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This Article is From Nov 30, 2015

सुधीर जैन : देश को भोजन-पानी के फौरी इंतज़ाम करने की ज़रूरत

Written by Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 23, 2015 14:25 pm IST
    • Published On नवंबर 30, 2015 11:13 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 23, 2015 14:25 pm IST
इस साल देश में लगातार दूसरे साल बारिश कम हुई है। कई इलाके सूखे की चपेट में हैं - मसलन बुंदेलखंड। उत्तर प्रदेश ने तो अपने आधे से ज्यादा जिले सूखाग्रस्त घोषित कर दिए। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भी बुरी हालत है। चाहे कम बारिश हो या बेमौके बारिश, मौसम ने खेती-बाड़ी करने वालों पर कहर बरपा दिया है, लेकिन यह पता नहीं है कि देश में इन भयावह हालात पर सरकार चिंतित क्यों नहीं दिखी। यह मानने के सारे कारण हमारे सामने हैं कि देश को भोजन-पानी के फौरी इंतज़ाम करने की ज़रूरत पड़ने वाली है।

अगर पीछे मुड़कर देखें
मानव की ज़रूरतों की सूची में सबसे उपर भोजन-पानी ही लिखा रहता है। चार साल पहले पुरानी सरकार, यानी यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा को अपना लक्ष्य बनाया था। तब हम समझ नहीं पाए थे या हमें ढंग से समझाया नहीं गया था कि यह काम कितना ज़रूरी है। उस समय इस बारे में कानून बनाने की बहस राजनीतिक नफा-नुकसान के चक्कर में बहुत देर तक उलझाकर रखी गई थी। आज पता चल रहा है कि खाद्य सुरक्षा का मसला कितना बड़ा था और देश के योजनाकारों ने इसे अपनी प्राथमिकता सूची में इतना ऊपर क्यों रखा था।

आज़ादी के बाद के शुरुआती 25 साल देश की लोकतांत्रिक सरकारों ने भोजन-पानी सुनिश्चित करने पर ही लगाए थे। आज जैसे अंदेशे हैं, उनमें हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के उस पुराने दौर के योजनाकारों के बनाए नक्शे ढूंढकर गौर से देखने की ज़रूरत पड़ सकती है। खासतौर पर खेतों के लिए पानी का बड़ा संकट हमारे सामने आ रहा है। एक साल की कुदरती गड़बड़ी झेलने की क्षमता भी हम खोते जा रहे हैं। अभी दो साल पहले तक राजनीतिक विपक्ष और मीडिया गांव औैर किसान से जुड़ी सनसनीखेज़ खबरों को दिखा-पढ़ाकर सरकार के कान उमेठता रहता था, लेकिन आज की वास्तविक और पहले से कहीं ज़्यादा खौफनाक हालत की तस्वीर अखबार या टीवी पर दिखाई नहीं देती। लगता है, विकास के नए-नए रंग-बिरंगे सपनों में जीवन की सबसे पहली ज़रूरत पानी और अनाज के इंतज़ाम के काम से हमारा ध्यान अचानक हट गया है।

हालात की भयावह तस्वीर
पूरा देश किस संकट के मुहाने पर है, इसका सबूत कोई दो करोड़ की आबादी वाला बुंदेलखंड है, जहां गेहूं की फसल की बुआई के समय खेतों में धूल उड़ रही है। वहां किसान जीवन में पहली बार रात को 12 बजे ओस की नमी में बीज को जमाने की कोशिश कर रहा है। यह सनसनीखेज़ बात बुंदेलखंड के किसानों के लिए मनो-स्नायुविकृति की हद तक चिंतित किसान नेता शिवनारायण परिहार ने बताई। उन्होने बताया कि ज़्यादातर किसान मुआवजे के थोड़े-थोड़े पैसों के लिए पूरे-पूरे दिन बैंकों और तहसील के चक्कर काट रहे हैं। लगातार आठ-आठ साल कम बारिश से या लगभग सूखे से जूझने में अभ्यस्त बुंदेलखंड के किसानों ने ऐसी मुफलिसी और बेबसी पहली बार देखी है। यह अचानक क्या हुआ...?

बढ़ती क्रूरता के दौर में कोई आशावादी यह भी कह सकता है कि मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के 13 जिलों का यह भूखंड पूरा भारत नहीं है। उसे बताया जा सकता है कि अब तक विशेष पैकेज से सहारे खड़ा रहा बुंदेलखंड सिर्फ एक बानगी है, और 95 सेंटीमीटर औसत वर्षा वाले इस इलाके में पानी का संकट अभी एक-दो दशकों में ही ज़्यादा बढ़ा था। यह संकट कितना आसमानी है और कितना सुल्तानी, इसे योजना-परियोजना बनाने वाले नए लोग ज़्यादा अच्छी तरह बता पाएंगे। वे यह भी बता पाएंगे कि देश में हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही आबादी के लिहाज़ से जल प्रबंधन के काम की रफ्तार क्या होनी चााहिए। यह बात बुंदेलखंड के लिए ही नहीं, पूरे देश के लिए है, जहां इस साल औसत से 14 फीसदी कम बारिश ने अगले चार-पांच महीने बाद ही खतरे की घंटी बजने की चेतावनी दे दी है। यह चेतावनी कम बारिश और बेमौसम ओले और बारिश के मारे देश के सभी भूभागों के लिए है, वे चाहे पंजाब या हरियाणा हों, या उत्तर भारत के दूसरे अनाज-उत्पादक राज्य।

याद आएगा योजना आयोग
देश में ऐसे इंतज़ामों पर सोच-विचार और पैसे के इंतज़ाम के लिए पहले योजना आयोग हुआ करता था। भले ही वह राज्य सरकारों से गाली खाता रहता था, लेकिन तब भी केंद्र सरकार एक बड़ी ज़िम्मेदारी निभाती थी, लेकिन अब योजना आयोग खत्म कर दिया गया। अब उसकी जगह नीति आयोग बना दिया गया है, जिसका ढांचा इतनी बारीक चतुराई से बनाया गया है कि उसकी गवर्निंग कांउसिल सीधे राज्य सरकारें संभालेंगी। ज़ाहिर है, ऐसे क्षेत्रों की योजना-परियोजनाओं की ज़िम्मेदारी से भी नई केंद्र सरकार ने खुद को लगभग मुक्त कर लिया है, और न जाने किस चक्कर में बेचारी राज्य सरकारों ने यह ज़िम्मेदारी अपने उपर ओढ़ ली है। बाकी हकीकत बाद में पता चलेगी, क्योंकि बदली हुई व्यवस्था नई-नई है।

दूसरे देशों से अनाज खरीदने का मुगालता
खैर, मौजूदा सवाल भोजन के लिए पर्याप्त अनाज के प्रबंध का है। इसका जवाब राजनीतिक अर्थशास्त्र के विश्वप्रसिद्ध विद्वान प्रोफेसर अश्वनी शर्मा दे सकते हैं। वह बताते हैं कि आज अगर पूरी दुनिया का अनाज इकट्ठा करके एक ढेर बनाया जाए और दुनिया के सभी 739 करोड़ मानवों को खिलाया जाए तो 90 करोड़ लोग आज भी भूखे रह जाएंगे। यह स्थिति तब है, जब सिर्फ हम ही नहीं, विश्व के विकसित देश तक कई-कई दशकों से एड़ी से चोटी का दम लगाकर अपनी अपनी कृषि को पनपाने में लगे हैं। यानी हम पृथ्वीवासी अभी पर्याप्त भोजन को लेकर ही निश्चिंत या आश्वस्त नहीं हैं। लिहाजा यह सोचकर चलना बड़ी गलतफहमी होगी कि अनाज की कमी पड़ी तो विदेश से मंगा लेंगे। बात सिर्फ अनाज तक ही नहीं है। तिलहन और दालों की भारी कमी से आज हम ही नहीं, दूसरे देश भी जूझ रहे हैं। इसका अंदाजा हमें इसी साल दालों के अंतरराष्टीय दाम देखकर लग जाना चाहिए।

तब किसानों का क्या होगा
हो सकता है कि अनाज की कमी की भरपाई के लिए चतुरबुद्धि व्यापार कौशल से और विदेशी निवेश के पैसे के सहारे से विदेशी खाद्यान्न खरीदकर हम अपना गुज़ारा कर भी लें। उस सूरत में क्या हमें अपने कृषि-प्रधान देश के उन नागरिकों को नहीं देखना पड़ेगा, जो भोजन के मूल उत्पादक हैं, जिन्हें हम किसान कहते हैं। लोकतांत्रिक देश में उतने सारे किसान, जो आधी से ज़्यादा आबादी हैं। राजनीतिक भाषा में जिन्हें हम देश का पर्याय कह सकते हैं।

वे किसान ही हैं, जिनके पास अपने परिवारों में बढ़ती जनसंख्या के कारण जमीन विभाजित होकर कई-कई गुना घटती जा रही है। उनके सिंचाई के साधन घट रहे हैं, यहां तक कि भूजल भी साल दर साल घट रहा है। उनके लिए बिजली और खाद के इंतज़ाम करने की बातें जैसे गायब हो रही हैं। निष्कर्ष यह कि रुपहले विकास की बातों में ऐसा सचमुच का देश, यानी किसान गायब हो चला है।

लौटना पड़ सकता है पुराने दिनों में
पिछले तीन साल तक के आंकड़ों के हिसाब से खाद्यान्न के संकट का अंदेशा यकीन करने लायक नहीं लगता। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले सरकारी खरीद वाले अनाज को सुरक्षित रखने का इंतज़ाम न हो पाने को चुनावी प्रचार में लाया गया था। अनाज के सरकारी गोदाम पूरे भरे होने की ख़बरों की भरमार रहती थी। यह अनाज के पर्याप्त उत्पादन का संदेश देने का पुख्ता सबूत था, लेकिन इससे यह मान लेना सही नहीं था कि अब इस मामले में कुछ खास करने की ज़रूरत नहीं। यह मानना इसलिए गलत था, क्योंकि पिछले दशक में योजनाकारों ने गांव और किसान को अपने सोच-विचार के केद्र में लाकर नीतियां बनाई थीं। किसानों को खाद, पानी और कर्ज़ की सुविधाओं के सहारे ही खाद्य सुरक्षा का लक्ष्य बड़ी मुश्किल से सधा था, लेकिन यह एकमुश्त कोशिश से निपटने वाला काम नहीं था। इसे निरंतर सजग रहकर ही साधे रखा जा सकता था, लेकिन दो साल से खाद्य सुरक्षा के मामले में यह सावधानी हटी नज़र आ रही है।

सनद रहे और वक्त पर काम आवे कि आने वाले दिनों में अगर भोजन और पानी के मामले में कोई हादसा हुआ तो यह न कहा जा पाएगा कि यह आफत आसमानी है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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