कश्मीर पर चुप रहिए, अयोध्या पर चुप रहिए, जेएनयू की निंदा कीजिए

यह अमन-चैन किस बात की सूचना है? क्या इस बात की कि सरकार में और उसके इंसाफ़ में आम लोगों का भरोसा बढ़ गया है? या इस बात का कि ज़्यादातर नागरिक बहुसंख्यकवाद के आक्रामक रवैये से आतंकित हैं और वे फिलहाल ऐसी नाइंसाफ़ियां चुपचाप सहने को विवश हैं?

कश्मीर पर चुप रहिए, अयोध्या पर चुप रहिए, जेएनयू की निंदा कीजिए

पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश की कविता 'सबसे ख़तरनाक होता है' अब इतनी बार पढ़ी और दुहराई जा चुकी है कि यह अंदेशा होता है कि वह कहीं अपना अर्थ न खो बैठी हो. लेकिन हर बार हालात कुछ ऐसे होते हैं कि इस कविता को उद्धृत करने की इच्छा होती है. इन दिनों देश में 'शांति' बने रहने पर बहुत सुकून जताया जा रहा है. सब याद दिला रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटाए जाने के बाद भी हिंसा नहीं हुई और अयोध्या का फ़ैसला आने के बाद भी देश में अमन बना रहा.

यह अमन-चैन किस बात की सूचना है? क्या इस बात की कि सरकार में और उसके इंसाफ़ में आम लोगों का भरोसा बढ़ गया है? या इस बात का कि ज़्यादातर नागरिक बहुसंख्यकवाद के आक्रामक रवैये से आतंकित हैं और वे फिलहाल ऐसी नाइंसाफ़ियां चुपचाप सहने को विवश हैं? क्या यह वह 'मुर्दा शांति' नहीं है जिसे पाश ने सबसे ख़तरनाक चीज़ों की सूची में सबसे ऊपर रखा था? क्या हमारे भीतर किसी न्यायपूर्ण व्यवस्था का सपना मरता जा रहा है?

कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद सरकार अपनी पीठ ठोक रही है कि वहां कोई हिंसा नहीं हुई. लेकिन तीन महीने होने जा रहे हैं- कश्मीर को बहुत सारे लोगों के लिए जैसे किसी जेलखाने में बदल दिया गया है. राज्य के तीन-तीन पूर्व मुख्यमंत्री- फ़ारूक़ अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती गिरफ़्तार हैं. सरकार को अंदेशा है कि अगर इन लोगों की रिहाई हुई तो कश्मीर में माहौल ख़राब होगा. इनके अलावा अलग-अलग दलों के नेताओं सहित कई अन्य लोग भी गिरफ्तार कर लिए गए हैं. जो बहुत मामूली सी सुविधाएं हैं, उनकी आधी-अधूरी बहाली को सरकार अपनी उपलब्धि की तरह पेश कर रही है. स्कूल खोल देना, रेल चला देना, टेलीफोन लाइनें शुरू कर देना, पोस्टपेड सेवा चालू कर देना- ये सब वे बिल्कुल न्यूनतम सी चीज़ें हैं जिन्हें किसी भी राज्य में बिल्कुल बुनियादी ज़रूरतों की तरह गिना जा सकता है. इंटरनेट आज के समय की बिल्कुल बुनियादी जरूरत है, लेकिन कश्मीर के लोग सौ दिन से इससे वंचित हैं.

कश्मीर इस पर उबल पड़ने के लिए आज़ाद नहीं है. वहां लाखों की तादाद में सुरक्षाकर्मी तैनात हैं. वहां कुछ ऐसा हाल है जैसा उपनिवेशों में होता है.
लेकिन बाक़ी भारत को क्या हो गया है? जो भारत कश्मीर से मोहब्बत का दावा करता है, क्या उसके भीतर कश्मीरियों से घृणा भरी हुई है? अगर नहीं तो वह उनके मौलिक अधिकारों की बहाली की मांग क्यों नहीं करता? जो भारत वहां जमीन खरीदने का, वहां की लड़कियों से शादी करने का सपना देखता है, क्या वह बिल्कुल आततायी और आक्रांता की तरह वहां दाखिल होना चाहता है या अपने ही किसी ऐसे प्रदेश की तरह, जहां उसका दिल से स्वागत हो? जिस भारत में कश्मीर को चुनावी मुद्दा बनाया जाता हो, वहां कश्मीर के राजनीतिकरण को लेकर कोई संवेदना क्यों नहीं जागती? ऐसा क्यों लगता है कि कश्मीर के प्रति संवेदनशील ढंग से बात करने वाले किसी भी शख़्स को देशद्रोही ठहरा दिया जा सकता है? यह अंदेशा क्यों होता है कि अगर हम कश्मीर में बंद इंटरनेट की बात करें, वहां जेलों में बंद लोगों की बात करें तो हमें सरकार का ही नहीं, अपनी ही एक बड़ी आबादी का तीखा विरोध झेलना पड़ेगा?

यही स्थिति अयोध्या पर आए फ़ैसले की है. यह फ़ैसला अपने न्यायिक निहितार्थों में भी अंतर्विरोधों से भरा है. इस अंतर्विरोध के कम से कम चार स्तर हैं. पहला यह कि विवादित ज़मीन पर किसी का दावा अंतिम तौर पर साबित नहीं हो सका, लेकिन तब भी न्यायालय ने इसे एक पक्ष को दे दिया. दूसरा यह कि ज़मीन उसी पक्ष का मंदिर बनाने के नाम पर गई जिसके प्रतिनिधियों ने न्यायालय के ही मुताबिक 1949 में चुपके से मूर्ति रखने का और 1992 में सरेआम मस्जिद गिराने का अवैध काम किया. इस काम के लिए उन्हें सज़ा नहीं मिली, पुरस्कार मिला. तीसरी बात यह कि विवादित ज़मीन सरकार ने मांगी नहीं थी. वह मांग सकती थी लेकिन उसकी ओर से ऐसी कोई अर्ज़ी नहीं गई. तब भी अदालत ने सरकार को ज़मीन सौंप दी. चौथी बात यह कि अदालत ने यह भी तय कर दिया कि सरकार वहां क्या करेगी- यानी ट्रस्ट के ज़रिए मंदिर बनवाएगी. जबकि शुरू में विद्वान जजों ने कहा था कि वे ख़ुद को ज़मीन की मिल्कियत के विवाद तक सीमित रखेंगे.

इस फ़ैसले के सामाजिक फलितार्थ और उदास करने वाले हैं. जिन लोगों को राम मंदिर आंदोलन के जलते हुए दिन याद होंगे, उन्हें याद होगा कि इस आंदोलन ने देश भर में कैसे दंगों को जन्म दिया था. हम पा रहे हैं कि कल तक जो लोग दंगाइयों की भाषा बोल रहे थे, वे अमन के मुरीद हो गए. जिन लोगों ने तीन दशक तक कहा कि अदालतें आस्था का फ़ैसला नहीं कर सकतीं, वे अचानक सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के प्रति आस्थावान हो उठे. और तो और. जो लोग सबरीमला पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानने को तैयार नहीं हैं, वे अयोध्या पर यही फ़ैसला मानने की अपील कर रहे हैं. जबकि अल्पसंख्यक समूहों के भीतर यही राहत बड़ी है कि इस बार उन्हें कोई दंगे नहीं झेलने पड़े. अगर फ़ैसला कुछ और आता तो अमन-चैन की तस्वीर शायद यह नहीं रहती. हालत ये है कि जो लोग सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर पुनर्विचार याचिका के जरिए अपने आख़िरी कानूनी विकल्प को आजमाना चाहते हैं, उन्‍हें भी अमन का दुश्मन बताया जा रहा है.

ध्यान से देखिए तो यही लोग हैं जो तीसरी जगह मामूली से शांतिभंग से बौखला उठे हैं. फीस की बढ़ोतरी के मुद्दे पर जेएनयू के छात्र दिल्ली में जो आंदोलन कर रहे हैं, उससे भी इनको परेशानी है. जेएनयू के छात्र सड़क पर लाठी खा रहे हैं, घसीट कर हटाए जा रहे हैं, लेकिन सबको लग रहा है कि फीस बढ़ोतरी का विरोध जैसे कोई अय्याशी भरा मुद्दा है. महंगे स्कूलों और डोनेशन की तरह फीस लेने वाले संस्थानों में बिल्कुल तकनीकी क़िस्म की पढ़ाई कर नौकरी पा जाने वाले इन लोगों को अचानक अपने टैक्स की चिंता हो गई है जो जेएनयू की पढ़ाई पर ख़र्च होता है. इन्हें कांवड़ियों पर फूल बरसाते एक राज्य के डीजीपी से पूछने की तबीयत नहीं होती कि उनके पैसे के फूल वे धूल में क्यों मिला रहे हैं. अयोध्या में लाखों के दीए जलाकर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज कराने को आतुर एक सरकार से वे नहीं पूछते कि उनके पैसे की ये बरबादी क्यों की जा रही है. लेकिन देश, दुनिया और समाज का नक़्शा गढ़ते और एक तार्किक मनुष्य और नागरिक बनाते विश्वविद्यालय इन्हें रास नहीं आते, क्योंकि इससे इनकी कृत्रिम शांति के शीशे चटखते हैं.

तो यह कैसी शांति है? यह वह मुर्दा शांति है जो न उत्पीड़न से भंग होती है और न ही नाइंसाफ़ी से. यह अपने अधिकार की मांग से कुछ टूटती है तो वह समाज बौखला जाता है जिसे यह शांति अपनी सुरक्षा के लिए बहुत ज़रूरी लगती है. और ये कौन लोग हैं जिन्हें यह मुर्दा शांति रास आती है? यहां फिर एक अतिउद्धृत शायर दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल का एक शेर ससंकोच उद्धृत करने की ज़रूरत महसूस होती है- 'इक नई तहज़ीब के पेशेनज़र हम / आदमी को भून कर खाने लगे हैं.'

दरअसल यह एक मुर्दाखोर समाज है जो किसी भी उत्पीड़न या नाइंसाफ़ी से विचलित नहीं होता बल्कि उसमें शामिल होता है और उसका सौदा करता है. इस समाज को अपने लिए जैसे श्मशान सी शांति चाहिए. जो यह शांति भंग करेगा वह मुजरिम माना जाएगा. इसमें असहमति और विरोध के लोकतंत्र की नहीं, आम सहमति और भीड़तंत्र की स्वीकृति है क्योंकि यह एक सर्वसत्तावादी सरकार को रास आता है, उसके पूंजीपतियों को रास आता है और इसका फायदा उठाने वाली ताक़तवर जमातों को रास आता है. इसलिए कश्मीर पर चुप रहिए, अयोध्या पर चुप रहिए, जेएनयू की निंदा कीजिए.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)

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