ज़्यादा नहीं, सिर्फ चार महीने पहले, यानी जुलाई में कांग्रेस ने शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश में वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया. इसके कुछ ही दिन बाद गुलाम नबी आज़ाद को प्रदेश कांग्रेस का प्रभारी और राज बब्बर को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. साथ ही, प्रदेश कांग्रेस की पूरी टीम बदल दी गई. ज़ाहिर है, इन सभी बदलावों के पीछे पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मंशा प्रदेश में कांग्रेस को फिर मजबूत करने की रही होगी. फिर शुरू हुआ कांग्रेस द्वारा बहुप्रचारित ब्राह्मण वर्ग को आगे करने का अभियान, जिसके लिए कहा गया कि यह नवनियुक्त रणनीतिकार प्रशांत किशोर के सुझाव पर किया गया.
लखनऊ में राहुल गांधी ने जिस तरह भारी बरसात के बावजूद एक बड़े मैदान में टहलकर भाषण दिया, उससे लगा, पार्टी अब गंभीर है. उसके बाद वाराणसी में पार्टी की रैली में भारी भीड़ से भी पार्टी के प्रति लोगों का उत्साह नज़र आया, लेकिन उसके बाद शुरू हुआ राहुल का प्रदेशव्यापी 'खाटसभा अभियान', जिसके अंतर्गत उन्होंने प्रदेश में दर्जनों सभाएं कीं और उनमें श्रोताओं के लिए खाटें बिछाई गईं, और मंशा यही थी कि श्रोता / दर्शक सभा समाप्त होने पर खाट घर ले जा सकें, और यह प्रचारित किया जा सके कि प्रदेश में इतनी बदहाली है कि लोगों के पास लेटने के लिए खाट तक नहीं हैं.
फिर अचानक कांग्रेस के प्रति प्रदेश के लोगों में उत्सुकता कम होती चली गई, और जिस तरह पार्टी नेता प्रदेश की ज़मीनी हकीकत से दूर नज़र आए, उससे यह साफ हो चला था कि पूरे अभियान में कहीं भी समाज के हर वर्ग से जुड़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया. शीला दीक्षित का बार-बार अस्वस्थ रहना, प्रियंका वाड्रा के अभियान से जुड़ने पर लगातार सवालिया निशान लगे रहना, शहरी लोगों के लिए कोई स्पष्ट संदेश न होना, ब्राह्मणों के अलावा दलितों और पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व न होना, राहुल गांधी द्वारा केंद्र और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बेअसर टिप्पणियां करना और प्रदेश स्तर के कांग्रेस नेताओं की स्पष्ट अरुचि से इस अभियान का अंत होते-होते कांग्रेस के प्रति उत्सुकता पहले के स्तर से भी कम हो गई.
इन सबके बावजूद कांग्रेस सार्वजनिक तौर पर किसी भी पार्टी से गठबंधन की संभावना को खारिज कर अपने दम पर सरकार बनाने का दावा दोहराती रही. ऐसे में जब पिछले महीने समाजवादी पार्टी द्वारा पूर्ववर्ती जनता दल के घटकों को फिर एक मंच पर लाने का कार्यक्रम आयोजित किया गया, तो उसके दौरान प्रशांत किशोर द्वारा मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से गठबंधन की पहल के लिए मुलाकात करने की ख़बर पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ. यह बात अलग है कि उन दिनों भी सपा ने कांग्रेस से गठबंधन की संभावना को नकार दिया था, और ऐसी ख़बरें मिलीं कि इस पहल के लिए प्रशांत को कांग्रेस नेतृत्व की ओर से भी चेतावनी दी गई.
फिर पिछले दिनों अचानक अखिलेश यादव ने एक कार्यक्रम में यह कहकर सबको चौंका दिया कि वैसे तो समाजवादी पार्टी अपने दम पर सरकार बना ही लेगी, लेकिन यदि कांग्रेस साथ दे, तो दोनों मिलकर 300 सीटें जीत सकते हैं. यानी इस बीच कुछ ऐसा हुआ कि सपा और कांग्रेस दोनों को गठबंधन की ज़रूरत महसूस होने लगी. लेकिन प्रशांत किशोर की उपयोगिता, प्रभाव और काम करने के तरीके पर प्रदेश कांग्रेस के नेताओं के अविश्वास की ख़बरों के चलते उनकी भूमिका कम होती चली गई. अब स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस के कार्यालय में प्रशांत के कार्यकर्ताओं के लिए आवंटित कमरे खाली पड़े हैं, और उनकी कंपनी इंडियन पोलिटिकल एक्शन कमेटी (आईपैक) के लखनऊ के हज़रतगंज के पास स्थित ऑफिस में कोई चहल-पहल नज़र नहीं आ रही. कुछ रिपोर्टें तो यह दावा कर रही हैं कि कांग्रेस द्वारा प्रशांत को अपना काम समेटने के लिए कहा जा चुका है.
कुछ भी हो, प्रदेश कांग्रेस के नेता प्रशांत की उपयोगिता पर सवाल उठाते हुए उनके तौर-तरीकों से अप्रसन्नता छिपाने की कोई कोशिश नहीं करते, जबकि स्पष्ट है कि प्रशांत को नियुक्त करने का निर्णय पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा ही लिया गया था. उत्तर प्रदेश में पार्टी के आज के हाल पर कुछ सवाल यूं उठते हैं...
- यदि प्रशांत और पूरी कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का इरादा यही था कि पार्टी एक बार फिर गंभीरता से ली जाए, यहां तक कि उसे 2017 में सत्ता के दावेदार के तौर पर जाना जाए, तो चूक कहां हो गई...?
- पार्टी यदि अपने अभियान की शुरुआत में अपने दम पर मजबूत होने का दावा कर रही थी, तो कुछ हफ्ते बाद ही गठबंधन की पहल (चाहे वह उचित हो या नहीं) क्यों और किसके कहने पर की गई...?
- समाजवादी पार्टी पहले तो कांग्रेस या किसी भी पार्टी के साथ कैसे भी गठबंधन के खिलाफ थी, और मुलायम ने साफ यह भी कहा कि जो भी पार्टी साथ आना चाहे, वह सपा में विलय करे, क्योंकि गठबंधन नहीं होगा. क्या यह नियम सिर्फ कौमी एकता दल और जनता दल (यूनाइटेड) के लिए था...?
- अचानक समाजवादी पार्टी की ओर से कहा गया कि वैसे तो सपा अपने में सक्षम है, लेकिन यदि कांग्रेस साथ आ जाए, तो अच्छा है. कांग्रेस के अभियान के कमज़ोर पड़ने और सपा के इस बयान के आने के बीच कोई संबंध है...?
- पूरे प्रकरण में प्रशांत किशोर की पहल, और उनके हाशिये पर जाने के बीच कोई संबंध है...? प्रशांत यदि कांग्रेस के हित में काम कर रहे थे, तो उनकी पहल को शुरू में नकारा क्यों गया...?
- अखिलेश यादव और राहुल अपने सार्वजनिक बयानों में एक दूसरे के लिए सधी और सभ्य भाषा का इस्तेमाल करते हैं. यदि दोनों पार्टियों के बीच किसी तरह का समझौता होना भी था, तो इसके लिए किसी तीसरे के बीच में आने की ज़रूरत थी भी...?
- ब्राह्मण वर्ग को सम्मान देने और वरीयता देने का निर्णय भी सिर्फ प्रशांत का अपना रहा होगा, ऐसा नहीं लगता. फिर बीच अभियान इस सोच को किनारे कर दलितों और पिछड़ों को महत्व देने की बात पहले क्यों नहीं सोची गई...? क्या यह भी प्रशांत की भूल थी...?
- ज़ाहिर है, समाजवादी पार्टी कांग्रेस को मजबूत होते क्यों देखना चाहेगी, क्या इसीलिए पहले गठबंधन को न कहकर, लेकिन कांग्रेस के अभियान के कमज़ोर हो जाने के बाद ही समझौते की बात फिर से कही गई...?
यह कहना आसान नहीं है कि अब अपनी रणनीति को बदलकर कांग्रेस फिर लोगों की सोच में जगह बना सकती है, लेकिन मज़े की बात यह है कि इस हाल के लिए प्रशांत को ही ज़िम्मेदार बताते हुए प्रदेश कांग्रेस के अधिकतर नेता बिलकुल चिंतित नज़र नहीं आ रहे.
रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...
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