अक्षय तृतीया के दिन छपे अखबार में पहले पन्ने पर खबर आई. शीर्षक है '14 साल की लड़की की 52 साल के वकील से शादी वैध : कोर्ट' . इसकी सबहेडिंग में लिखा गया है कि 'बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा है कि हम युवती का भला देख रहे हैं अब समाज में कोई और उसे पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करेगा.' देश में हिंदू कैलेंडर की जो तारीख बाल विवाह के लिए बदनाम मानी जाती है उस दिन पहले पन्ने पर छपी यह खबर हमें सोचने पर मजबूर करती है. बाल विवाह के तमाम कानूनों, प्रावधानों और अभियानों के बीच यह निर्णय एक व्यक्ति का जीवन बचाने के लिए भले ही इस शादी को वैध करार दे रहा हो, लेकिन आप सोचिए कि इस निर्णय का संदेश क्या जाने वाला है? क्या कोर्ट में जाकर उस शादी को वाजिब ठहराकर ही लड़की का भविष्य बचाना एकमात्र विकल्प था या इसके कोई और रास्ते भी थे, सोचा जाना चाहिए.
दो दिन पहले ही मैं मध्यप्रदेश के एक जिला न्यायालय में बाल विवाह पर एक परिचर्चा में हिस्सा लेने के लिए गया था. इस बातचीत में न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग भी शामिल थे. चूंकि न्यायालय परिसर था और न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग भी सामने मौजूद थे तो मुझे लोकसभा में पेश किया गया एक आंकड़ा सामने रखना मौजूं लगा. इसमें बताया गया था कि वर्ष 2014 से लेकर 2016 तक के तीन सालों में देश में बाल विवाह के 849 मामले दर्ज किए गए थे इन 849 मामलों में से केवल 35 मामलों में ही दोष सिद्ध हो सका. इसी अवधि में मध्यप्रदेश के अंदर बाल विवाह के 33 मामलों में प्रकरण दर्ज हुए थे. हैरानी की बात यह है कि एक भी मामले में आरोप सिद्ध नहीं हो सका. क्या बाल विवाह हुए ही नहीं, या हम दोषी साबित करने में पीछे रह गए.
हालांकि मैंने इसके जवाब दिए जाने की अपेक्षा नहीं की थी, पर बताया गया कि बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम और इसके तहत किए गए प्रावधानों का मूल उद्देश्य सजा देना नहीं बल्कि बाल विवाह के प्रति जागरूकता पैदा करना है. मेरे सवाल से सभागार में जितनी हैरानी थी, यह जवाब सुनने के बाद उससे ज्यादा हैरान में था, इसलिए क्योंकि आंकड़ों की खाक छानते और जमीनी हकीकत को देखते हुए मुझे लगता है कि यह एक बहुत गंभीर विषय है और यदि भारत सरकार ने सतत विकास लक्ष्यों को कमिटमेंट मानते हुए यह कहा है कि देश के अंदर 2010 तक बाल विवाह का व्यवहार पूरी तरह खत्म कर लिया जाएगा तो क्या वाकई यह ऐसे खत्म हो पाएगा?
बाल विवाह पर सबसे ताजा आंकड़े राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ने जारी किए हैं. इसके मुताबिक देश में अब भी तकरीबन 26 प्रतिशत बच्चों के विवाह तय उम्र से कम में हो रहे हैं. 15 साल पहले जब तीसरा सर्वेक्षण सामने आया था तो यह आंकड़ा तकरीबन 57 प्रतिशत था. क्या यह आंकड़ा छोटा है. एक दूसरे सोर्स से भी आंकड़ों को देखिए जो संख्या के रूप में सामने आते हैं जिससे आप इसकी भयावहता को पहचान पाएंगे. देश के सबसे बड़े सर्वेक्षण जनगणना 2011 में पाया गया कि देश में तकरीबन एक करोड़ 21 लाख बच्चों के बाल विवाह हुए. मध्यप्रदेश के अंदर ऐसे तकरीबन नौ लाख बच्चे पाए गए, जिनका जनगणना के वक्त विवाह हो चुका था. विवाह के बाद लड़कियां मां भी बन गईं और हैरानी की बात तो यह कि तलाक या विधवा भी हो गईं.
सोचिए कि क्या यह बाल अधिकारों का सीधा उल्लंघन नहीं है. बाल अधिकार समझौते के तीस साल होने जा रहे हैं. इन तीस सालों में हमारी बाल अधिकारों को लेकर क्या ठीक समझ बन पाई है. बाल विवाह के मामले में तो जो समझ बनी है उससे मैं चकित रह गया. पिछले साल मध्यप्रदेश में बाल विवाह की जमीनी पड़ताल करते हुए जब हम राजगढ़ जिले में घूम रहे थे तो वहां कुछ और ही पाया. राजगढ़ बाल विवाह और नातरा प्रथा के लिए संवेदनशील माना जाता है. मंदिर में बाल विवाहित जोड़े देखने में जब हमें निराशा लगी तो हम स्थानीय पत्रकार साथियों के पास पहुंचे. उन्होंने बताया कि अब पूरा मामला बदल गया है. अब विवाह होने के बाद जोड़े मंदिर में नहीं आते क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि इस वक्त बाहरी लोग भी आने लगे हैं, और प्रशासन भी सतर्क रहता है. इसलिए ऐसा नहीं हुआ कि बाल विवाह बंद कर दिए गए इसके उलट अब लोग ऐसे दूरस्थ इलाकों में जाकर शादी करते हैं जहां प्रशासन और मीडिया पहुंच न सके. ऐसी शादियां अक्सर रात में होने लगी हैं और मंदिरों में भी कुछ दिन बाद आते हैं.
हमें लगा कि यदि मामला इतना गंभीर है तो फिर शायद यह मामला इतना छोटा नहीं है. वह कुछ सक्सेस स्टोरीज गढ़ लेने से पूरा नहीं होने वाला. वह रस्मअदायगी से भी पूरा नहीं होने वाला. तिस पर यदि कोर्ट से ऐसे खबरें आएंगी जैसे कि आज छपी है तब तो यकीन मानिए इस मामले पर 2030 में सतत विकास लक्ष्यों के लिए रिपोर्ट बनाने में हमारे हाथ कांपेंगे.
राकेश कुमार मालवीय NFI के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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