रवीश, आपके रोड शो में स्त्रियां क्यों नहीं होती हैं? साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा का फोन मुझे और परेशान कर गया। उससे कुछ दिन पहले प्राइम टाइम की एक दर्शक का एसएमएस आया कि औरतें क्यों नहीं बोल रही हैं। हम और हमारी सहयोगी सर्वप्रिया सांगवान रोड शो के पहले ही दिन से इसे लेकर परेशान थे।
सहारनपुर के एक गांव में मैंने सर्वप्रिया से कहा कि आप घरों के भीतर जाइए और औरतों से बात कीजिए। फिर उनके बारे में हम अलग से कैमरे पर बात करेंगे। तभी उस गांव से शमा और फ़िरदौस नाम की दो लड़कियां मुझे मर्दों की भीड़ से निकाल कर ले आती हैं और अपनी व्यथा कथा कहने लगती हैं। फिर उसके बाद जो कहानी बनती है, वो चंद मिनट पहले तक बन रही मर्दाना ज़बान की कहानी से बिल्कुल अलग दिखने लगती है।
दुनिया भर में फैले एनडीटीवी के दर्शक शमा और फ़िरदौस की मदद के लिए बेचैन हो जाते हैं। लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे हमारी कहानी से औरतें ग़ायब होने लगती हैं। हमारे सतर्क दर्शक नोटिस करने लगते हैं। बार-बार मांग आने लगती हैं कि औरतें क्यों नहीं बोल रही हैं।
हम भी सोचने लगे कि क्यों नहीं बोल रही हैं औरतें। जब भी मोहम्मद मुर्सलिन का कैमरा किसी चौखट की तरफ घूमता है, दहलीज़ पर खड़ी औरतें या लड़कियां पीछे हट जाती हैं। मुझे मर्दों या लड़कों से कहना पड़ता है कि आप हमारे साथ मत आइए, औरतों से बात करनी हैं। वे नहीं मानते हैं। पीछे-पीछे चले आते हैं।
होता यह है कि अचानक खिड़की से झांक रही औरत गांव भर के मर्दों से घिर जाती है। बोलो-बोलो... रिपोर्टर आए हैं, चुनाव की रिपोर्टिंग ले रहे हैं... बयान दो कि किसे वोट दोगी। मर्द बोलने के लिए उकसाते भी हैं और क्या बोलना है, यह भी बोलने लगते हैं। औरतें और लड़कियां संकोच करने लगती हैं। बोलने के लिए कुछ बोल देती हैं। निश्चित रूप से यह उनकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति नहीं है।
हमने सोचा कि अब इसके लिए रणनीति बनानी होगी। हम जैसे ही किसी गांव में घुसते हैं, लड़कों या मर्दों से घिर जाते हैं। इनमें से कई लोग तो आम लोग होते हैं, मगर कई राजनीतिक दलों के चतुर कार्यकर्ता, जो आम आदमी के भेष में अपनी पार्टी का बखान करने लगते हैं। ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगते हैं कि हमारे नेता की लहर है। आम लोग सहम जाते हैं और उनकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक नहीं रह जाती है। हमें एक भीड़ से निकलकर दूसरी भीड़ बनानी पड़ती है। कहना पड़ता है कि आप यहीं रुकिये, हमें नए लोगों से बात करनी है। नए लोगों के साथ भी कुछ देर तक स्वाभाविक बातचीत होती है, मगर वहां भी मर्दों का कब्ज़ा बना रहता है।
हम अपनी रणनीति फिर बदलते हैं। अब हम किसी गांव में बिना बताए पहुंचने लगते हैं। फिर भी औरतों से बात करने की समस्या का समाधान नहीं मिलता। मर्द आखिर मर्द निकलते हैं। उन्हें सब पता है। गांव में घुसते ही पहला सवाल करते हैं कि सर्वे करने आए हैं या बयान लेने। बयान की भाषा वही, जो अखबारों और टीवी की है। जैसे ही हम ज़िद करने लगते हैं कि आप लोग जाइए हमें लड़कियों से बात करनी है। वे लोग जाने की बजाय कैमरे के साथ-साथ औरतों को घेर लेते हैं।
कितना अजीब है। पचास फीसदी आबादी की कोई आवाज़ नहीं है। उस तक पहुंचने के लिए इतना संघर्ष। इससे पता चलता है कि गांव, कस्बों के चौक-चौराहों और रास्तों पर मर्दों का ही कब्ज़ा बरकरार है। वही घूमते मिलते हैं।
इस बार हम पहुंचते हैं इलाहाबाद के हमीदिया गर्ल्स कॉलेज। प्रिंसिपल से हम गुज़ारिश करते हैं कि हमें लड़कियों से बात करनी है और जब हम उनसे बात करेंगे, तब आप भी वहां नहीं होंगी। वो मान तो जाती हैं, मगर कहती हैं कि इम्तहान चल रहे हैं। फिर भी वो घरों से कुछ लड़कियों को बुला देती हैं। हम उन लड़कियों के साथ कॉलेज की दूसरी मंज़िल पर एक क्लास रूम में पहुंचते हैं। जैसे ही कैमरा रिकॉर्डिंग चालू करता है, हमारी नज़र लड़कियों के घेरे के पीछे बैठी प्रोफेसर पर पड़ती है। मैं उन्हें भी कमरे से जाने के लिए कह देता हूं। उनके जाने के बाद भी लड़कियों की घबराहट कम नहीं होती है। कुछ लड़कियों एक-दूसरे के पीछे छिपने की कोशिश करती नज़र आईं। मैंने उन्हें सामान्य होने में काफी वक्त दिया, काफी देर के बाद वे खुलने लगीं। अपने सपनों, मुश्किलों और मोहल्लों के बारे में बात करने लगीं।
टीवी और ट्वीटर देखकर लगता है कि भारत का लोकतंत्र कितना बड़बोला है, जबकि हकीकत में ऐसा नहीं हैं। पचास फीसदी आबादी को बोलने के लिए स्पेस कहां है, जगह कहां है? लड़कियों की तकदीर बदलने के लिए हमीदिया कॉलेज बना था। उस कॉलेज ने हमें एक बार फिर लड़कियों तक पहुंचने के लिए नया रास्ता दिखा दिया।
इस प्रक्रिया में हमने एक खास बात नोट की है। शाक्य समाज की राजनीतिक चेतना पर रिपोर्ट बनाने के लिए मैनपुरी गांव गए थे। वहां हमने देखा कि अनुसूचित जाति की औरतें काफी मुखर हैं। खासकर जाटव समाज की। उनकी राजनीतिक प्राथमिकता काफी स्पष्ट थी लेकिन पिछड़े समाज में आने वाले शाक्यों की औरतें अभी उतनी मुखर नहीं हुई हैं। उन तक पहुंचने के लिए हमें मर्दों की भीड़ को डांटकर भगानी पड़ती है। दूर जाने के लिए कहना पड़ता है।
मैं माइक लेकर फूस की झोपड़ी में खड़ी शशि देवी नाम की महिला से बात करने के लिए पहुंचता हूं। इस बार मोहम्मद मुर्सलिन जानबूझ कर कैमरे को औरतों से बहुत दूर रखते हैं। बातचीत शुरू होती है। उनकी मदद के लिए हमारी सहयोगी सर्वप्रिया सांगवान झोपड़ी में आ जाती हैं। औरतों का हौसला बढ़ता है। धीरे-धीरे खुलने लगती हैं। उनकी बातचीत से पता चलता है कि वे अपने मतदान का फैसला प्रधान या पति के कहने पर करती हैं। प्रधान कैसे उनके वोट का सौदा करता है, यह नहीं मालूम। उन्हें अपने राजनेताओं से घर के आगे ईंट की सड़क के अलावा कोई और उम्मीद नहीं हैं।
लोकतंत्र में जातिगत समाजों की राजनीतिक भागीदारी से ही उस समाज के मर्दों और औरतों की राजनीतिक अभिव्यक्ति बदलती है। इसके लिए जातिगत चेतना बहुत ज़रूरी है। जातिगत चेतना से ही वो आत्मविश्वास बनता है, जो लोकतंत्र को विविध बना देता है। इस बात के बावजूद कि जातिगत चेतना लोकतांत्रिक चेतना को आगे चलकर जड़ कर देती है।
धीरे-धीरे 'रवीश का रोड शो' में औरतो को जगह मिलने लगती हैं। हम जिन गांवों में जाते हैं, वहां ऐसी कई महिलाओं से मुलाकात होती है, जिन्होंने रोड शो देखा होता है। हमने पाया कि उनका आत्मविश्वास बदला हुआ था। आज़मगढ़ के एक गांव में महिला एक बच्चे को भेजकर हमारी टीम को मर्दों की टोली से बुला लेती है। अंदर बिठाकर अपनी बेटी के साथ होने वाली परेशानियों को साझा करती है।
हम इसी ज़िले में राहत नाम की एक रेडियो जॉकी से मिलते हैं, जो वॉयस ऑफ आज़मगढ़ नाम से सामुदायिक रेडियो चलाती हैं। राहत बनारस से आज़मगढ़ नौकरी करने आई है। यह उसका पहला पलायन है। एक मौके ने उसकी जिंदगी बदली, तो अब वो आज़मगढ़ की उन औरतों की आवाज़ बनना चाहती है, जिनके पति काम की तलाश में अरब देशों में पलायन कर गए हैं।
कहने का मतलब यह है कि ज़रा सी कोशिश करने पर हम औरतों की आवाज़ सुनने लगते हैं। उनका नज़रिया सामने आने लगता है। हम 'रवीश का रोड शो' में लगातार इस बात को कहने लगते हैं कि हम जहां भी जाते हैं, मर्दों से घिर जाते हैं। पूरा जनमत मर्दाना हो जाता है। जनाना जनमत तो दर्ज ही नहीं हो रहा है। उनकी आकांक्षाएं, उनकी शिकायतें, उनकी बेचैनियां सब गायब।
आधी आबादी से बात किए बगैर रोड शो कैसे मुकम्मल हो सकता है। इस बार आप दर्शकों ने इसे मुकम्मल बनाया है। मुझे पता है कि एनडीटीवी इंडिया देखने वालों में औरतों और लड़कियों की संख्या ज़्यादा है। जब उनके एक एसएमएस और फोन से मेरे रोड शो में इतना बदलाव आ सकता है, तो उनकी एक बात से हमारा लोकतंत्र कितना विविध हो सकता है। मेरे कानों में अभी भी मैत्रेयी पुष्पा की आवाज़ गूंज रही है, "रवीश तुम्हारे शो में स्त्रियां क्यों नहीं हैं..." शुक्रिया आप दर्शकों का।
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