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This Article is From Jan 30, 2017

अखिलेश यादव-राहुल गांधी की नई दोस्ती से उठते नए सवाल

Ratan Mani Lal
  • पोल ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 07, 2017 14:14 pm IST
    • Published On जनवरी 30, 2017 19:56 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 07, 2017 14:14 pm IST
कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच चुनावपूर्व समझौता हाल के दशकों में सबसे आश्चर्यजनक और महत्‍वपूर्ण राजनीतिक गठबंधनों में एक है. आश्चर्यजनक इसलिए कि समाजवादी पार्टी का उदय और राजनीतिक महत्‍व कांग्रेस विरोध पर ही टिका हुआ था, और महत्त्वपूर्ण इसलिए कि पहली बार कांग्रेस नेता राहुल गांधी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सार्वजनिक तौर पर गठबंधन से ज्यादा दोस्ती का प्रदर्शन किया है. दो धुर विरोधी रहे राजनीतिक दलों के बीच मित्रता का यह प्रदर्शन कितना राजनीतिक है या कितना वास्तविक है यह तो आने वाला समय ही बताएगा. लेकिन इस गठबंधन के बाद उत्तर प्रदेश के दो प्रमुख राजनेताओं, मुलायम सिंह यादव और मायावती की भविष्य की राह के बारे में कुछ संकेत स्पष्ट होने लगे हैं.

गठबंधन के बाद हुई पहली संयुक्त प्रेस वार्ता में राहुल ने जिस तरह से मायावती के बारे में अपने विचार रखे वे स्पष्ट इशारा करते हैं कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्‍व समाजवादी पार्टी के साथ-साथ बहुजन समाज पार्टी से भी करीबियां बनाये रखने का पक्षधर है. और यह तब है जब अखिलेश यादव ने न केवल मायावती के लिए अपने परिचित संबोधन 'बुआ' का इस्‍तेमाल करने से इनकार कर दिया, बल्कि यहां तक कहा कि सपा-कांग्रेस गठबंधन में मायावती जैसे 'बड़े' नेता और उनके 'हाथी' (चुनाव चिन्ह) के लिए कोई जगह नहीं है.

राहुल ने मायावती की तारीफ शायद यह जानते हुई की थी कि इसका मायावती की सार्वजनिक प्रतिक्रिया पर कोई असर नहीं दिखेगा, और हुआ भी यही. मायावती ने सपा-कांग्रेस गठबंधन को यह कह कर किनारे किया कि ये 'दिल मिले न मिले, हाथ मिलाते रहिये' जैसा वाकया है.

दूसरी ओर मुलायम ने इस गठबंधन की उपयोगिता को सिरे से नकारते हुए कहा कि अखिलेश के अकेले चुनाव लड़ने पर भी परिणाम अच्छा होता, और वे स्वयं कांग्रेस के साथ किसी भी तरह के गठबंधन के खिलाफ हैं. उन्होने यह भी दावा किया कि वे इस गठबंधन के खिलाफ प्रचार करेंगे.

यहीं से इन दोनों नेताओं (मुलायम और मायावती) की राजनीतिक सोच में आए परिवर्तन के बारे में संकेत मिलने शुरू होते हैं. मायावती ने अपना सामाजिक और राजनीतिक स्थान ऐसा बना रखा है कि कांग्रेस उनकी पसंद-नापसंद का ख्याल किये बिना उनसे संबंध अच्छे बनाये रखने के लिए अपने गठबंधन सहयोगी (सपा) के विचारों के विपरीत जाने को तैयार है. यह कांग्रेस को उस स्थिति से निबटने की तैयारी दिखती है जब चुनाव नतीजों के बाद के गणित में सपा-कांग्रेस को कुछ अतिरिक्त समर्थन की जरुरत हो.

दूसरी ओर हैं मुलायम, जो अपनी विचारधारा से विपरीत बने गठबंधन का न केवल विरोध कर रहे हैं बल्कि अपने बेटे के खिलाफ प्रचार करने के लिए भी तैयार हो रहे हैं. वर्ष 2012 में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने के बाद से ही मुलायम न केवल अखिलेश सरकार की आलोचना करते रहे बल्कि सार्वजनिक तौर पर उन लोगों का साथ देते नज़र आये जिन्हें अखिलेश नापसंद करते हैं. और अब, जब अखिलेश उन शक्तियों के साथ मिल कर सत्ता पर बने रहने की कोशिश कर रहे हैं जिन्हें मुलायम पसंद नहीं करते, तब भी मुलायम विपक्षी के तौर ही पेश आ रहे हैं.

आज से लगभग 25 वर्ष पहले मुलायम ने समाजवादी पार्टी की स्थापना की थी, और इतने ही वर्ष पहले मायावती दलित वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर प्रदेश की राजनीति में उभर कर आई थीं. तबसे अब तक, जहां दोनों ने कई बार प्रदेश की सरकार का नेतृत्‍व किया. जहां मुलायम ने चाहे-अनचाहे अपनी पार्टी का नेतृत्‍व अपने बेटे के हाथ में दे दिया है, जो एक अन्य दल (कांग्रेस) का साथ लेकर सत्ता में बने रहने की कोशिश में है, वहीँ मायावती अभी भी अपने ही दम पर अपनी पार्टी चला रही हैं और सत्ता में वापस आने की तयारी कर रही हैं.

एक तरफ है गठबंधन के साथी कांग्रेस द्वारा मायावती का समर्थन, और दूसरी ओर है मुलायम द्वारा गठबंधन का विरोध–क्या इनमें कोई संबंध है? क्या मुलायम अपने साथ हुए व्यवहार से इतना क्षुब्ध और निराश हैं कि नई पीढी द्वारा किये जा रहे राजनीतिक प्रयोगों के परिणाम आने से पहले ही उन्हें ख़ारिज कर रहे हैं? क्या ऐसा करके वे अपने राजनीतिक जीवन से संन्यास लेने की ओर बढ़ रहे हैं? या इसमें में भी कोई ऐसी सोच है जिसकी गहराई सिर्फ मुलायम को ही मालूम है? क्या कांग्रेस द्वारा मायावती के प्रति नर्म रुख उन्हें आशंकित कर रहा है? क्या वे सपा-कांग्रेस गठबंधन की चुनावी सफलता के प्रति सशंकित हैं? और क्या मुलायम का ताजा रुख उनका अग्रिम प्रयास है कि ऐसी विफलता का ठीकरा कांग्रेस के सिर फोड़ा जाए? उत्तर प्रदेश की राजनीति में ऐसे टेढ़े सवाल अक्सर उठते रहते हैं और उनका जवाब कभी भी सीधा नहीं होता.

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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