क्या नोटबंदी की तरह ही अचानक होंगी सैन्य प्रमुख समेत अहम पदों पर नियुक्तियां?

क्या नोटबंदी की तरह ही अचानक होंगी सैन्य प्रमुख समेत अहम पदों पर नियुक्तियां?

नए थल सेना प्रमुख के लिए लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी का नाम सबसे आगे चल रहा है

देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि जब 31 दिसंबर को थलसेना प्रमुख जनरल दलबीर सिंह, वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अरूप राहा, रॉ प्रमुख राजेन्द्र खन्ना और इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख दिनेश्वर शर्मा एकसाथ रिटायर हो रहे हैं, लेकिन सुरक्षा से जुड़े इन अहम पदों के उत्तराधिकारी कौन होंगे, यह अब तक तय नहीं हो पाया है. इन पदों के संभावित 3-3 नाम अप्वाइंमेंट्स कमेटी ऑफ केबिनेट (एसीसी) को पिछले महीने ही भेजे जा चुके हैं लेकिन अभी तक इस पर कोई फैसला नहीं लिया जा सका है.

गौरतलब है कि इस कमेटी के मुखिया खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं और अंतिम फैसला उन्हीं को लेना है. लिहाजा इतने अहम पदों पर अब तक फैसला नहीं हो पाने के कारण दिन-रात काम करने वाले साउथ ब्लॉक से लेकर नार्थ ब्लॉक तक में लोगों की नींद उड़ी हुई है.

यहां यह बताना लाजिमी होगा कि अब तक यह परंपरा रही है कि नए थल और वायुसेना प्रमुख के नाम का ऐलान वर्तमान प्रमुख के सेवानिवृत्त होने से दो महीने के अंदर ही हो जाता है ताकि सेना के कामकाज में आसानी हो और नया प्रमुख विधिवत पद संभालने से पहले कामकाज को ठीक से समझ ले.

जनरल दलबीर सिंह और वायुसेना प्रमुख अरूप राहा के बाद थल सेना और वायु सेना की कमान किसके हाथ में होगी, यह अब तक स्पष्ट नहीं है, इसलिए कयासों का दौर भी जारी है. अटकलें केवल सुरक्षा गलियारों में ही नहीं चल रही हैं बल्कि सरहद पर भी इसकी चर्चा हो रही है कि आखिर कमान किसके हाथ में होगी? उधर, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) और खुफिया ब्यूरो (आईबी) में भी अमूनन एक महीना पहले नए प्रमुख के नाम का ऐलान हो जाता था लेकिन अभी तक वहां भी सन्नाटा पसरा हुआ है. अब, जबकि नए नामों का ऐलान अभी तक नहीं हुआ है और मौजूदा सरकार के बारे में माना जाता है कि वह कुछ भी कर सकती है, इसलिए हर जगह खलबली मची हुई है.

कुछेक अपवादों को छोड़कर सेना में अब तक यही होता आया है कि जो वरिष्ठ होता है वह ही सेना प्रमुख बनता है. अपवादों की चर्चा करें तो सन 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा की जगह एएस वैद्य को सेना प्रमुख बनाया था. इसी तरह तीन साल पहले नौसेना में हुए एक के बाद एक हादसों की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए फरवरी, 2014 में जब तत्कालीन नौसेना प्रमुख एडमिरल डीके जोशी ने अपने पद से इस्तीफा
दिया था तो सरकार ने उनके बाद वरिष्ठ रहे वाइस एडमिरल शेखर सिन्हा को नौसेना प्रमुख न बनाकर वाइस एडमिरल रोबिन धवन को प्रमुख बनाया था.

इसका नतीजा यह रहा कि नौसेना के वेस्टर्न कमांड के प्रमुख रहे वाइस एडमिरल शेखर सिन्हा ने इसके विरोध में स्‍वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआरएस) ले ली थी. मौजूदा वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अरूप राहा के बाद अगले वायुसेना प्रमुख के तौर पर सह वायुसेना प्रमुख बीएस धनोवा का नाम करीब-करीब तय है. बस उनका ऐलान बाकी है. हलांकि वायुसेना में भी दो बार वरिष्ठता को दरकिनार कर प्रमुख बनाया गया. सन 1973 में एयर चीफ मार्शल ओपी मेहरा को वायुसेना प्रमुख बनाया गया, हलांकि उनसे ऊपर दो वरिष्ठ अधिकारी थे. ऐसे ही सन 1988 में एयरचीफ मार्शल एसके मेहरा को भी वायुसेना की कमान सौपी गई जबकि उनसे एक वरिष्ठ अधिकारी मौजूद था.

अब अगर थल सेना की बात करें तो यहां मामला उलझ रहा है. आपको बता दें कि मौजूदा सेना प्रमुख जनरल दलबीर सिंह सेना प्रमुख बनेंगे, इसका ऐलान सरकार ने 80 दिन पहले कर दिया था और अब जबकि जनरल दलबीर के रिटायर होने में महज 19 दिन बचे हैं और नया प्रमुख कौन बनेगा, इस बारे में कोई पक्के तौर पर कुछ भी कहने को तैयार नहीं है.

कहा जा रहा है कि थल सेना प्रमुख बनने की दौड़ में तीन नाम चल रहे हैं. सबसे आगे है पूर्वी कमान के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी, उसके बाद दक्षिणी कमान के कमांडर, लेफ्टिनेंट जनरल पीएम हैरिज़ और अंत में हैं सह थलसेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल विपिन रावत. इनमें सबसे वरिष्ठ हैं लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी. लेकिन जिस तरह सेना प्रमुख के नाम का ऐलान होने में देरी हो रही है, उससे अटकलों का बाजार गर्म है.

अगर जानकारों की मानें तो हो सकता है कि सरकार इन तीनों में सबसे जूनियर लेफ्टिनेंट जनरल विपिन रावत को ही सेना प्रमुख बना सकती है. इसमें तर्क यह दिया जा रहा है कि चूंकि लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी आर्म्ड रेजीमेंट के हैं और लेफ्टिनेंट जनरल पीएम हैरिज़ मैकेनाइज्ड रेजीमेंट के हैं जबकि विपिन रावत इंफेंट्री के हैं. और ज्यादातर सेना में इंफेंट्री के अधिकारी ही सेना प्रमुख बनाए जाते रहे हैं. इसलिए हो सकता है कि सरकार इस बार वरिष्ठता को नज़रअंदाज कर इंफेंट्री के अधिकारी को थलसेना प्रमुख बना दें.

अगर सरकार ऐसा करती है तो यह सेना के मनोबल के लिए ठीक नहीं होगा. वैसे भी लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी की गिनती इस वक्त सेना के सबसे काबिल और रैंक में सबसे वरिष्ठ अधिकारी के तौर होती है. इस वक्त वे सेना की पूर्वी कमांड के प्रमुख हैं जिसके जिम्मे अरुणाचल प्रदेश से लेकर कोलकाता तक का इलाका आता है.

इससे पहले भी, चाहे जनरल दलबीर सिंह की बात करें या फिर इनसे पहले जनरल बिक्रम सिंह या फिर जनरल वीके सिंह, पूर्वी कमांड के प्रमुख बनने के बाद ही थल सेना प्रमुख बने थे. अमूनन सेना में ऐसी परंपरा रही है कि अगर सीनियर के बजाए किसी जूनियर को प्रमुख बनाया जाता है तो सीनियर अपने पद से इस्तीफा दे देते हैं.

जानकार मानते हैं कि सेना के भीतर पहले से ही सरकार की कई नीतियों को लेकर असंतोष है लेकिन अनुशासऩ में बंधे होने की वजह से कोई भी कुछ नहीं बोल रहा है. मसलन, अभी तक सेना और सरकार में सातवें वेतन आयोग की सिफारिश को लेकर मतभेद बने हुए हैं.

यह भी कहा जा रहा है कि लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी को प्रमोशन देकर चीफ ऑफ डिफेन्स स्टॉफ या फिर परमानेंट चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी जैसा पद दिया जा सकता है. तो फिर सवाल उठता है कि क्या ये पद चार स्टार (फोर स्टार जनरल) का होगा? तो क्या अब देश में चार-चार ‘फोर स्टार जनरल’ होंगे?  अगर सरकार वाकई में करगिल रिव्यू कमेटी और लंबे समय से चली आ रही मांग के मुताबिक सही मायने में सीडीएस बनाने का फैसला करती है तो सीडीएस का पद 'फाइव स्टार जनरल' के पास होना चाहिए. अमेरिका के अलावा कई देशों में सीडीएस का पद फाइव स्टार जनरल के पास होता है क्योंकि तभी तो वह गलती होने पर किसी भी फोर स्टार जनरल को तलब कर सकता है. अगर सारे फोर स्टार जनरल होंगे तो भला कौन किसकी बात मानेगा.

ये बात किसी से भी छुपी नहीं है कि सेना के तीनों अंगों में ज्वाइंट मैनशिप की काफी कमी है. इसको लेकर कई बार चिंता जताई जा चुकी है. करगिल से लेकर कई ऑपरेशनल जगहों पर मिलजुलकर काम न करने का खामियाजा देश भुगत चुका है. बावजूद अभी तक इस पर कोई ठोस सहमति या फैसला नहीं गया है.

संभावना इस बात की भी जताई जा रही है कि संसद का सत्र खत्म होने के बाद सरकार नए सेना प्रमुख के नाम का ऐलान कर सकती है.

हालांकि यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह नए प्रमुखों के नाम का ऐलान कब करें, लेकिन न्यायपालिका से लेकर संसद तक, हर मसले पर अपनी सर्वोच्चता साबित करने में जुटी सरकार सेना जैसे संवेदनशील विषय में भी ऐसा कोई फैसला न कर दे, जो न केवल उसके गले की फांस बन जाए बल्कि आने वाले समय में भी सत्ता और सैन्य प्रतिष्ठान के बीच टकराव को बढ़ाने का काम करें. इसलिए जरुरी यह है कि देश को सर्वोपरि मानते हुए ही कोई फैसला लिया जाना चाहिए और वह भी समय रहते. 

राजीव रंजन एनडीटीवी में एसोसिएट एडिटर हैं.

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