क्या उस मनहूस रिपोर्ट को ठीक इसी जनवरी के महीने में आना था जो यह बताती है कि भारत में गैर बराबरी बढ़ रही है. जिस सप्ताह हम 26 जनवरी को अपने संविधान का 69 वां साल पूरा करते हुए एक महत्वपूर्ण पड़ाव याने सत्तवरें साल में प्रवेश करेंगे और इसकी प्रस्तावना में समाहित समता, न्याय, स्वतंत्रता और बंधुता का पाठ पढाएंगे, पर क्या दरअसल यह कह सकेंगे कि इन चारों ही पैमानों पर हमारे देश का हश्र क्या हो रहा है ? बाकी पैमानों पर क्या हो रहा है, यह देश देख ही रहा है, लेकिन आक्सफैम की रिपोर्ट हमारे देश में समता मूलक समाज की स्थापना में आर्थिक आधार पर एक करारा तमाचा है जो यह बताता है कि इस देश की आधी से ज्यादा दौलत नौ रईसों पर कुर्बान है.
ऐसे में हम गणतंत्र का गुणगान जरूर कर सकते हैं, लेकिन 2 साल 11 महीने और 18 दिन में 166 बैठकों के बाद बनी संविधान नाम की किताब की मूल भावना के साथ जो कुछ भी हो रहा है, उसे देश कैसे स्वीकार कर सकता है ? अमीरी—गरीबी की खाई को केवल इस तर्क से तो नहीं स्वीकार किया जा सकता कि यह खाई तो हमेशा से ही रही है, नीति—नियंताओं को यह देखना होगा कि यह खाई लगातार बढ़ती जा रही है. क्या इस संविधान दिवस पर हम यह सोचेंगे ?
यह देश का नहीं दुनिया का संकट है. बीते तीन—चार सालों में जो रिपोर्ट आई हैं वह लगातार इस बात की ओर इशारा कर रही हैं कि दुनिया की आर्थिक संपदा और केन्द्रीकृत होकर कम से कम हाथों में जाती जा रही है. 2016 में जिन 57 लोगों के पास दुनिया की 3 करोड़ 80 अरब के बराबर की दौलत थी वह उसके अगले साल में 44 लोगों तक आ सिमटी और फिर इस साल यह उससे भी कम होकर अब केवल 26 लोगों के पास में है. भारत में दस प्रतिशत लोगों के पास देश की संपदा का तकरीबन 77 प्रतिशत हिस्सा है.
इससे आगे का आंकड़ा यह है कि हिंदुस्तान में ही कुल संपत्ति का आधे से ज्यादा केवल 1 प्रतिशत हाथों में है और करीब साठ प्रतिशत लोगों के पास ही महज 4.8 प्रतिशत दौलत है, रूपयों में यह संख्या कोई चालीस करोड़ बैठती है. इसके साथ ही एक बात और यह कि भारत में पिछले साल 18 नए धनकुबेर यानी अरबपति पैदा हो गए हैं, अब इन धनकुबेरों की संख्या बढ़तर 119 हो गई है. वाह, कैसे समतामूलक समाज बनने की ओर बढ़ रहा है हमारा भारत और कैसी विचित्र बात है कि दुनिया दौलत की तरफ दौड़ रही है और दौलत एक व्यक्ति की तिजोरी में समा जाने को लालायित हुई जा रही है, यह तो दौलत का न्याय नहीं है, यह प्रकृति का न्याय भी नही है, यह संविधान की भावना का न्याय भी नहीं है.
हिंदुस्तान में यह अन्याय गहरा है. गरीबी की रेखा लाचारों का हर साल कत्ल करती है, कहीं भूख से, बीमारी से, कुपोषण से और हम इतरा सकते हैं कि आर्थिक पैमानों पर हम अपनी जीडीपी बढ़ाकर खूब तरक्की कर रहे हैं. सवाल यह है कि यदि यह तरक्की है और वास्तव में देश धनवान है तो देश की सत्तर फीसदी आबादी को इस कलंकिनी गरीबी रेखा की सूची से कौन बाहर निकालेगा। इसीलिए जब संविधान में न्याय की बात होगी तो वह केवल कानूनी न्याय की नहीं हो सकती, उस न्याय के दायरे को व्यापक रूप से उस संदर्भ में भी देखना होगा जो इस गरीबी के अन्याय को भी नियती का खेल न मानते हुए नीतियों की असफलता को मानेगा और उसे दुरूस्त भी करेगा. इसलिए संविधान के इस सत्तरें साल में जो मूल्य स्थापित किए गए थे, यह वक्त उनकी समीक्षा करने का भी है.
दूसरी ओर जब सार्वजनिक हित के कामों पर पैसा लगाने की बात आती है तो कहा जाता है कि सरकारी खजाना खाली है. कॉरपोरेट की कर्जमाफी में शब्दों को बदल कर उसे कर्जमाफी ही नहीं माना जाता और वही बात किसानों की आती है तो इस देश की अर्थव्यवस्था की चिंता होने लगती है. यह दोहरा मापदंड क्यों ? व्यक्तिगत रूप से मैं ऐसी किसी भी कर्जमाफी का पक्षधर तब तक नहीं हूं जब तक कि देश ऐसे लोगों को उस लाचारी की अवस्था से निकाल कर बाहर ले आए जहां उस कर्जदार तबके को सक्षम बना दिया जाए कि वह अपना कर्ज खुद के परिश्रम से पटा दे, पर वह स्थितियां बनें तो.
कर्जमाफी को जब तक चुनावी तंत्र में सत्ता हासिल करने का एक मजबूत हथियार माना जाता रहेगा, तब तक तो यह संभव ही नहीं है, लेकिन किसान ही नहीं, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जरूरी विषयों पर भी तो सरकार का पूंजी निवेश कई गरीब देशों से भी कम है. और ऐसे में यदि असर जैसी संस्थाओं की रिपोर्ट, राष्टीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण जैसी सरकारी रिपोर्ट भी, सावर्जनिक स्वास्थ्य और शिक्षा की बदहाली की गाथाएं कहती हो तो जरूर ही यह संविधान के सत्तरवें साल में हमें उन पन्नों को फिर पलटाना होगा, जिनमें भारत की फटेहाल जनता को यह भरोसा दिलाया गया था कि हम अपने हिंदुस्तान को एक बेहतर राष्ट बनाएंगे.
आईये एक बार फिर इन लाइनों को दोहरा लें, जो महज लाइनें नहीं हैं, यह हमारा देश है.
"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की और एकता अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प हो कर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई० "मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियिमत और आत्मार्पित करते हैं. "
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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