'सर, मेरा घर देख लीजिए, मेरा तो सब बर्बाद हो गया. पिछड़ा जाति होने से मुझे तो साइक्लोन सेन्टर में जगह नहीं मिली. आप इनके घर नहीं दिखाएंगे तो लोग नाराज हो जाएंगे. आप आएं तो दिखा दीजिए, यह देखिए इनका कमर टूट गया है. मेरे पास कुछ नहीं है. आप मदद करेंगे तो जी पाऊंगी, नहीं तो मर जाऊंगी.' लोगों की यह सब आवाजें अभी भी मेरे कानों में गूंज रही हैं. 15 जून को पुरी के अलग-अलग गांव में जब मैं घूम रहा था, तब मैंने यह नहीं सोचा था कि लोग साइक्लोन फोनी के 45 दिनों के बाद भी संघर्ष कर रहे होंगे. भुवनेश्वर से करीब 120 किलोमीटर दूर मेरी गाड़ी जब कृष्ण-प्रसाद ब्लॉक के लिए निकली, तब मेरे मन में कई सवाल थे. मेरी गाड़ी जब धीरे-धीरे आगे बढ़ती गई, सभी सवालों ks जवाब मिलते गए. रास्ते के चारों तरफ बिखरे हुए पेड़ और टूटे हुए मकान देखकर मैं समझ गया साइक्लोन फोनी कितना खतरनाक था.
सबसे पहले हम कृष्ण-प्रसाद ब्लॉक के बलभद्रपुर गांव पहुंचे, हमारी गाड़ी देखते ही लोग सब जमा हो गए. लोगों को लगा सरकार के तरफ से शायद कोई मदद करने के लिए आया है लेकिन उनका भ्रम धीरे-धीरे दूर हो गया. मेरे किट बैग जिस पर एनडीटीवी लिखा हुआ था उसे देखते ही लोगों ने समझ लिया मैं मीडिया से हूं. एक युवा मुझे वहां ले गया जहां अनुसूचित जाति के लोग रहते हैं. जाने के रास्ते में मुझसे पूछा कि आप एनडीटीवी से हैं? मैंने हां में जवाब दिया. रास्ते में उसने कहा कि क्या मैं सच में उनकी समस्या को दिखाऊंगा, मैंने कहा कि कोशिश करूंगा. उसका कहना था वहां कुछ दिन पहले नेशनल मीडिया वाले आये थे, लेकिन अफसर से बात करके चले गए. लोगों की समस्या नहीं दिखाए. उसकी बातों से मुझे पता चल गया कि मीडिया को लेकर लोगों में गुस्सा है. यह गुस्सा जायज भी है. फोनी साइक्लोन के बाद इनकी समस्या को लेकर जो रिपोर्टिंग होनी चाहिए थी, वो नहीं हुई. ज्यादातर पत्रकार साइक्लोन की हवा कमजोर होते ही वहां से निकल पड़े. उन पत्रकारों ने साइक्लोन के प्रभाव का लोगों की मौत से मापतौल करते रह गए. अगर ज्यादा मौत नहीं हुई तो साइक्लोन का प्रभाव नहीं है. अगर पत्रकारों की यही सोच है तो फिर पत्रकारिता खत्म है. 45 दिनों बाद साइक्लोन का असर वैसा ही है जैसा पहले दिन रहा होगा.
चलिए असली मुद्दे पर आते हैं, युवा प्रवेश कुमार ने मुझे अनुसूचित जाति की बस्ती में पहुंचा दिया. इस बस्ती में अनुसूचित जाति के लोग एक कोने में धकेल दिए गए हैं. दूसरे राज्यों के बारे में तो मुझे पता नहीं लेकिन ओडिशा के ज्यादातर गांव में अनुसूचित जाति के लोग गांव के आखिरी में रहते हैं या फिर किसी कोने में. मेरे गांव का भी यही हाल है. इन अनुसूचित जाति के टूटे हुए घर को देखकर मैं चौंक गया. घर की छत उड़ गई है. घर के अंदर कोई सामान नहीं है. दीवार टूटी हुई है. रीता मालिक मुझे उसका घर दिखाने ले गई. जैसे घर के अंदर घुसा तो देखा सामान के नाम पर भगवान की कुछ मूर्तियां और कुछ कपड़े रखे हुए हैं. रीता मालिक ने बताया कि रात को घर में नहीं, बाहर सोती हैं. अभी भी उसे डर है कहीं टूटी हुई दीवार ऊपर गिर न जाये.
बलभद्रपुर में मेरी मुलाकात कावेरी मलिक से हुई. उम्र करीब 30 साल के आसपास रही होगी. कावेरी अपना छोटे से बच्चे को गोद में लेकर मिट्टी के चूल्हे पर खाना बना रही थीं. कावेरी मालिक ने बताया कि साइक्लोन सेंटर में उन्हें रहने की जगह नहीं दी गई. तबाही में भी कुछ लोगों को याद रहा कि वे स्वर्ण हैं और वे यह अहसास कराना नहीं भूले कि कुछ लोग अनुसूचित जाति के हैं. कावेरी अपना छोटा बच्चा लेकर एक जगह से दूसरी जगह भागती रहीं. तीन दिनों तक खाना नहीं मिला. आखिर एक स्कूल में ठिकाना मिला.
कावेरी ने बताया, 'जब साइक्लोन शुरू हुआ तो हम लोग साइक्लोन सेंटर गए. सेंटर में बहुत लोग थे लेकिन फिर भी कुछ जगह बची हुई थी. हमें जगह नहीं दी गई. हमें कहा गया कि हम अनुसूचित जाति के लोग हैं. फिर हम स्कूल चले गए. स्कूल में हम ढाई दिनों तक भूखे रहे. वहां न लाइट थी, न खाना था. वहां कुछ नहीं था. मेरा छोटा बच्चा था, उसे बुखार हुआ लेकिन वहां कोई दवाई नहीं थी. आशा वाला नंबर देकर गए थे लेकिन फोन नहीं उठाये. अभी भी यहां छुआछूत का भाव बहुत ज्यादा है. दुकान जाते हैं तो नहीं छूते हैं, स्कूल में बच्चे जाते हैं, उन्हें अलग बैठाया जाता है. खाना खाने जाते हैं तो अलग से बैठाते हैं. पुरुष लोग भी हम लोगों को नहीं छूते हैं. हम लोग गांव के कोने में रहते हैं, हम लोगों को कोई नहीं छूता. हमारे पास भी कोई नहीं आता है'
कावेरी की यह बात सुनकर मैं सन्न रहा गया. मुझे याद है जैसे ही मैं वहां से निकल रहा था तब कावेरी कह रही थी जातिप्रथा खत्म होनी चाहिए. यह भी बोली कि क्या उसका खून काला है और दूसरे का लाल. कावेरी की बात सुनकर मेरे मन में एक सवाल भी आया कि भगवान जगन्नाथ के इलाका पुरी में यह जातिप्रथा इतनी ज्यादा क्यों है? जब भगवान जगन्नाथ खुद सभी जाति और सभी धर्म के भगवान है, सब उनका दर्शन करते हैं, रथयात्रा के दौरान सब उनके रथ को छूते हैं तो फिर ऊंची जाति के लोग जिस जगन्नाथ को अपना भगवान मानते हैं. उस भगवान से कुछ सीख क्यों नहीं पाए. साइक्लोन फोनी ने यहां के लोगों के रोजगार भी छीन लिए हैं. बांस से सामान बनाकर यह लोग बेच रहे थे लेकिन कई लोगों के पास बांस खरीदने के लिए पैसा नहीं है. कमाई आधा हो गई है.
बलभद्रपुर गांव के बाद हमारी गाड़ी दूसरे गावों की तरफ चल पड़ी. हम भोईसाई गांव पहुंचते हैं. इस गांव की स्थिति और भयावह है. जैसे ही पता चला हम न्यूज़ चैनल से आए हैं, सब अपना-अपना घर दिखाने के लिए बेचैन हो गए. यहां ज्यादातर लोगों के घरों की छत उड़ी हुई थी. शांति पाहण अपना घर दिखाने के लिए ले गई. शांति पाहण की छत पूरी तरह उड़ गई है. शांति पाहन ने एक बांस का अस्थाई घर तो बना लिया है, लेकिन घर में बिजली नहीं है. ढिबरी में शांति पाहण काम चलाती हैं. थोड़ी दूरी पर बसंत पाहण का घर है. बसंत पाहण के पति नहीं हैं. साइक्लोन के कारण दीवार टूट कर सर पर आ गिरी, अभी भी सिर पर बैंडेज लगा हुआ है. 45 दिनों बाद भी बसंत अपने घर का सामान नहीं सहेज सकी हैं. उनकी मदद के लिए कोई नहीं है. एक बेटा है जो बहुत छोटा है. बसंत को राहत के नाम पर एक हजार और कुछ चावल मिला, लेकिन तो कबका खत्म हो गया. बसंत ने कहा अगर उसे मदद नहीं मिलेगी तो वो मर जाएगी, सर टूटने के वजह से वो खुद काम करने नहीं जा पाती है. कई ऐसे लोग मिले जो साइक्लोन के शिकार हुए हैं. किसी की कमर टूट गई तो किसी का पैर टूट गया. इन्हें मेडिकल मदद की जरूरत है.
भोईसाहि के लोग मुझे उस जगह ले गए जहां एक साथ खाना बनता है. यहां एक छोटी सी कुटिया बनी हुई है. दिन में गांव के बच्चे यही पढ़ते हैं क्योंकि साइक्लोन से स्कूल टूटा गया है. इस कुटिया के पास खाना बनता है. खाना के नाम पर चावल, जिसे ओड़िया में भात कहा जाता और दालमा. दालमा का मतलब दाल में सब्जी डाल दी जाती है. अलग से सब्जी नहीं बनानी पड़ती. इस गांव में सभी लोग खाना खाने के लिए इकट्ठा होते हैं. अलग से किसी के घर में खाना नहीं बनता. यहां के लोगों ने मुझे बताया कि गांव के लोग सिर्फ एक बार खाना खाते हैं वो भी तीन बजे के करीब क्यों कि थोड़ा देर खाना खाएंगे तो रात को भूख नहीं लगेगी. अगर भूख लगती भी है तो बिस्कुट और चूड़ा खा लेते हैं. अगर आप सोच रहे हैं कि खाना सरकार खिला रही है तो आप गलत सोच रहे हैं. खाना सरकार नहीं बल्कि मुंबई के यू मुम्बा कबड्डी टीम खिला रही है. रोनी स्क्रूवाला की यह टीम है जो रोज यहां के 1200 लोगों को खाना खिलाती है. हमें नहीं पता था कि ऐसी कोई टीम चुपचाप काम कर रही है. देश ने क्रिकेट को कितना दिया, कबड्डी को कितना कम मिला. मगर जितना मिला कबड्डी अपने हिस्से से इन लोगों के लिए कुछ कर रही है. यह देख कर किसे अच्छा नहीं लगेगा. मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा.
इस साइक्लोन की वजह से बंजारा समुदाय को भी भारी नुकसान झेलना पड़ा. भोईसाहि गांव के कोने में दो बंजारा परिवार रहते हैं. इनके पास न तो जमीन है, न घर, जहां जगह मिल जाती है वहीं तंबू लगाकर रुक जाते हैं. इनके पास न पहचान पत्र हैं, न प्रमाण पत्र. इसीलिए इन्हें राहत सामग्री भी नहीं मिलती. राजलक्ष्मी दास ने मुझे बताया कि वो पिछले 20 सालों से अपने बच्चों को लेकर एक जगह से दूसरे जगह घूम रही हैं. राजलक्ष्मी के पास न जमीन है ना घर. साइक्लोन के दौरान जब गांव के लोगों ने सहारा देने से मना कर दिया तो राजलक्ष्मी ने स्कूल में छिपकर अपने बच्चों की जान बचाई थी. राजलक्ष्मी ने बताया कि साइक्लोन के दौरान खाने के लिए कुछ नहीं था. तीन दिनों तक अपने बच्चों की भूख बिस्कुट और चॉकलेट से दूर की. साइक्लोन के दौरान दुकान टूट गई थी, रास्ते में बिस्कुट और चॉकलेट गिरा हुआ था. राजलक्ष्मी यह सब जमा कर रही थी और अपने बच्चों को दे रही थी. तो आप समझ सकते कि साइक्लोन के दौरान इन लोगों की हालत क्या थी? साइक्लोन तो जाति नहीं देखता है, धर्म नहीं देखता है, सब को बर्बाद कर देता है. सब का नुकसान करता तो फिर इन लोगों को राहत सामग्री क्यों नहीं?
भोईसाहि के बाद हम अरकूदा गांव के लिए निकल पड़े. चिलका झील यहां के लाखोँ मछुआरों के लिए रोजी रोटी का जरिया है. साइक्लोन के बाद इनका सब कुछ छीन गया. अरकुद गांव के 1200 मछुआरे परिवार संघर्ष कर रहे हैं. साइक्लोन में इन सभी की नावें टूट गई हैं. नाव नहीं है तो अब काम भी नहीं है. सरकार ने कहा है कि नाव बनाने के लिए पैसे देगी, लेकिन अबतक कुछ नहीं मिला है. इन मछुआरों ने बताया कि एक नाव बनाने में 40 से 50 हजार खर्च हो जाते हैं. नाव बनाने में दो महीने से ज्यादा समय लग जाता है. ऐसे में इन्हें कब पैसा मिलेगा कब अपनी नाव ठीक करेंगे यह चिंता की बात है. सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पटनायक ने बताया अरकूदा गांव के लोग पूरी तरह चिल्का के ऊपर निर्भर करते हैं. पटनायक का कहना है कि सरकार ने लाइसेंसी नावों को पैसा देने के लिए किया है, लेकिन जिन मछुआरों के पास लाइसेंस नहीं है उनका क्या होगा. पटनायक ने भी बताया कई संस्था यहां राहत देने के लिए आती हैं, लेकिन इतने सारे लोगों को देखकर भाग जाते हैं.
इन सब गांव में अगर मैं नहीं जाता तो लोगों की समस्या के बारे मुझे पता नहीं चल पाता. मैं सिर्फ कुछ गांव गया हूं लेकिन इस ब्लॉक के लगभग हर गांव की कहानी यही है. हर गांव में कोई न कोई नई समस्या है, कोई नई कहानी है. मुझे पता चला कि कई गांवों में पीने की पानी का बहुत समस्या है. लोग गंदा पानी पी रहे हैं. उस गांव तक जाने के लिए मेरे पास समय नहीं था. अंधेरा हो गया था. इन गांवों में कहीं लाइट नहीं थी. एसी वाले स्टूडियो में बैठकर हिन्दू मुस्लिम के टॉपिक पर बहस करने वाले एंकरों को भी लोगों की इन समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए. अगर मीडिया लोगों की समस्या दिखाने में फेल है तो फिर पत्रकारिता खत्म है. मीडिया का मतलब टीआरपी नहीं है. अगर टीआरपी ही देखना है तो फिर आप स्टूडियो में दस लोगों को बैठाकर डिबेट करते रहिए लेकिन याद रखिये एक समय ऐसा आएगा, जब आप के पास सब कुछ होगा लेकिन वो पत्रकारिता नहीं होगी जिसकी दुहाई देकर आप आगे बढ़ रहे हैं.
सुशील मोहपात्रा NDTV इंडिया में Chief Programme Coordinator & Head-Guest Relations हैं
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