राजनीति और फिल्म का रिश्ता इतना टिकाऊ क्यों नहीं है?

कई कार्यकर्ता आपको ये शिकायत करते हुए मिल जाएंगे कि अभिनेता अपने स्वभाव को राजनीति के हिसाब से बदलने के लिए तैयार ही नहीं हैं. दूसरा पक्ष अभिनेताओं का भी है. वो राजनीति की जो चमक-दमक ऊपर से देखते हैं उसकी असलियत चुनाव जीतने के बाद उन्हें पता लगती है..

राजनीति और फिल्म का रिश्ता इतना टिकाऊ क्यों नहीं है?

बात पुरानी है.दक्षिण भारत में एक बच्चा ड्रामा कंपनी के साथ घूम रहा था.पिता तो बहुत पहले ही गुजर चुके थे.ड्रामा कंपनी सहारा था.तभी देश में आजादी की लहर उठी और देखते ही देखते ड्रामा कंपनी तक पहुंच गई.ड्रामा कंपनी में काम करने वाला लड़का अब तमिलनाडु के आंदोलन से प्रभावित था.उसे गांधी पसंद थे.ड्रामा कुछ वक्त में फिल्म में तब्दील हो गया और देखते ही देखते दक्षिण ने एक सुपर स्टार एम जी रामचंद्रन को जन्म दे दिया.एमजीआर की राजनीति की जड़ आज के वक्त के फिल्म कलाकारों जैसी नहीं थी. वो आंदोलन के करीबी थे और राजनीति में दखल देना जानते थे.एमजीआर भारत की राजनीति में पहले फिल्मी कलाकार थे. डीएमके आंदोलन ने एमजीआर को और एमजीआर ने डीएमके को जमकर इस्तेमाल किया.हम ये कह सकते हैं कि राजनीति में कलाकारों की लोकप्रियता को भुनाने का पहला सफल प्रयोग तमिलनाडु में हुआ.दुनिया के दूसरे देशों में भी उस दौर में फिल्मी पर्दा बड़ा हो रहा था.राजनेताओं की साख कम हो रही थी और फिल्मी लोग बड़े हो रहे थे.अपने संदेश जनता तक भेजने के लिए नेताओं को अभिनेता सबसे सरल रास्ता लगने लगे और बाद में ये दौर पूरी दुनिया में चल पड़ा.

हिन्दी फिल्मी इंडस्ट्री चकाचौंध भरी तो थी, लेकिन नेतागिरी के सफल प्रयोग से दूर थी.जो बड़े नाम वामपंथ और ड्रामा से जुड़े थे वो फिल्मों में लिख रहे थे.राजनीति को अपनी तरह से प्रभावित कर रहे थे, लेकिन चुनावी राजनीति से दूर थे.हिंदी फिल्मी दुनिया के सुपर स्टार अमिताभ बच्चन पहला सफल और बड़ा प्रयोग रहे.राजनीति में उनके इस्तेमाल की योजना उनके दोस्त राजीव गांधी ने ही बनाई थी. 1984 में अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्मी दुनिया से ब्रेक लेकर इलाहाबाद से चुनाव लड़ा और लोकसभा पहुंच गए.अमिताभ अपने कैरियर में तब तक कई सुपर हिट फिल्म दे चुके थे. राजनीति में ग्लैमर क्या होता है ये उस दौर के चुनाव में अमिताभ बच्चन की एंट्री ने बता दिया था. अमिताभ एमजीआर जैसे राजनीति के लंबे खिलाड़ी नहीं निकले. बोफोर्स कांड की खबरों के बीच उन्होंने राजनीति को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया. फिर कभी वो राजनीति के मैदान में नहीं आए. अमिताभ का राजनीति में आने और जाने ने कई दरारों को उभार दिया. बता दिया कि अगर आंदोलन और राजनीतिक विचारों के बिना चुनाव में आए हैं तो ये सिर्फ फौरी फैसले हैं.ये टिकाऊ राजनीति का आधार नहीं बन सकते.

अमिताभ बच्चन के बाद सुनील दत्त भी कांग्रेस की राजनीति में आए. सत्ताधारी पार्टी में थे तो टिकाऊ राजनीति की.सुनील दत्त को तो हम एमजीआर के बाद हिंदी फिल्म से निकला सफल नेता भी कह सकते हैं. सुपर स्टार राजेश खन्ना भी आए.कहते हैं कि राजनीति में वो लेट आए. जब उनका फिल्मी करियर ढलान पर था तब उन्हें लगा कि राजनीति संभाल लेगी, लेकिन वो भी टिक नहीं पाए. दक्षिण भारत में तो एमजीआर के बाद जयललिता सफल अभिनेत्री बन चुकी थीं. उन्होंने भी राजनीति की राह पकड़ी.सफल नेता रहीं.फिल्मों के बाद राजनीति को ही अपना मैदान बना लिया.

उत्तर भारत के कई दल फिल्म और क्रिकेट के सफल सितारों को भुनाने में लगे रहे. इक्का दुक्का नामों को छोड़ दे तो कोई टिकाऊ राजनीति नहीं कर पाए. बीजेपी में शत्रुघ्न सिन्हा और बाद के दशकों में स्मृति ईरानी दो ऐसे कलाकार हैं जो राजनीति के मैदान से नहीं हटे. इन दोनों हस्तियों को ये क्रेडिट जाता है कि विपक्ष में रहकर विरोध की राजनीति की.ग्लैमर और चमक दमक से निकलकर राजनीतिक संघर्ष करना थोड़ा कठिन काम था.

कांग्रेस, बीजेपी और तमाम छोटे बड़े राजनीतिक दलों को ये समझ आ गया कि ग्लैमर सिर्फ एक तड़का है, जिसका चुनाव में इस्तेमाल भीड़ जुटाने और रैलियों को चमकदार बनाने के लिये किया जा सकता है. इसी सिलसिले में गोविंदा, राज बब्बर, विनोद खन्ना, जयाप्रदा, जया भादुड़ी, और हेमा मालिनी समेत कई फिल्मी लोग राजनीति में आए. कुछ ऐसे थे जिन्होंने चुनाव जीते और फिर कभी राजनीति में नहीं आए. कई ऐसे थे जो टिके रहे.कुछ सवाल भी उठाते रहे, लेकिन किसी ने संघर्ष की राजनीति को अपने मूल पेशे के तौर पर स्वीकार नहीं किया.

बड़ा सवाल है कि ऐसा क्यों है कि जब राजनीतिऔर अभिनेता दोनों एक दूसरे को इस्तेमाल करना चाहते हैं तो रिश्ता इतना टिकाऊ क्यों नहीं है ? राजनेताओं से आप बात करेंगे तो समझ आ जाएगा कि कैसे एक के बाद कई मौके उन्होंने फिल्मी हस्तियों को दिए, लेकिन उन मौकों को कलाकारों ने हल्के में लिया. जिन इलाकों से अभिनेता जीत कर जाते हैं वहां की एक बेहद आम समस्या ये बन चुकी है कि वहां के स्थानीय कार्यकर्ताओं की सुनने वाला कोई नहीं होता. कई कार्यकर्ता आपको ये शिकायत करते हुए मिल जाएंगे कि अभिनेता अपने स्वभाव को राजनीति के हिसाब से बदलने के लिए तैयार ही नहीं हैं. दूसरा पक्ष अभिनेताओं का भी है.वो राजनीति की जो चमक दमक ऊपर से देखते हैं उसकी असलियत चुनाव जीतने के बाद उन्हें पता लगती है. नेताओं से जिस किस्म की अपेक्षाएं जनता को हैं, उसके लिए अभिनेता या सेलिब्रिटी खुद को अनफिट मानने लगते हैं. चुनावी क्षेत्र में वक्त गुजारना, कलाकारी के पेशे को पीछे छोड़ना और जनता की समस्याओं के लिये सामंजस्य बिठाना अभिनेताओं के लिए टेढ़ी खीर हो जाता है.यही वजह है कि अभिनेताओं का राजनीति से बेहद जल्द मोह भंग हो जाता है.


अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं... वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं...

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