संजय लीला भंसाली और उनकी फिल्म 'पद्मावती' के बहाने कुछ...

संजय लीला भंसाली और उनकी फिल्म 'पद्मावती' के बहाने कुछ...

संजय लीला भंसाली की नई फिल्‍म पद्मावती पर पिछले दिनों विवाद उत्‍पन्‍न हुआ.

हर उस रचनाकार को, चाहे उसके हाथ में कलम हो, कूची हो, या कैमरा हो, जो यथास्थितिवादिता के विरुद्ध खड़े होने का साहस दिखाते हैं, उस दौर से गुजरना ही पड़ता है, जिससे 'पद्मावती' फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली गुजरे. फिल्म 'बाजीराव मस्तानी'  बनाने और दिखाने का भी उनका रास्ता कोई निरापद नहीं था. यदि वे चाहते, तो मस्तानी के विरोध से उत्पन्न कड़वे अनुभव का सहारा लेकर अपने लिए 'ब्लैक' या फिर 'देवदास' जैसी फिल्मों का रास्ता चुन सकते थे. लेकिन यदि उन्होंने ऐसा नहीं करके फिर से 'बाजीराव मस्तानी' जैसे जोखिम से भरे रास्ते को ही चुना, तो इसे उनकी जिद नहीं, बल्कि एक ऐसी रचनात्मक छटपटाहट एवं अपनी उस छटपटाहट के प्रति एक वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रमाण माना जाना चाहिए, जिसके अभाव में रचनाकार मात्र एक व्यवसायी बनकर रह जाता है. भंसाली की इस हिम्मत की दाद दी जानी चाहिए. वे इसके लिए सलाम के अधिकारी हैं.

इस घटना के बाद आस्था और इतिहास के द्वंद्व को लेकर हल्की सी ही सही, एक बहस छिड़ी. बौद्धिक जगत में विश्‍व-स्तर पर इस बात को लेकर काफी लंबे समय तक विमर्श होता रहा है कि क्या लोक-कथाओं एवं श्रुतियों को इतिहास के स्रोत के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए? उदाहरण के तौर पर रानी 'पद्मावती' राजस्थान की लोक चेतना में अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर करने वाली एक अत्यंत साहसी रानी के रूप में उपस्थित हैं. लोक अत्यंत श्रद्धा के साथ उनका स्मरण करता है. मैं इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ. इतिहास में अलाउद्द्दीन खिलजी द्वारा चित्‍तौड़ पर आक्रमण किए जाने की घटना तो दर्ज है, लेकिन पद्मावती वाली घटना नहीं. जबकि मध्यकालीन भारत के ही अन्य शासकों के प्रेम-प्रसंगों के वर्णन पढ़ने को मिलते हैं, जिसमें खिलजी से कुछ पहले की शासिका रजिया बेगम शामिल हैं.

मुश्किल यह है कि मैं साहित्य का भी विद्यार्थी रहा हूं और चूंकि मलिक मोहम्मद जायसी का ग्रन्थ 'पद्मावत' हमारे पाठ्यक्रम में था, इसलिए मुझे उसे न केवल पढ़ना ही पड़ा, बल्कि समझना भी पड़ा. अच्छी बात यह है कि समझाने वाले समीक्षकों ने बहुत साफतौर पर इस तथ्य को समझाया है कि जायसी ने अपने सूफी मत को व्यक्त करने के लिए इस कथा को रूपक के रूप में प्रस्तुत किया है. आज की कानूनी भाषा में कह सकते हैं, ''इसकी कहानी और घटना का कोई भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंध इतिहास से नहीं है.''

जायसी की मौजूदगी पद्मावती के लगभग डेढ़ सौ साल बाद की है. ऐसे में लगता है कि तब पद्मावती लोक-कथाओं में इसी तरह शामिल हो चुकी होंगी, जैसे कि सुभद्रा कुमारी चैहान ने रानी झांसी की कहानी 'बुंदेले हरबोलों' के मुँह से सुनी थी और जायसी ने उसी कहानी को अपनी आध्यात्मिक यात्रा की अभिव्यक्ति के लिए चुना हो.

अब हम आते हैं कला और आस्था पर, जो भंसाली की 'पद्मावती' के विरोध का मुख्य आधार है. वस्तुतः बहुत कला का अर्थ कार्बन कॉपी तैयार करना नहीं होता, और न ही 'जो है, उसे सजाकर प्रस्तुत करना' होता है. यह या तो नवनिर्माण होता है, या फिर पुननिर्माण होता है. निःसंदेह रूप से 'पद्मावती' कहीं न कहीं जायसी की रचना का 'फिल्म निर्माण' (पुनर्निर्माण) ही है.

यहाँ दो बातें ध्यान में रखने की है. पहली यह कि कल्पना के घोल के बिना यह पुनर्निर्माण संभव ही नहीं है. दूसरा यह कि कला के हर विधा की अपनी कुछ मांगें होती हैं. यहाँ वह कला है-'फिल्म'. यदि हम इन तत्वों की उपेक्षा करके 'पद्मावती' फिल्म के बारे में केवल इतिहास एवं आस्था के आधार पर कोई धारणा बनाते हैं, तो फिर हमें यूनान के दार्शनिक  प्लेटों के शब्दों को अमल में लाना होगा कि ''कवियों को देश निकाला दे दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे ईश्‍वर की रचना को दूषित करते हैं.'' लेकिन क्या आज इस दुनिया में जो कुछ भी बेहतर और सुन्दर है, उसमें कवियों (रचनाकारों) का हाथ नहीं है? आप रचनाकार की रचनाधर्मिता को निर्देशित कीजिए, वह चापलूसी बन जायेगी. आप क्या चाहते हैं, अब यह आपके ऊपर है.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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