सरकार चलाने के क्रम में वे ग़लतियां भी करेंगी। सो वो वेट एंड वॉच सही रणनीति होगी।

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