बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं था, लेकिन आज मन किया कि क्यों न मदर्स डे पर कुछ लिखा जाए...। कुछ ऐसा जिसका भले ही कोई अर्थ न हो, लेकिन जो मेरी मां को मेरे प्यार का अहसास दिलाने को लेकर गंभीर जरूर हो..। मां अपने आप में कितना खूबसूरत शब्द है न... इसमें कितनी ही चीजें समाई हैं। बच्चे के पैदा होने से लेकर उसके अंतिम पलों तक एक यही शब्द है जो उसके साथ रहता है और वो है 'मां'!
मैं और मां, उस सिक्के के दो पहलू हैं जो भले ही एक-दूसरे को पीठ दिखाकर खड़े हैं, लेकिन एक-दूसरे के बिना दोनों का कोई अस्तित्व नहीं है। मां और मेरा रिश्ता हमेशा से काफी अलग रहा। मैं और मां रिश्ते में मां-बेटी कम, सहेलियां ज्यादा हैं। अपने जीवन के 30 बरस मैंने अपनी मां के साथ बिताए। जी हां, आप सही समझे, मेरी शादी ज़रा देरी से हुई। शादी से पहले कभी-कभी जब मां से लड़ाई-झगड़ा हो जाता था, तो वे अकसर कहतीं, 'शादी के बाद पता लगेगा मां की क्या अहमियत होती है।' लेकिन मां नहीं जानती थीं कि उस समय भी दिल में उनकी जगह और अहमियत सबसे अलग थी। अपने जीवन के 30 साल के इस सफर में एक समय ऐसा भी आया जब मेरे पापा हमारा साथ छोड़कर चले गए। उस समय पापा को तलाशती मां की ललचाई आंखें आज भी जहन से निकली नहीं हैं। खैर.... आज बात सिर्फ मां की।
मैं और मां ऐसी सहेलियां हैं जो किसी भी मुद्दे पर बिंदास बहस कर सकती हैं। फिर चाहे यह मामले महिलाओं के सामाजिक परिवेश से जुड़े हों या फिर तेजी से बदल रही हमारी ‘सो कोल्ड’ सोच के। मुझे याद है ‘निर्भया केस’ के समय एक बार मैंने यूं ही मां से कह दिया था- 'निर्भया को इतनी रात को घर से नहीं निकलना चाहिए था।' इस पर मां अचानक ही मेरी बात को काटकर बोल पड़ी थीं, 'इन दौड़ती-भगाती सड़कों पर चलने का अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही क्यों हो, सिर्फ इसलिए क्योंकि महिलाएं अपनी बातों, अपनी भाव-भंगिमाओं से पुरुषों का बलात्कार नहीं करतीं, उन्हें तरेरी आंखों से नहीं ताड़तीं। क्यों आसमान में उड़ने का अधिकार सिर्फ पुरुषों का है महिलाओं का नहीं? सच कहूं तो शब्द नहीं थे बहस करने के लिए मेरे पास, इसलिए चुपचाप काफी देर तक सिर्फ उन्हें देखती रही। समझ नहीं पर रही थी कि क्या कहकर बहस करूं उनसे।
मां ने हर मोड़ पर मेरा साथ दिया। एक समय जब करियर के एक पड़ाव पर सब ओर से हताशा हाथ लग रही थी, जॉब हाथ में था नहीं... ले देकर जो लेख लिखने का मौका मिलता था वो भी कुछ कारणों से हाथ से जाता जा रहा था, जितनी हताश और निराशा मैं उस समय हुई थी... आज तक नहीं हुई हूं। मेरे चेहरे पर दिख रही मेरी चिंता मां को समझने में ज्यादा देर नहीं लगी। मां ने पूछ ही लिया क्या हुआ है? मानो मैं इंतजार कर रही थी कि कब मां मुझसे पूछे और मैं अपने मन का सारा गुबार उनसे निकाल दूं...! याद है मुझे तब मां ने कहा था... जब सब जगह से निराशा हाथ लगती है तो इसका अर्थ यह नहीं कि सब कुछ खत्म हो गया है, बल्कि यह शुरुआत है नए दम और जोश के साथ उठ खड़े होकर आगे बढ़ने की... नई उमंग के साथ अपने लक्ष्य को पाने की.... तब से आज तक पीछे मुड़कर नहीं देखा है... समय के साथ वह दर्द कहां चला गया पता ही नहीं चला।
आज मैं अपनी मां के करीब नहीं हूं, लेकिन मेरी शादी को 2 माह पूरे होने के बावजूद मेरा और मां का रिश्ता बदला नहीं है। आज भी मां से घंटों बातें होती हैं, या यूं कहूं कि मेट्रो का सफर मां से बात करते हुए कब गुजर जाता है पता ही नहीं लगता। याद है मुझे पापा के चले जाने के बाद एक समय ऐसा भी आया जब मैं, भाई और मां एक-दूसरे से क्या बात करें यह समझ ही नहीं पाते थे। तब मां ने ही घर की इमारत का मजबूत स्तंभ बनकर हमें संभाला था।
वैसे मैं मदर्स डे के दिन ही मां को धन्यवाद देने का दिन नहीं मानती, मैं हर रोज़ अपनी मां को अपनी उस परवरिश के लिए धन्यवाद जरूर देती हूं, जो उन्होंने मुझे दी। तो आप भी पीछे न रहें, आज के दिन अपनी ‘सुपर मॉम’ को एक बार जोर से गले लगाकर थैंक्स जरूर कहें।
शिखा शर्मा एनडीटीवी में कार्यरत हैं।
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