क्या कोई भी राजनीतिक दल अपने को किसी से कम समझता है? क्या कोई दल कभी यह स्वीकार करता है कि उसे किसी दूसरे दल की सहायता की जरूरत है? हर दल किसी भी प्रदेश में आने वाले चुनाव में भारी बहुमत का ही दावा करता है. लेकिन फिर छिप-छिप कर गठबंधन की चर्चा भी होती रहती है और यह भी संकेत दिए जाते हैं कि समान विचारधारा के दलों को एक दूसरे का साथ देना चाहिए जिससे वोट न कटें.
यह कहानी पिछले कई दशकों से ऐसे ही हर चुनाव के पहले दोहराई जाती है. चुनाव-पूर्व गठबंधन के लिए बहु-प्रचारित और सार्वजनिक तौर पर तर्क दिए जाते हैं, बैठकें होती हैं, जोड़-घटाना होता है और ऐसा बताया जाता है कि बस इस गठबंधन के बाद तो किसी और दल के जीत का कोई चांस ही नहीं है.
उत्तर प्रदेश इस मामले में हमेशा से आगे रहा है. कुछ दशक पहले सभी गैर-कांग्रेसी दल हर चुनाव से पहले गठबंधन की संभावनाएं खोजते थे और अब सभी गैर-भारतीय जनता पार्टी दल इस कोशिश में जुट जाते हैं. पिछले कुछ महीनों से समाजवादी पार्टी इस मुहिम में सबसे आगे चल रही है. चूंकि इस पार्टी में दो गुट उभर चुके हैं, इसलिए यह गतिविधि यहां ज्यादा दिलचस्प है. एक महीने पहले एक गुट ने सीधे स्पष्ट ऐलान किया कि सभी पूर्ववर्ती जनता दल से उत्पन्न हुए दलों को एक मंच पर लाकर राष्ट्रीय स्तर पर एक महागठबंधन बनाया जायेगा.
इसके पीछे पिछले वर्ष बिहार में ऐसी सफल कोशिश का उदाहरण दिया गया और फिर शुरू हुई बयानों और घोषणाओं की वह कड़ी जो अभी तक जारी है. इस कोशिश से जनता दल यूनाइटेड के एक धड़े ने अपने को जोड़ा तो अध्यक्ष नीतीश कुमार ने अलग किया. एक किसी गुट ने राष्ट्रीय लोक दल को मिलाने की कोशिश की तो किसी और गुट ने कहा कि उनकी कोई जरूरत नहीं है. फिर कुछ छोटे दलों को एक साथ लाकर गठबंधन की घोषणा की गई.
बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी को लेकर ऐसा एहसास कराया गया कि वे और उनका दल तो अब समाजवादी पार्टी के साथ प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर साथ-साथ हैं. लखनऊ में उनकी रैली में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता बड़ी संख्या में शामिल हुए लेकिन सपा के दोनों गुटों के मुखिया नदारद रहे.
फिर आया भूचाल कि कांग्रेस के साथ सपा का गठबंधन तय हो रहा है. यह अप्रत्याशित इसलिए था क्योंकि सपा की ओर से लगातार कहा जा रहा था कि पार्टी अपने आप इतनी बड़ी जीत हासिल करेगी कि उसे किसी के साथ की जरूरत नहीं है. लेकिन फिर बयान आये और आते रहे कि वैसे तो सपा बहुमत ला ही रही है, लेकिन अगर कांग्रेस साथ दे तो जीत का आंकड़ा बहुत बड़ा हो सकता है. आज तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि दोनों दलों के बीच चुनावी-पूर्व गठबंधन है या नहीं. दोनों दलों के नेता और प्रवक्ता निजी तौर पर कहते हैं कि किसी प्रकार के गठबंधन की कोई संभावना नहीं है.
कांग्रेस के प्रवक्ता तो यहां तक कहते हैं कि कांग्रेस की ओर से तो किसी नेता ने सपा के साथ गठबंधन की पेशकश की ही नहीं थी, वह तो रणनीतिकार प्रशांत किशोर की अपनी पहल थी कि वे सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और फिर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पास ऐसा प्रस्ताव लेकर गए.
सपा की ओर से शिवपाल यादव स्वयं कह चुके हैं कि उन्हें कांग्रेस के साथ किसी भी तरह के गठबंधन की कोई जानकारी नहीं है. इस मुद्दे पर अलग राय होने की आशंका को पुख्ता करते हुए अखिलेश यादव ने एक कार्यक्रम में कहा कि गठबंधन होने की दशा में मुख्यमंत्री कौन होगा इस बात पर उनकी अपनी ही पार्टी में एक राय नहीं है. सपा में आज कल पहले वितरित किये गए टिकटों को बदलने का दौर जारी है और चुनाव प्रचार के दौरान एक गुट के लोगों द्वारा दूसरे गुट के प्रत्याशी को नुकसान पहुचाने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता.
इसके विपरीत, बहुजन समाज पार्टी लगातार कह रही है कि उसे किसी पार्टी से किसी तरह के गठबंधन की जरूरत नहीं है. बसपा के सपा या भाजपा के साथ गठबंधन होने की संभावना तो न के बराबर है, लेकिन लखनऊ से ज्यादा दिल्ली स्थित सूत्र ऐसा कहते हैं कि बसपा और कांग्रेस के बीच किसी तरह की सांठ-गांठ अभी भी संभव है.
रही बात भारतीय जनता पार्टी की तो अपना दल के अलावा किसी और महत्वपूर्ण दल के साथ किसी प्रकार की साझेदारी की खबरें नहीं हैं. पार्टी अपने दम पर भारी बहुमत के दावे को लगातार दोहराती आ रही है.
गठबंधन संबंधित जो भी सुगबुगाहट है उसमें समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में एक का नाम जरूर आ रहा है. सपा में चूंकि टिकट वितरण और प्रत्याशी चयन को लेकर असंतोष की खबरें आ रही है, इसलिए ऐसी आशंका जाहिर की जाती है कि कुछ सीटें किसी न किसी मित्र दल के लिए छोड़ी जा सकती हैं. और चूंकि कांग्रेस अपनी सभी कोशिशों के बावजूद अभी तक अपने प्रयास में गंभीरता नहीं ला पाई है, इसलिए वहां किसी भी पार्टी के साथ कोई भी व्यवस्था फायदेमंद ही मानी जाती है.
लेकिन अंत में चूंकि कोई भी पार्टी अपने को किसी से कम नहीं दिखाना चाहती, इसलिए कोई खुलकर साझेदारी की बात करना नहीं चाहता, क्योंकि ऐसा करना अपनी कमजोरी को स्वीकार करना माना जाता है. तो 2017 के आगामी यूपी विधानसभा चुनाव में मित्रवत-मुकाबले (जिसे नूरा-कुश्ती भी कह सकते हैं) और आपसी झगड़े भी खूब दिखेंगे, इसके लिए तैयार रहिए.
रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...
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This Article is From Dec 17, 2016
उत्तर प्रदेश में गठबंधन की लुका-छिपी का खेल
Ratan Mani Lal
- ब्लॉग,
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Updated:दिसंबर 17, 2016 17:46 pm IST
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Published On दिसंबर 17, 2016 17:42 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 17, 2016 17:46 pm IST
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