कहते हैं तस्वीरें बोलती हैं और काफी हद तक सच ही बोलती हैं। यहां आपके सामने दो तस्वीरें हैं - पहली तस्वीर तिरंगे में लिपटे शहीद कर्नल एम एन राय की और दूसरी देश के दुश्मन आतंकवादियों की। एक देश के लिए लड़ते हुए शहीद हुआ, तो दूसरा अमन चैन के खिलाफ लड़ाई में मारा गया। अफसोस इस बात का है कि देश के लिए मर मिटने वाले के नाम जितनी बुलंद आवाज उठनी चाहिए वह नहीं उठ पाई।
चलो यहां तक तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर मुल्क के दुश्मनों के जनाजे में इतने लोग शामिल हो तो कई सवाल उठते है? हालांकि कर्नल एम एन राय का अंतिम संस्कार दिल्ली कैंट के बरार स्क्वेयर में हुआ, जिसके बारे में आम जनता को शायद ढंग से पता भी नहीं था। यहां सेना प्रमुख से लेकर कई आला अधिकारी आए और पूरे सैनिक सम्मान के साथ कर्नल को विदाई दी गई।
यह घटना 27 जनवरी की है पुलवामा के त्राल के पास एक गांव में आतंकियों के होने की खबर सेना की मिली। कर्नल राय की अगुवाई में सेना और पुलिस ने गांव की घेराबंदी कर ली। एक घर में आतंकियों के छुपे होने की पक्की खबर मिली। तभी गांव वाले आगे आए और कहा कि चूंकि आतंकी स्थानीय हैं तो वे सरेंडर कर देंगे। बातचीत चल ही रही थी कि आतंकी अचानक बाहर निकल कर सेना पर अंधाधुंध फायरिंग करने लगे। गोली कर्नल राय को लगी, लेकिन फिर भी उन्होंने मैदान नहीं छोड़ा। सेना ने दो आतंकियों को मार गिराया और जब तक कर्नल राय को अस्पताल पहुंचाया तब तक देर हो चुकी थी और वह वीर गति को प्राप्त हो गए।
एक साल पहले विदेशी आतंकी को मार गिराने के लिए एक दिन पहले ही उन्हें युद्ध सेवा मेडल दिए जाने का ऐलान हुआ था। इसी ऑपरेशन में जम्मू कश्मीर पुलिस के हेड कॉस्टेबिल संजीव कुमार भी शहीद हुए।
सेना की वर्दी के अनुशासन और भारतीय सेना की उच्च परंपराओं के कारण सेना में हर कोई खुलेआम मीडिया में नहीं बोलता। इसलिए नाम ना छापे जाने के अनुरोध पर सेना के कई लोग कहते हैं हम किसके लिए अपना खून बहा रहें हैं? आखिर आतंकियों के जनाजे में इतनी भीड़ क्यों जुट रही है?
यह एक खतरनाक संकेत है जिसे समझने की जरूरत है। यह बात किसी से छुपी नहीं कि स्थानीय आतंकियों को कुछ हद तक लोगों की सहानभूति भी हासिल है। पर पहले यह खुलकर जाहिर नहीं होता था, जो कि अब होने लगा है।
इससे जहन में सवाल उठता है कि क्या फिर से जम्मू-कश्मीर में मिलिटेंसी (आतंकवाद) को लाने की कोशिश हो रही है। सीमा पार से तो इसको हवा पानी मिल ही रहा है, लेकिन कम से कम देश में तो इसका खुलकर विरोध होना ही चाहिए। राज्य की कोई भी पार्टी इसके खिलाफ एक भी शब्द बोलने को तैयार नहीं और ना ही स्थानीय राजनितिक दलों की ओर से कोई प्रेस रिलीज आया। उल्टे आतंकियों के पक्ष में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी का बयान आया कि इनका बलिदान बेकार नही जाएगा, भारत को जमीनी हकीकत समझना होगा। हालत यह है कि कश्मीर के राजनीतिक पार्टियों के नेता कई बार इन आतंकियों के मरने पर उनके घर भी मातम पुर्सी के लिए जाते हैं।
कश्मीर की पार्टियों की मज़बूरी तो समझ में आती है, लेकिन दिल्ली और देश में हर छोटी-बड़ी बात पर बयानबाज़ी करने वाले वक्तव्य वीर नेताओं को क्यों सांप सूंघ गया है? कश्मीर को लेकर आए दिन ऊल-जलूल बातें करने वाले 'कश्मीर के भाग्य विधाता' भी शांत हैं।
बेफिजूल के ओछी टिप्पणियों पर मीडिया के कैमरों के सामने धरती-आसमान एक कर देने वाले भी इस मामले में शांत हैं? दिल्ली के नेता तो चुनाव में ऐसे जुटे हैं, जैसे चुनाव ही उनके लिए सब कुछ हैं। हर कोई दिल्ली की जंग जीतने में जुटा है पर देश की, देश के लिए मर-मिटने वालों की और हमें शांति के साथ सोने देने के लिए अपनी नींद न्योछावर कर देने वालों की फ़िक्र किसी को नहीं। न तो किसी ने बयान जारी कर्नल की शहादत को याद किया और ना ही आतंकियों के जनाजे में शामिल होने के लिए लोगों को कोसा। न ही किसी ने गिलानी को गिरफ्तार करने की मांग की।
यहां यह भी समझने की जरूरत है कि सेना पिछले कई सालों से एक ओर आतंकियों से लड़ रही है, तो दूसरी ओर उनके दिल और दिमाग जीतने के लिए सद्भावना ऑपरेशन भी चला रही है। फिर कहां कमी रह गई है, क्या कश्मीर एक ऐसा नासूर बन चुका है जिसका कोई इलाज नहीं है। जरा सोचिए... सेना हमारे लिए अपनी सबसे कीमती चीज की बलिदान कर रही है, क्या हम उसे व्यर्थ जाने देंगे।
This Article is From Jan 31, 2015
राजीव रंजन की कलम से : देश के दुश्मनों के महिमामंडन पर यह चुप्पी क्यों?
Rajeev Ranjan, Saad Bin Omer
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Updated:जनवरी 31, 2015 21:48 pm IST
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Published On जनवरी 31, 2015 19:22 pm IST
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Last Updated On जनवरी 31, 2015 21:48 pm IST
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