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This Article is From May 04, 2020

पलायन पैदल चलने वाले मजदूरों ने नहीं, उन मज़दूरों से महानगरों ने किया है

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 04, 2020 23:13 pm IST
    • Published On मई 04, 2020 22:00 pm IST
    • Last Updated On मई 04, 2020 23:13 pm IST

यह लॉन्ग मार्च नहीं है. इसलिए राजनीतिक प्रतिरोध नहीं है. यह अल सुबह टहलने निकलने लोगों की टोली नहीं है. इसलिए शारीरिक अभ्यास एक्ट नहीं है. यह तीर्थ यात्रा नहीं है. इसलिए धार्मिक कार्यवाही नहीं है. मज़दूरों का पैदल चलना लोकतंत्र में उनके लिए बने अधिकारों से बेदखल कर दिए जाने की कार्यवाही है. पैदल चलते हुए वो सिस्टम का इतना ही प्रतिकार कर रहे हैं कि उन रास्तों पर पैदल चल रहे हैं जिन पर चलने की इजाज़त नहीं है.

पैदल चलने का यह दृश्य माइग्रेशन यानी पलायन के उस दृश्य के जैसा नहीं है जिसे लोगों ने 1947 में देखा था. आगरा-लखनऊ या सूरत-अहमदाबाद एक्सप्रेस वे पर पैदल चलते इन लोगों का दृश्य पहली बार देखा गया है. इन शहरों में इन्हें आते हुए किसी ने नहीं देखा. इन शहरों से इन्हें जाते हुए दुनिया देख रही है.

सूरत, मुंबई, नागपुर, हैदराबाद. इन बड़े शहरों की मजदूर बस्तियां भले तंग हों, वहां न पानी हो न हवा हो लेकिन उन बंद कमरों में इन मज़दूरों की पहचान रहती थी जिसके दम पर वे उस गांव में आदमी गिने जाने लगे थे जिसे वे कई साल पहले छोड़ आए थे. ज़िंदगी में जब आप सम्मान पाते हैं, थोड़ी सी बराबरी पाते हैं और जब अचानक वो 24 मार्च की तालाबंदी के बाद चली जाए तो आवाज़ चली जाती है. इसलिए मैं मजदूरों के इस मार्च को चुपचाप चलते चले जाने वाला मार्च कहता हूं. वे सदमे में हैं.

जब मजदूर और उसका परिवार होली और दीवाली में अपने गांव जाते थे तो दूर से ही उनके कपड़ों की चमक से गांव में उम्मीद की रौशनी खिल जाती थी. कोई आया है शहर से कमा कर. वहां बच्चों को पढ़ा रहा है. घऱ में टीवी है. अब जब कई हफ्तों तक पैदल चलने के बाद वह अपने गांव पहुंचेगा तो कपड़ों की चमक जा चुकी होगी. चेहरे की थकान और तलवे के नीचे पड़े छालों को नज़रों से छिपाना मुश्किल हो जाएगा. यह सोच कर ही वह कांप जाता होगा कि इस हाल में अपने गांव का सामना नहीं कर सकेगा जहां वो कई साल से विजेता की तरह आया करता था.
  
पैदल चलते मजदूरों के सर पर सामान का जो बोझ है वह उसके लिए भारी इसलिए नहीं है कि उसमें बक्सा है, घर का कपड़ा और बर्तन है. जब वह इन सामानों के साथ गांव में घुसेगा तो लोग देख लेंगे कि उसके पास बस इतना ही है. इस बार उसका सामान देखा नहीं, गिना जाएगा. इसलिए वह ऐसे वक्त नहीं जाना चाहता कि कोई उसे देखे. कोई उससे बात करे. वह बार बार उन सरकारों के सामने बेपर्दा नहीं होना चाहता जिसे वह 40 दिनों के बाद भी नहीं दिखा. उसकी चिन्ता समाज के सामने बेपर्दा हो जाने की है.
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इसलिए आप हाईवे पर संवाददाताओं से उनकी बातचीत सुनिए. वो न्यूज़ चैनलों पर नीचे चलने वाले उन टिकरों की तरह बोलते हैं जो एक पंक्ति की होती हैं. जो सूचना होते हुए भी महत्वपूर्ण सूचना के लायक नहीं होती हैं. एक हफ्ते से पैदल चल रहे हैं. हरियणा से आ रहे हैं. चंपारण जा रहे हैं. गोद में बच्चे हैं. खाना नहीं हैं. किराया नहीं है. बात खत्म. उसकी व्यथा साहित्यिक नहीं है. राजनीतिक तो हो ही नहीं सकती.

पैदल चलने वाले सिर्फ रास्ता खोज रहे हैं. कौन सा रास्ता है जिस पर पुलिस की निगाह नहीं होगी. सूरत में रात के वक्त मज़दूरों का दस्ता ऐसे ही अनजान रास्तों के सहारे निकल पड़ता है. वह बस चलता है. उसे अब हफ्ते की परवाह नहीं है. उसने किलोमीटर में दूरी का हिसाब लगाना छोड़ दिया है. रात के वक्त इक्का दुक्का कारों की हेडलाइट की रौशनी में मजदूरों की पत्नियो की साड़ी का रंगीन बॉर्डर चमक उठता है. वो इस रौशनी से सहम जाती हैं. मुड़ कर कार की तरफ देखती भी नहीं. न उनका पति देखता है. कि शायद कोई बिठा लेगा. कुछ दूर तक छोड़ देगा. उन्हें सिर्फ रातों का नहीं बल्कि कई दिनों का अंधेरा चाहिए ताकि वे चुपचाप गांव पहुंच सकें.

भारत के लोकतांत्रिक राजनीतिक इतिहास में इन ग़रीबों ने कई दलों के नेताओं की तस्वीरें और झंडा उठाकर पदयात्राएं की हैं. आज जब वे पदयात्रा पर निकलने के लिए मजबूर हुए तो कोई दल उनके काम नहीं आया. दिल्ली से बयान जारी होते रहे, जिस दिल्ली को छोड़ कर वे बिहार के लिए निकल पड़े थे. आज़ाद भारत के इतिहास में दिल्ली की तरफ पीठ कर पैदल चलने का यह पहल मार्च है. अभी तक के सारे मार्च दिल्ली चलो कहलाते थे.

महानगरों की आधुनिकता और उसकी लोकतांत्रिकता एक्सपोज़ हो गई है. वह औरत मेरी आंखों में किसी अंतहीन सवाल की तरह चुभ गई है जिसकी गोद में एक बच्चा है. दूसरे हाथ में ट्रॉली वाला लगैज बैग है. उसकी साड़ी का पल्लू हाईवे की हवा में उड़ा जा रहा है. वायरल वीडियो का क्लोज अप जब तक पांव पर रहता है, यह भ्रम होता है कि वह कोई अंतर्राष्ट्रीय यात्री है. जैसे ही कैमरा उसके चेहरे पर जाता है, पता चलता है कि वह पैदल चलने वाली मज़दूर है.

यह दृश्य बता रहा है कि लेबरर की यह पत्नी प्रवासी नहीं है. वो जहां से आई थी वहीं तो जा रही है. लेकिन जिस जगह पर आई थी उस जगह से हमारी आधुनिकता, हमारी करुणा, हमारी अंतरात्मा पलायन कर चुकी है. मेरी मानिए. जो मुंबई, सूरत और दिल्ली को पैदल छोड़ गए हैं, वो प्रवासी नहीं हैं. प्रवासी वो हैं जो हाउसिंग सोसायटी औऱ रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के बनाए गेट के भीतर बंद हैं. जो दूर जा चुके हैं अपने ही लोगों की तकलीफ और उसकी कहानी से. दूर मज़दूर नहीं गए हैं, दूर हमारे महानगर चले गए हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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