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This Article is From May 21, 2016

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सादगी और बीजेपी का वैभव

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 21, 2016 19:27 pm IST
    • Published On मई 21, 2016 19:18 pm IST
    • Last Updated On मई 21, 2016 19:27 pm IST
देवदास आप्टे जी 24 साल के रहे होंगे जब 1963 में नानाजी देशमुख उन्हें अवध- तिरहुत मेल से गुवाहाटी ले गए। 50 घंटे की यात्रा तय कर गुवाहाटी पहुंचने वाले आप्टे जी के पास असम में कोई संपर्क नहीं था। जिससे भी मिले पहली बार मिले और जहां भी गए खुद अपने प्रयास से पहली बार गए। 19 मई को जब असम में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत का जश्न मनया जा रहा था तब मैंने अस्सी साल के आप्टे जी को फोन किया। पहली बार बात करते हुए संकोच कर रहा था लेकिन सामान्य परिचय के आधार पर ही बातचीत होने लगी। आप्टे जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उन प्रचारकों में से एक हैं जो असम गए।

बीजेपी की जीत का जश्न उनके भावों में नहीं उतरा था। आप्टे जी निर्विकार ढंग से बताने लगे। कहा भी कि कभी आइए बात करते हैं। पुरानी पीढ़ी के संघ के लोगों के आचरण से शिकायत नहीं मिलेगी। 2014 के साल के बाद जिस तरह से बीजेपी के नेताओं ने सोशल मीडिया पर अभद्र और अलोकतांत्रिक भाषा को युवा की बेचैनी कहकर मान्यता दी है उससे बिल्कुल अलग लगते हैं यह लोग। हाल ही में राज्य सभा सदस्य स्वपन दासगुप्ता ने टाइम्स आफ इंडिया के अपने रविवारीय कॉलम में ट्रोल यानी गाली गलौज की भाषा को जायज ठहराया। अपनी जवानी में आपातकाल के खिलाफ जेल गए वित्त मंत्री जेटली ने एनडीटीवी से बात करते हुए कहा कि ट्रोल को नजरअंदाज कीजिए या पचा लीजिए। आप सोशल मीडिया पर गाली देने वालों की प्रोफाइल देखिए। खुलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यकर्ता बताते हैं, संगठन के प्रतीकों का इस्तमाल करते हैं और मां-बहन की गालियां देते हैं। किसी के खिलाफ अनाप शनाप अफवाहें फैलाते हैं। आज इस पचाने और स्वीकार करने की नसीहत दी जा रही है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संस्कृति की बात करता है लेकिन उसकी विचारधारा में पले यह नेता कैसे इस अपसंस्कृति को मान्यता देते हैं। संघ कैसे चुप रह सकता है। यहां तक कि भाषाई आक्रामकता भाजपा के प्रवक्ताओं में भी दिखती है। जो प्रवक्ता 2014 से पहले मुझे निर्भीक और स्वतंत्र पत्रकार कहा करते थे वे भी ठीक से बात नहीं करते। जब मुझे दलाल से लेकर मेरी मां तक को गालियां दी गईं तब भी यह लोग चुप रहे। 2005 में बिहार चुनावों की रिपोर्टिंग पर अरुण जेटली ने मेरी तारीफ की थी और सुशील मोदी पटना दफ्तर मिलने आए थे। इस चुनाव में मैं सुशील मोदी तक से नहीं मिल सका जबकि पूरी दुनिया उनका इंटरव्यू करके चली गई। किरण बेदी के इंटरव्यू से खौफजदा थे या सुशील जी भी किसी कटुता के शिकार हो गए, मुझे पता नहीं। न ही मुझे अब जानना है। एक वक्त था जब प्रकाश जावड़ेकर जैसे बड़े नेता अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच मेरे कार्यक्रम के लिए वक्त निकालते थे। तारीफ करते थे और पूरी संजीगदी से सख्त सवालों के जवाब देते थे। जावड़ेकर साहब स्नेह से राविश बुलाते थे। तब यूपीए की सरकार हुआ करती थी। तब दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार हुआ करती थी, जिसके दावों को मैंने रवीश की रिपोर्ट में खोखला साबित कर दिया था। तब मेरे शो में आने के लिए आज के कई प्रवक्ता मैसेज करते थे कि, बहुत दिनों से आपने बुलाया नहीं है। मैं यह बात बुलाने या आने के लिए नहीं लिख रहा। वैसे आ भी नहीं रहे हैं। मुझे लटयिन दिल्ली के ताकतवर लोगों के बीच घूमने की चाहत ही नहीं है। कभी नहीं रही।

जाहिर है प्रवक्ता सोशल मीडिया के लफंगों की परवाह कर रहे होते हैं जो एक फौज की शक्ल में दिन रात कुछ पत्रकारों को गालियां देते हैं। बरखा दत्त को रंडी कहा गया है और मुझे 100 फीसदी रंडी की औलाद। शुक्र है इन दिनों मैं किसी राजनीतिक प्रवक्ता के साथ प्राइम टाइम नहीं कर रहा, वर्ना रोज ऐसे व्यवहारों की प्रतिक्रिया में उत्तेजित होकर या आहत होकर घर लौटता था। इस तरह की आक्रामक राजनीतिक शैली के बीच संघ के पुराने प्रचारक कैसे सहज रहते होंगे, यह कहना मुश्किल है, जब तक उनकी इस अपसंस्कृति को लेकर कोई सार्वजनिक आलोचना नहीं आ जाती। इन सवालों को लेकर एक दिन संघ प्रमुख मोहन भागवत से सीधे-सीधे सवाल करने का इरादा जरूर है। अगर उन्होंने भी नहीं बुलाया तो कोई बात नहीं। मुझे रिजेक्ट होने की पुरानी आदत है। मोहन भागवत जी को एक दिन सार्वजनिक पत्र लिखूंगा। मुझे यकीन है इस अपसंस्कृति के खिलाफ वे कार्रवाई करेंगे और ऐसे हुड़दंगियों को अपने से अलग करने का साहस दिखाएंगे। मैं तो अपने स्तर पर ऐसा होने का प्रयास करूंगा ही! जिद्दी आदमी हूं, हार जाऊंगा मगर लड़ जाऊंगा, वह भी अकेला।

मैं आप्टे जी के बारे में लिखते-लिखते यह बात क्यों लिख गया। इसलिए कि इस दौर में बहुत दिनों बाद शिष्टाचार से मुलाकात हुई। मिष्ठाचार भी कहिए। मीठे-मीठे बोल रहे थे। पहली बार फोन करने पर भी बिना कोई सवाल किए मेरे सवाल का जवाब देने लगे। उन्होंने ठीक से सुना या नहीं लेकिन मैंने कहा कि मैं संघ का आलोचक हूं। फिर भी वे बात किए जा रहे थे। 'असम में तब कोई नहीं जानता था, नौजवान था। एक-एक कर लोगों से बात की। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक विधायक हुए थे मधुसूदन दास। वे ग्रामीण और किसान नेता थे। उनसे बात करते-करते राजनीतिक संपर्क बढ़ाया। फिर असम में घुसपैठ के सवालों पर बात होने लगी। इसके लिए मैं शिलांग गया, तब असम की राजधानी शिलांग हुआ करती थी।' शिलांग की राजधानी से वे जनगणना की रिपोर्ट लेकर आए। मधुसूदन जी को समझाया और पहली बार असम में घुसपैठ के खिलाफ एक कमेटी बनी। कमाल का किस्सा सुनाया। न कोट करने वाली बातें भी बताईं!

मैं किसी अदृश्य कल्पना में खो गया। आज असम की कामयाबी का श्रेय लेने वालों की होड़ है लेकिन जो व्यक्ति 24 साल की उम्र में नागपुर से असम गया हो उसे कैसा लग रहा होगा। फोन पर उनकी आवाज से लगा भी नहीं कि इस जीत पर उनका दावा है। कोई सेठी थे, जो मीडिया में श्रेय ले रहे थे सोशल मीडिया प्रबंधन और रणनीति का। हंसी आ गई मुझे।

आप्टे जी ने बताया कि आरएसएस के कई प्रचारकों की उग्रवादियों ने हत्या कर दी फिर भी टिके रहे। अगर ऐसा है तो संघ के इस योगदान को स्वीकृति मिलनी चाहिए। संघ के प्रचारकों में निष्ठा कहां से आती है, वे संघ से बीजेपी में जाकर इस निष्ठा को कैसे जीते हैं, क्या बीजेपी उनका राजनीतिक घर है? कुछ तो जवाब जानता हूं, मगर सवाल पूछना चाहिए, इससे नया जवाब मिलता है। आप्टे जी जैसे प्रचारकों के साठ सत्तर साल की मेहनत का नतीजा आया है तो यह लोग जश्न में क्यों नहीं शामिल हैं। अपने सहयोगी हिमांशु से कहा कि गुवाहाटी में संघ के कार्यालय जाकर देखिए। वीडियो में देख रहा था शंकर दास जी बात कर रहे थे। कार्यालय में कोई रंग गुलाल नहीं, कोई तमाशा नहीं। ऐसा लगा जैसे इसके लिए न तो मेहनत की और न ही यह जो सत्ता आई है उनकी है। नजदीक जाने पर संघ के पुराने लोग ढंग से बात करते हैं। मुझसे भी बात करते हैं और गाली नहीं देते हैं। तभी तो एक बड़े प्रचारक ने फोन नहीं काटा। परिचय बताते ही यह नहीं कहा कि आप मेरे विरोधी हैं। सोशल मीडिया पर संघी होने का दावा करने वालों की तरह मां-बहन की गाली नहीं दी। मुझे तो अब यह गाली ऐसी हकीकत लगती है कि ऐसा लगता है कि कहीं मोहन भागवत जी से किसी दिन मिलने जाऊं और वे देखते ही गाली न बक दें या उनके साथ का कोई हाथ न उठा दे।

जुम्मा-जुम्मा दो साल भी नहीं हुए थे पत्रकारिता के। दो दिन तक दिल्ली के संघ मुख्यालय में जाकर दिन-रात प्रचारकों की दिनचर्या शूट कर ली थी। आराम से तब के संघ प्रमुख सुदर्शन जी से मिल लेता था। यह बताकर कि मैं संघ को आलोचनात्मक निगाह से देखता हूं। मुझे लगा शायद अब वह संघ नहीं रहा मगर आप्टे जी से बात कर लगा कि अब भी है। उस दौर के एक प्रवक्ता इन दिनों पहचानते तक नहीं। पुस्तक मेले में मिले तो हाथ मिलाने पर भी ऐसे चले गए जैसे कभी देखा न हो। तब वे अपनी कार में लस्सी पिलाने ले जाते थे।

खैर उस बड़े प्रचारक ने संघ के कार्यों का लेखा जोखा खुलकर बताया। मैं अक्सर लोगों से कहता हूं संघ के आलोचकों को पता ही नहीं है कि संघ के कार्य क्या हैं। सारी आलोचनाएं पुरानी जानकारी के आधार पर हैं । सिर्फ नफरत करना उसी तरह की अलोकतांत्रिकता है जैसी यह गाली देने वाले करते हैं और गाली देने वालों को उचित ठहराने वाले करते हैं। संघ के कितने संगठन चलते हैं। डॉक्टर से लेकर वकील तक में और अधिकारियों के बीच, क्या संघ के आलोचकों को पता है?

संघ के लोगों की एक बात प्रभावित करती है, वे आलसी नहीं होते। वर्ना असम में 590 सरस्वती शिशु मंदिर एक दिन में और सपने देखने से नहीं बन जाते। एक शिक्षक वाले साढ़े चार हजार स्कूल नहीं खुल जाते। चाहे जैसे भी हो संघ ने यह काम तो किया है। अब उन स्कूलों में क्या पढ़ाया जाता है और कैसे पढ़ाया जाता है इसे जानने पर ही आलोचना करूंगा। इन शिक्षकों के पांच हजार के मानदेय की व्यवस्था करना आसान नहीं है। सिर्फ असम में सेवा भारती के सात हजार हेल्थ वर्कर काम करते हैं। कांग्रेस का सेवा दल मुख्यालय में झंडा फहराने का काम करता है। ठीक है कि इस तरह के कार्य तमाम अन्य संगठन और एनजीओ करते हैं मगर क्या किस राजनीतिक दल के पास संघ है और संघ जैसा बहुआयामी सत्ता संगठन? क्या सेवादल के लोग इस सूखे के दौर में गांव-गांव जाकर सेवा नहीं कर सकते थे। देश भर में संघ के जितने संगठन और शाखाएं हैं उसका एक मुख्यालय नहीं हो सकता। नागपुर के भीतर कितने लोग होंगे जो इतने कामों पर नजर रखते होंगे या चर्चा करते होंगे। मुझे यह सवाल एक जिज्ञासु पत्रकार के नज़रिए से हैरत में डालते हैं। संघ लाख अपने आपको सामाजिक संगठन कह ले, लेकिन उसके संसाधनों और प्रचारकों के श्रम का पसीना किसी एक राजनीतिक दल के क्यों काम आता है? संघ के लोग अतीत में कई दलों के समर्थन के उदाहरण देने लगेंगे लेकिन पिछले दो दशकों से उनका लाभ सिर्फ और सिर्फ बीजेपी को मिल रहा है। तभी तो प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल संघ को रिपोर्ट देने पहुंचता है।

हिन्दुत्व  की राजनीति और राजनीति का हिन्दूकरण इन बातों को हम किसी दल की जीत के उत्साह में नजरअंदाज कर देते हैं मगर यह हमारी राजनीति के भीतर की लोकतांत्रिकता को एक दिन कमजोर कर देगा। जिस तरह खुलेआम धार्मिक संस्थानों और आश्रमों का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है उससे एक दिन हर महंत की एक पार्टी होगी या हर आश्रम का कोई राज्य सभा में होगा। लोकसभा में आदित्यनाथ तो हैं ही, एक दो और साध्वी-साधु हैं। गायत्री परिवार के पांड्या जी ने राज्य सभा का प्रस्ताव ठुकरा दिया मगर प्रस्ताव मिला तो था। भारतीय जनता पार्टी ने केरल में इड़ावा समुदाय की पार्टी बनावकर अच्छा कदम नहीं उठाया। यह एक तरह से राजनीति में आउटसोर्सिंग का नया उदाहरण है। खुद वोट नहीं मिलेगा तो उस समुदाय के लोगों की अलग से पार्टी बनवा दो और महंत के जरिए साध लो। राजनीतिक दल को हमेशा अपने कार्यक्रमों के बूते आगे बढ़ना चाहिए।

संघ के एक नेता ने बताया कि असम में मठ की तरह सत्र होते हैं। ढाई सौ सत्र हैं जिनके पास अपनी जमीनें हैं और जिनके कुछ हिस्सों पर बांग्लादेशी मुसलमानों ने कब्जा कर लिया है। इन सत्रों के प्रमुखों को सत्राधिकार कहते हैं। इस बार इन सभी सत्राधिकारों को अपने पाले में लाया गया ताकि इनके भीतर भक्ति, संगीत और संस्कृति का प्रशिक्षण लेने आने वाले हिन्दू पहचान की राजनीति का साथ दे सकें। संघ मुक्त भारत का नारा लगाने से वे आहत भी हैं। मगर भारत की राजनीति में पंजाब से शुरू हुआ पार्टी और आश्रमों का काम्प्लेक्स बनाने का यह खेल अब कहीं ज्यादा ठोस हो चुका है। हरियाणा विधानसभा चुनावों के दौरान बीजेपी अपने कई उम्मीदवारों को लेकर 'डेरा सच्चा सौदा' के भीतर चली गई, जहां उनकी सरकार की पुलिस आज भी नहीं जा सकती है। पहले आशीर्वाद मांगा जाता था अब यह गुरु, महंत या सत्राधिकार किसी राजनीतिक दल के महासचिव की तरह वोट मांगने और जुटाने का काम करने लगे हैं। यह काम बीजेपी भी कर रही है, कहीं कांग्रेस भी करती रही है और ममता बनर्जी जैसी क्षेत्रीय नेत्री भी। इस धार्मिक राजनीतिक काम्प्लेक्स के खतरे पर कोई बात नहीं कर रहा है।

मैं अक्सर प्रचारकों की सादगी और मौजूदा राजनीति की संपन्नता के अंतर से परेशान होता हूं। संघ की मेहनत से बीजेपी को जीत मिली है लेकिन बीजेपी की जीत या उसकी राजनीतिक संस्कृति में संघ की सादगी क्यों नहीं है। संघ इसे कैसे पचा लेता है, क्या वह भी वैसे ही पचा लेता है जैसे जेटली जी हमें ट्रोल की संस्कृति पचा लेने की सलाह दे रहे हैं। क्या यह सवाल संघ से नहीं पूछा जाए कि आपके प्रचारकों की सादगी से कांग्रेसी संस्कृति के साम,दाम, अर्थ, दंड और भेद के रूप बीजेपी में कैसे हैं? उत्तराखंड में क्या हुआ? कहीं आप भी इस संपन्नता के लाभार्थी तो नहीं हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि संघ की सादगी तभी काम की जब बीजेपी ने इसमें शाहखर्ची वाले चुनावी प्रबंधन का छौंक डाला? क्या बीजेपी के अकूत संसाधनों के बिना संघ की निष्ठा राजनीतिक जीत दिला सकती है? अगर प्रचारक बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाने में सफल रहे तो राजनीतिक संस्कृति को वैभव से बचाने में कैसे असफल रह गए। कई मंत्री नेता संघ की कसम खाते हैं मगर उनके सिल्क का कुर्ता और शाल की कीमत एक प्रचारक के साल भर के खर्चे से ज्यादा होता है। गाड़ी की कीमत इसमें शामिल नहीं है। संघ की तरह बीजेपी नहीं हो सकी तो क्या कहा जा सकता है कि बीजेपी की तरह संघ हो गया है?

इस भयावह अंतर को आप्टे जी जैसे प्रचारक कैसे पचा लेते होंगे? चुनावी राजनीति के लिए इतना पैसा कहां से आ रहा है, इतने हेलिकाप्टर कहां से आ रहे हैं। जब संघ के प्रचारक इन बातों से आंखें मूंद लेते होंगे तो उन्हें क्या दिखता होगा। उनके ही कितने प्रचारक बीजेपी में प्रवक्ता और महासचिव बनते ही कितनी तेजी से सादगी छोड़ देते हैं। क्या उनके लिए यह सादगी संपन्नता तक पहुंचने का रास्ता है, एक बहाना है? यह संघ की जीत है या उसकी हार है।

निसंदेह असम की जीत संघ के अनगिनत प्रचारकों की मेहनत का नतीजा है। यह मेहनत इसलिए भी सराहनीय है कि इस एक जीत के पहले वे हजार हार से गुजरे हैं। इतनी हारों के बीच अपने यकीन पर टिके रहे। सिर्फ यह कह देना कि संघ मुक्त भारत बनाएंगे, काफी नहीं है। कहने वालों को पहले यह तो पता हो कि भारत में कहां-कहां किस स्तर पर संघ मौजूद है। संघ मोदी सरकार का मोहताज नहीं है। वह मोदी सरकार से पहले से है और उसके बाद भी रहेगा। संघ ने यह साबित किया है। राजनीतिक आलोचक सिर्फ इतना बता दें कि क्या वे सत्ता में रहते हुए इस तरह का राजनीतिक संगठन खड़ा कर सके हैं जहां उनके वैचारिक आदर्शों को लेकर ऐसे लोग हों जो 24 साल की उम्र में अवध तिरहुत एक्सप्रेस से गुवाहाटी चले जाएं, जैसे आप्टे जी चले गए थे। मैंने आप्टे जी को बधाई दी और उस बड़े प्रचारक को भी बधाई दी जिन्होंने नाम न बताने के लिए कहा, मगर काम पूरा बताया। बातचीत में लगा नहीं कि किसी सवाल से बच रहे हों या छिपा रहे हों। मुझे यह बात पसंद आई। आप्टे जी शुक्रिया और फिर से बधाई।

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