सुरों का बनारस…संस्कृति का बनारस…..धर्म का बनारस…. और विरासत का बनारस… अब सियासत का बनारस। काशी को बहुत पुरानी नगरियों में से एक माना जाता है, लेकिन काशी का विकास किसने किया इस बात का कोई जवाब नहीं मिल पाता।
बनारस कभी भी सियासत के लिए नहीं जाना जाता, बनारस जाना जाता है अपने पान के लिए और बनारसी साड़ियों के लिए, अपने संगीत के लिए और अपने हाव-भाव के लिए… यह शायद पहली बार हो रहा होगा कि बनारस सियासत की वजह से राष्ट्रीय एजेंडे पर है।
इसमें भारतीय जनता पार्टी के नेता मुरली मनोहर जोशी का भी बहुत बड़ा हाथ है, क्योंकि बनारस से जीतने के बाद वह ईद का चांद हो गए। लोगों ने उन्हें बनारस में बहुत कम पाया। यह बात भी यहां कहना जरूरी है कि मुरली मनोहर जोशी पिछला चुनाव महज 16,000 वोटों से जीते थे, इसलिए कहीं न कहीं बनारस को बदलाव की जरूरत है।
बदलाव बड़ा है और साफ है नरेंद्र मोदी को वहां से चुनाव लड़ाने का, जो इस रणनीति पर आधारित है कि पूर्वांचल जहां पर बीजेपी ने पिछले लोकसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट जीती थी और विधानसभा चुनाव में पांच सीटें जीती थीं, वहां पर नरेंद्र मोदी की मौजूदगी से बीजपी की तस्वीर बेहतर हो पाएगी।
गंगा के उस पार बिहार के इलाकों में भी इस रणनीति का प्रभाव होने की उम्मीद है, जहां पर सर्वे अभी से बीजेपी के बेहतर प्रदर्शन का अनुमान दे रहे हैं। लेकिन इस सब सियासत के बीच में काशी का क्या होगा? क्या नरेंद्र मोदी कभी काशी को समय दे पाएंगे? क्या केजरीवाल जैसे लोग काशी को समझ सकते हैं या उनके लिए काशी सिर्फ वह सियासी अखाड़ा है, जहां पर वह नरेंद्र मोदी को चुनौती देकर अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। मुकाबला दिलचस्प है काशी बनाम सियासत का…. देखना यह होगा कि जीत सियासत की होती है या काशी की...
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