उरी में 18 सैनिकों की मौत से देशभर में दुख और नाराज़गी चरम पर है. आम धारणा जायज़ ही माकूल जवाब देने के पक्ष में है, मगर यह माकूल जवाब क्या हो, इस बारे में सरकारी महकमे में भी कोई साफ नज़रिया नहीं दिखता. पहले के आतंकवादी हमलों की तरह इस बार भी कथित तौर पर सरकारी तंत्र में भी पहली प्रतिक्रिया पाकिस्तान से सीधे युद्ध छेडऩे की बताई जा रही है. मीडिया, खासकर टीवी चैनलों में अनेक बयानवीर विशेषज्ञ युद्धोन्माद को हवा देने में अपने विवेक को थोड़ी भी मोहलत देते नहीं दिखते.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी पहले ही सख्त रवैये की इतनी हिमायत कर चुकी है कि उसके लिए वहां से उतरना आसान नहीं जान पड़ता. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और बलूचिस्तान में मानवाधिकार उल्लंघन के मामले उठाकर प्रधानमंत्री इसे और ऊंचाई पर ले गए हैं. शायद इसकी तात्कालिक वजह कश्मीर में हुई भारी गफलतों से बेकाबू हालात पर परदा डालने की कोशिश रही हो, और शायद राष्ट्रवादी अतिरेक को हवा देना उन्हें चुनावी राजनीति के लिए भी माकूल लगता हो. याद करें, 1999 में पहली बार करगिल युद्ध के दौरान ही शहीद सैनिकों के पार्थिव शरीरों को उनके पैतृक स्थानों पर पहुंचाने की प्रक्रिया शुरू की गई थी. इससे उभरे भावनाओं के ज्वार का तब बीजेपी को चुनावों में भारी लाभ मिला था.
कथित तौर पर सेना में भी एक बड़े तबके की राय पूरी जंग छेड़ देने के पक्ष में है. कुछ दुविधा सिर्फ राजनयिक बिरादरी में बताई जा रही है. असल में पाकिस्तान की फौजी तैयारी हमारे मुकाबले कमतर है या नहीं, इससे बड़ा सवाल यह है कि आज दुनिया के हालात जैसे हैं, उसमें हमारे जैसे देशों के लिए युद्ध में जाना कितना मुफीद है...? फिर दोनों तरफ विनाशकारी एटमी हथियारों का होना भी एक मसला है. कुछ कथित सैन्य विशेषज्ञों की राय है कि हमारे पास ज्यादा बड़ी एटमी ताकत है. मगर हुजूर, छोटे एटमी हथियार भी हमारे सीमावर्ती इलाकों के लिए ही सही, काफी संहारक साबित हो सकते हैं.
युद्ध की हालत में चीन, रूस, अमेरिका जैसे ताकतवर देशों का क्या रुख होगा, यह विचारणीय है. सीरिया, इराक के हालात और दुनियाभर में आईएस के आतंक के साये के अलावा वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में फंसी हुई है, उसमें शायद ही यह मुफीद माना जाएगा कि एक और मोर्चा खुल जाए. संभव है, पाकिस्तान इन्हीं हालात का लाभ उठाकर अपनी हरकतों में आगे बढ़ रहा हो. उसे चीन से अपनी बढ़ती दोस्ती का भी गुमान हो सकता है.
यह ऐसा दुश्चक्र है कि सीधी जंग के विकल्प पर ठहरकर विचार करने की जरूरत है. चीन भी शायद युद्ध के विकराल असर को भांपकर ही दक्षिण चीन सागर में अपने दावे पर अड़े रहकर भी नरम रवैया अपनाता दिख रहा है. उत्तर कोरिया की तमाम गैर-जिम्मेदाराना हरकतों को भी दक्षिण कोरिया, अमेरिका और कुछ हद तक चीन भी नजरअंदाज करते दिखते हैं.
एक दलील यह भी दी जाती है कि अमेरिका अगर 9/11 आतंकी हमले के बाद अफगानिस्तान और इराक में सीधे सबक सिखाने पर उतर सकता है, या वह पाकिस्तान में घुसकर ओसामा बिन लादेन को उठा सकता है तो हम क्यों नहीं...! सीधा-सा जवाब है कि हम अमेरिका नहीं है, जिसके आर्थिक तथा रणनीतिक बोझ तले पाकिस्तान दबा रहा है. अफगानिस्तान तथा इराक वगैरह में एटमी हथियार भी नहीं थे. अमेरिका ईरान में कहां उतरा. उसे समझौता ही करना पड़ा.
यही नहीं, अमेरिका में इराक पर हमले को जॉर्ज बुश की भारी भूल माना जा रहा है. उनकी रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के मौजूदा उन्मादी उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप भी बुश को बड़ा दोषी मान रहे हैं. ब्रिटेन में तो इराक युद्ध पर चिल्कट रिपोर्ट के बाद पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर को युद्ध अपराधी तक बताया जा रहा है. उन पर महाभियोग चलाने की तैयारी की बातें भी चल रही हैं. अमेरिका में माना जा रहा है कि अफगानिस्तान और इराक युद्ध में जो खरबों डॉलर खर्च हुए, उसी से वहां सब-प्राइम संकट खड़ा हुआ. 2008 की विश्वव्यापी मंदी में भी उसका बड़ा योगदान माना जा रहा है, जिससे समूची दुनिया आज तक उबर नहीं पाई है. पश्चिमी यूरोप के कई देशों में इस आर्थिक संकट का दंश सबसे ज्यादा दिखा है. ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर जाने की एक बड़ी वजह यही आर्थिक संकट बना है.
इसलिए युद्ध कितना बड़ा संकट लेकर आता है, इसका एहसास युद्ध को अपनी अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने का औजार मानने वाली बड़ी ताकतों को भी शिद्दत से हो रहा है. हमारे देश में युद्धों से आए आर्थिक संकट से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. 1962, 1965 और 1971 के युद्धों से देश में क्या हालात बने थे, आज भी लोगों को याद है. अगर इन बातों को भुला भी दें तो यह सवाल मौजूं है कि युद्धों से क्या हमें इस दुश्चक्र से निकलने में मदद मिली है...?
बांग्लादेश का हवाला वाकई गर्व से दिया जाता है और यह भी कि हमने पाकिस्तान को झुकने पर मजबूर कर दिया. लेकिन उसके बाद पाकिस्तान के छद्म युद्ध से क्या हम आज तक उबर पाए हैं...? पंजाब और कश्मीर में '80 और '90 के दशक में जारी रहे अलगाववाद के दौरान ही उतने लोग मारे जा चुके थे, जितने पिछले चार युद्धों में नहीं मारे गए. कश्मीर फिर उबलने लगा है. आतंकवादी घटनाओं में मारे गए लोगों और उससे हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर की बातें भी गौरतलब हैं. इससे पैदा हुआ सामाजिक विघटन तो तरह-तरह से संकट पैदा कर रहा है.
इसलिए युद्ध से युद्धों का सिलसिला ही बना रहता है, जो हमारी खुशहाली के लिए कतई मुनासिब नहीं है. हमें अपने राष्ट्रीय अहम् पर बेशक कायम रहना चाहिए, लेकिन इस दुश्चक्र को तोड़ने के स्थायी उपायों पर गौर करना चाहिए.
हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Sep 22, 2016
#युद्धकेविरुद्ध : युद्ध से बना ही रहता है युद्धों का सिलसिला...
Harimohan Mishra
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 25, 2016 14:33 pm IST
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Published On सितंबर 22, 2016 09:11 am IST
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Last Updated On सितंबर 25, 2016 14:33 pm IST
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