राष्ट्रीय भावना-आहत आयोग बने, जो आहत योग्य न हो वो भावना न रहे

पीएम मोदी का फाइल फोटो

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

हमारे देश में भावनाएं बहुत आहत हो रही हैं। इसमें आपकी सरकार का कोई कसूर नहीं है। बहुत सारी भावनाएं तो आपकी सरकार के आने के पहले से आहत हो रही हैं। मैं इन आहत होती भावनाओं को नियंत्रित और बेहतर तरीके से संचालित करने में आपकी मदद करना चाहता हूं। कुछ भावनाएं आपको भी आहत करती होंगी और कुछ को आप भी आहत करते होंगे। सेम टू सेम मेरा भी यही हाल है। हर किसी को यह बीमारी है सर। कब कौन-सी भावना आहत होकर मुसीबत बन जाए कहना मुश्किल है। कब किस भावना के आहत होने से किसी की लौटरी लग जाए यह पता करना ज़्यादा मुश्किल नहीं है। मैं चाहता हूं कि आप पूर्ण बहुमत की शक्ति का लाभ उठाकर भावनाओं को आहत मुक्त होने और आहत-युक्त करने का प्रयास करें।


ऐसा करने पर हम दुनिया में पहला देश होने का गौरव हासिल कर सकते हैं। अभी तक किसी भी देश ने भावनाओं के आहत होने पर कमीशन बनाने की नहीं सोची होगी जबकि उनके यहां भी भावनाएं आहत होती रहती हैं। भावनाएं लोकल और ग्लोबल स्तर पर आहत होती रहती हैं इसलिए इसे आप संयुक्त राष्ट्र के किसी अधिवेशन में भी उठा सकते हैं। बेशक आप हिन्दी में उठायें, मुझे तो खुशी ही होगी। हम एक अंतरराष्ट्रीय भावना-आहत दिवस की भी परिकल्पना विश्व को दे सकते हैं। विश्व को देते रहने में हमारा कोई सानी नहीं है। ज़ीरो के बाद भी यह सिलसिला जारी रहे। सिर्फ योग पर ही आकर न रुके।


आपने मुझसे सुझाव मांगा तो नहीं है, लेकिन आपके मन की बात का एक श्रोता होने के नाते मैं भी आपसे मन की बात करने लगा हूं। मैं चाहता हूं कि आप एक राष्ट्रीय भावना-आहत आयोग बनाएं। इस आयोग का दायरा लोकपाल से भी बड़ा हो क्योंकि भावनाएं भगवान हो गईं हैं। वो कब और कहां आहत होने के लिए प्रकट हो जाएं कोई नहीं बता सकता। इसलिए ज़रूरी है कि हमें भावनाओं की पहचान कर लेनी चाहिए। आहत होने के हिसाब से कैटगरी बने और उसके हिसाब से कानून। हर आदमी में कई भावनाएं होती हैं। कुछ भावनाएं सुप्त अवस्था में होती हैं और कुछ दिन रात प्रकट होती रहती हैं। सुप्त भावनाएं भी ज्वालामुखी की तरह भड़क सकती हैं और प्रकट भावनाएं आग लगाकर गुप्त हो सकती हैं। इसलिए हमें भावनाओं के प्रकार का भी वर्गीकरण करना होगा।

राष्ट्रीय भावना-आहत आयोग का नाम मैंने बहुत सोच समझ कर रखा है। इसके दो डिप्टी चेयरमैन होंगे। एक डिप्टी भावना का काम देखेगा और एक डिप्टी आहत का काम देखेगा। इनका मुखिया एक चेयरमैन होगा जो दोनों में तालमेल बिठायेगा। हर समुदाय और हर बलाय से भावनाओं की सूची मांगी जाए कि किस किस भावना को आहत योग्य माना जाएगा। एक सूची यह भी बने कि कौन-कौन सी भावनाएं आहत होने के बाद आफ़त योग्य हो सकती हैं। किस भावना को कब आहत होने के लिए छोड़ा जा सकता है। कब किस परिस्थिति में किसकी भावना को सर्वोच्च माना जाएगा। आहत योग्य भावनाओं के विकास के लिए सरकार क्या-क्या करेगी । इसका पैमाना कैसे तय करेगी कि आहत होने के बाद किसी समुदाय को कितने घर जलाने और लोगों को मारने की छूट होगी क्योंकि कई बार लोग भावनाओं के आहत होने के नाम पर भी ऐसा करते हैं, जिसका घर जलेगा उसकी भावना आहत योग्य मानी जाएगी या नहीं इन सब की कैटगरी बनाने का वक्त आ गया है।
 
अब देखिये ना, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जी कहते हैं कि आंगनवाड़ी कार्यक्रम में अंडा नहीं बंटेगा क्योंकि उनके लिए यह भावनात्मक मसला है। वहां बच्चे नहीं खाएंगे मगर भोपाल की सड़कों पर अंडों की बिक्री देख उनकी भावनाएं आहत हो गईं तो क्या वे सड़कों पर भी अंडों की बिक्री बंद कर देंगे। जो अंडा घर में खाया जा सकता है, बाज़ार में खाया जा सकता है, उसे आंगनवाड़ी में क्यों नहीं खाया जा सकता है। वहां भी तो सब अलग-अलग प्लेट में ही खाते होंगे न सर। कभी कभार मुख्यमंत्री जी भी प्राइवेट हवाई जहाज़ से आते-जाते होंगे, उसमें भी आगे-पीछे की सीट पर बैठा कोई व्यक्ति अंडा खाता ही होगा। शिवराज जी के लिए अपनी भावनाओं को इतनी छूट देना ठीक नहीं है। अब आंगनवाड़ी का कोई बच्चा ऐसा भी होगा जो अंडे को पसंद करता होगा। अंडा खाना उसके लिए भावनात्मक से ज्यादा पेटात्मक और स्वादात्मक मसला होगा। उस बच्चे के लिए इंसाफ़ का पैमाना क्या होगा।

इसलिए एक फ़ैसला तो होना ही चाहिए। अगर शिवराज चौहान जी शाकाहार को प्रमोट कर रहे हैं तो खुल कर करें। बतायें कि शाकाहारी कभी अपराधी नहीं होता, कभी बीमार नहीं पड़ता, उसे कैंसर नहीं होता, कभी दिल का दौरा नहीं पड़ता। उन्हीं के राज में दसवीं में फेल होने वाले पचास फीसदी बच्चे शाकाहारी थे या मांसाहारी। कोई शोध हो तो बतायें। अस्पताल से लेकर जेल तक में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों ही दिखते हैं। कई लोग इस राय के हैं कि मांसाहार के कारण विकृतियां आ रही हैं। बेशक आप अंडे की जगह काजू किसमिस बादाम दीजिए। प्रोटीन का ही मसला है तो आप उन्हें भर पेट दाल भी खिला सकते हैं लेकिन जो अंडा खाता है उसे क्यों मना किया जाए।

अब अंडे को लेकर भी भावनात्मकबाज़ी होने लगे तो हम कहां जाकर रुकेंगे। ज़रूरी है कि ऐसे मामलों के लिए राष्ट्रीय भावना-आहत आयोग हो। इसके बाद आप चाहें तो अंडे पर बैन ही लगा दें और दुनिया को बता दें कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा और पहला देश है जो अंडा नहीं फोड़ता। हम अंडे की बचत करने वाले देश बन गए हैं, लेकिन कब तक यह सब चलेगा। आए दिन एक की भावना आहत होती है तो दूसरे की भी होती होगी। इसलिए ज़रूरी है कि हम भावनाओं का दायरा तय कर लें।

हमारे देश में भावनाओं की कोई कमी नहीं है। लाउडस्पीकर, मंदिर-मस्जिद टाइप की भावनाएं तो एक सदी से ज्यादा समय से भड़की जा रही हैं। भड़काई भी जा रही हैं। हम एक भावना-प्रधान देश हैं इसलिए राष्ट्रीय भावना-आहत आयोग की सख्त ज़रूरत है। आप चाहें तो आप अपनी पसंद की भावनाएं भी सूची में शामिल करा सकते हैं। जैसे आई आई टी मद्रास में आपकी किसी ने आलोचना कर दी तो आपकी सरकार की भावनाएं भड़क गईं। उसके बाद कई समूह मिलकर एक-दूसरे की भावनाओं की लानत-मलामत करने लगे। मेरी भी कुछ भावनाएं हैं, जिनकी सूची मैं देना चाहूंगा। जैसे ट्रैफिक जाम देखते ही मेरी भावनाएं भड़क उठती हैं। अगर आप ट्रैफिक जाम को समाप्त कर दें तो मैं अपने भीतर की भड़कने वाली भावना को समझा सकूंगा कि अब तुम्हें भड़कने की ज़रूरत ही नहीं है।

तर्क खोज-खोज कर लोग भावनाओं का साइड लिए रहते हैं। एक बार कोई भावना आहत हो जाए तो बस। ट्वीटर पर पहुंच कर लोग तर्कों से उस भावना की ऐसी धुलाई करते हैं कि लगता है कि अगर उसने आहत होने का अपराध न किया होता तो उसे ऐसी सज़ा नहीं मिलती। दोनों साइड से अगर किसी की पिटाई होती है तो वो भावना ही है, जिसके आहत होने के नाम पर कोई फैसला लिया गया होता है। आप ही कहते हैं कि समाज में हास्य व्यंग्य कम हो गया है। आप कहें तो मैं हास्य-व्यंग्य प्रजनन आयोग के गठन का भी सुझाव दे सकता हूं पर किसी ने एक अंग्रेज़ी अख़बार में लिखा है कि आप देश में नहीं हंसते, विदेश में हंसते हैं। तब से सर मैं आपसे ज़्यादा पंगा नहीं लेता, क्योंकि मैं देश में ही रहता हूं और आप भी लौटकर यहीं आते हैं। वैसे इसमें हंसने वाली कोई बात नहीं कि आप विदेश जाते हैं, लेकिन कोई हंस रहा है तो मैं तो उसकी हंसी के लिए विदेश जा सकता हूं।  
 
सर, इन भावनाओं को समझाइये। इन्हें एक टाइम फ्रेम या गाइडलाइन दीजिए कि कब और कैसे आहत होना चाहिए। इतना भी आहत न हो कि आग लग जाए और इतना भी आग न लगाओ की कोई आहत हो जाए। भावना और आहत में एक संतुलन की आवश्यकता है। राष्ट्रीय भावना-आहत आयोग का अध्यक्ष कौन होगा इसके लिए सर्च कमेटी मत बनाइयेगा। बहुत टाइम लग जाता है। मेरा पत्रकारिता में मन नहीं लगता है। अगर आप ऐसी ज़िम्मेदारी देंगे तो मैं ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लूंगा। मैं वादा करता हूं कि साल भर के भीतर मैं नई-नई भावनाओं को आहत योग्य बना दूंगा। जो आहत होने के काबिल नहीं उन्हें भावना की सूची से मिटा दूंगा। कुछ भावनाएं जो लंबे समय से आहत होती रही हैं उन्हें मैं मृतप्राय घोषित कर दूंगा कि भाई बहुत हो गया। ये भावना कम आहत ज्यादा हैं। ये नहीं मानेंगी इसलिए इन्हें आहत होने के अधिकार से वंचित किया जाता है। अगर मेरी इस चिट्ठी से आपकी भावना आहत हुई हो तो माफ़ी चाहूंगा। मेरी भावनाएं बहुत शरारती हैं। आहत ही नहीं होती हैं। एक बार आप आयोग का अध्यक्ष बना दीजिए मैं उन्हें भी ठीक कर दूंगा। आहत योग्य बना दूंगा।

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आपका एक आज्ञाकारी नागरिक
रवीश कुमार