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This Article is From Mar 03, 2020

दंगे सिर्फ़ मुहल्ला नहीं जलाते, आपसी भरोसा भी राख हो जाता है

Rakesh Tiwari
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 03, 2020 22:44 pm IST
    • Published On मार्च 03, 2020 22:44 pm IST
    • Last Updated On मार्च 03, 2020 22:44 pm IST

उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगा फैला तो मेरे पास भी मां-पापा और कुछ रिश्तेदार और दोस्तों के फ़ोन आना शुरू हो गए. चूंकि मैं पूर्वी दिल्ली में रहता हूं तो फ़ोन करने वाले स्वाभाविक रूप से टीवी और अख़बारों की ख़बरों से परेशान थे, फिर मेरा हालचाल जाना तो उन्हें इत्मिनान हुआ, हालांकि वो कई बार पूछते रहे कि सच-सच बताओ कि सब ठीक है. मैं भी कुछ देर के लिए परेशान रहा कि मेरे आसपास का माहौल ठीक तो है. शुक्र है सब ठीक ही था, अब भी ठीक है, मेरी सोसाइटी के सामने एक शादी घर है, वहां ज़रूर हर दूसरी रात को नशे में चूर कुछ युवक आपस में झगड़ा कर लेते हैं. थोड़ा शोर मचता है, फिर दूल्हा-दुल्हन पक्ष के लोग शांत भी हो जाते हैं, और माहौल ज़्यादा देर शोरग़ुल वाला नहीं होता, इसलिए सब ठीक ही है.

ऐसे हालात से मेरे मन का हाल अभी भी ठीक नहीं है, क्योंकि पिछले दिनों दो दिन के अंतराल पर मैंने पहले सरकार और सियासत से प्रश्न करती हुई और फिर दंगाइयों को ललकारती दो लघु कविताएं लिखकर उसे अपने फ़ेसबुक पर पोस्ट किया. यहीं से लगने लगा कि मैंने वो ग़लती कर दी है शायद जो ग़लती 'दामिनी' फ़िल्म की नायिका मीनाक्षी शेषाद्री ने फ़िल्म की कहानी में अपनी नौकरानी के साथ किए गए घिनौने पाप के ख़िलाफ़ किया था.

सोशल मीडिया पर मेरे क़रीबी रिश्तेदार और बचपन के दोस्तों ने सबसे पहले मुझे मेरे संस्थान से जोड़ते हुए मुसलमानों का पैरोकार साबित करने की कोशिश की, लेकिन सबसे ज़्यादा दुख और हैरानी तब होने लगी जब इनमें से कुछ लोगों ने दंगों में मारे गए लोगों को मज़हबी चश्मे से देखना शुरू किया और मुझे इस तरह से लक्ष्य किया जैसे मैंने इंसानियत की बात करके कोई पाप कर दिया गया हो. सवाल ये है कि दिल्ली से हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा व्यक्ति, कैसे ये तय कर लेता है कि दिल्ली के दंगे में जो मरे वो वाक़ई मौत के हक़दार थे, मैंने जवाब देने की कोशिश की, लेकिन उनमें से कुछ लोगों ने गोडसे तक की वक़ालत करनी शुरू कर दी और ये साबित करने लगे कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ही हिन्दू-मुसलमान के बीच का फ़र्क़ पैदा किया, और कांग्रेस की सत्ता के दौरान देश में जान-बूझकर मुसलमानों के तुष्टिकरण के नाम पर हिन्दुओं को दबाया और कुचला गया. मैं हैरान इस बात से हुआ कि ये लोग मुझे ही दंगों का ज़िम्मेवार क्यों मान रहे हैं जबकि मैं तो सिर्फ़ इन दंगों में इंसानियत की मौत ही देख रहा था और कविता का संदेश साफ़ था कि पहले तो हम अकारण धर्म के आधार पर किसी तरह की नफ़रत ना पालें, ना ही अफ़वाहगर्दी का शिकार हों और अगर ऐसी कोई हालत बने तो कम से कम इंसानियत का ख़ून न करें. आपसी सौहार्द कायम रखें ताकि हिन्दुस्तान की तासीर ज़िन्दा रहे.

मेरे सामने अब सवाल ये है कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ जाकर, मैं अपनी बात अनसोशल हो रहे सोशल मीडिया पर रखना छोड़ दूं, सिर्फ़ इसलिए कि मैं अपने पारिवारिक रिश्तों और दोस्तों को ताउम्र अपने साथ रखना चाहता हूं. क्या मैं उन दोस्तों और रिश्तेदारों से किनारा कर लूं जो सोशल मीडिया पर मुझे निजी तौर पर जानते हुए भी मेरी भावनाएं आहत कर रहे हैं. सवाल का जवाब मिले ना मिले, लेकिन एक बात समझ में तो आ ही गई है, कि देश के हालात और दंगों की रोशनी में रिश्तों की जो दीवार है, वो विचारों की चोट से दरक रही है, जिसकी वक़्त रहते मरम्मत नहीं की गई, तो कोरोना वायरस की तरह धीरे-धीरे ये अपना सामाजिक दायरा इस क़दर बढ़ा लेगी कि शायद इसका इलाज नामुमकिन हो जाए. लिहाज़ा ज़रूरी है कि हम सोशल मीडिया की दीवारें, दहलीज़ और बढ़ते दरारों के बीच अपने रिश्तों का संसार सुरक्षित रखें.

(राकेश तिवारी सीनियर आउटपुट एडिटर, NDTV इंडिया)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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