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This Article is From May 18, 2015

प्रियदर्शन का ब्लॉग : करुणा की मृत्यु नहीं, अरुणा का जीवन

Priyadarshan
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 18, 2015 15:41 pm IST
    • Published On मई 18, 2015 15:29 pm IST
    • Last Updated On मई 18, 2015 15:41 pm IST
मुंबई के किंग एडवर्ड मेडिकल अस्पताल में 42 साल से बिस्तर पर बेसुध पड़ी अरुणा शानबाग की सांसों की डोर आख़िरकार सोमवार को टूट गई। अरुणा शानबाग के मामले ने 4 साल पहले अचानक जीवन और न्याय से जुड़े कुछ बुनियादी सवालों की तरफ़ सबका ध्यान खींचा था, जब उनकी करुणामृत्यु के लिए दी गई याचिका अदालत ने नामंज़ूर कर दी थी। तब जिस तर्क ने अरुणा शानबाग की रक्षा की थी, उसके मुताबिक जीवन पवित्रतम और अमूल्य है। चाहे जिस भी हाल में हों, अरुणा शानबाग लंबे समय तक जीवित रहीं, और कम से कम इस मामले में खुशकिस्मत कि लगातार सरोकार शिथिल और संवेदनाशून्य हो रही इस दुनिया में उन्हें कुछ ऐसी नर्सें मिलीं, जो उनकी बेख़बरी में भी उनकी सेवा करने को तैयार रहीं, उनके जीवन की गरिमा उनको लौटाती रहीं।

अरुणा शानबाग का मामला तब सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया जब अरुणा के जीवन पर किताब लिख रही एक लेखिका पिंकी विरानी ने एक याचिका दायर कर उनके लिए करुणामृत्यु की मांग की। आखिर यह कौन-सा दबाव था, जिसके तहत पिंकी विरानी ने यह काम किया? पिंकी विरानी ने अपनी याचिका में इस बात का जिक्र किया था कि अरुणा शानबाग एक ऐसा जीवन जी रही हैं, जिसमें वह कुछ भी महसूस और व्यक्त करने लायक नहीं बची हैं। उन्हें जीवित रखना अंततः एक जीवन विरोधी या मनुष्य विरोधी प्रयत्न है, क्योंकि जीवन की सार्थकता तब है जब उसे महसूस और व्यक्त किया जा सके।


एक तरह से देखें तो सर्वोच्च न्यायालय ने अरुणा शानबाग के तर्क से सहानुभूति दिखाई थी। अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में उसने परोक्ष करुणामृत्यु की इजाज़त दी थी। परोक्ष करुणामृत्यु का मतलब यह हुआ कि किसी मरीज को उसकी जीवन रक्षक प्रणाली से दूर कर दिया जाए, वे सूत्र काट दिए जाएं जो उसके जीवन को किसी भी परिस्थिति में बचाते हों। यानी किसी मरीज को करुणामृत्यु देने के लिए कोई दवा या सूई नहीं दी जा सकती या कोई ऐसा सक्रिय प्रयास नहीं किया जा सकता, जिससे उसका जीवन चला जाए। हां, उसे बचाने का प्रयास छोड़ देने से उसकी जान चली जाए तो यह परोक्ष करुणामृत्यु है।

हालांकि किसी को ऐसी करुणामृत्यु देने का फ़ैसला भी उच्च न्यायालय के कम से कम दो न्यायाधीशों के खंडपीठ की मंजूरी के बिना नहीं हो सकता और इस खंडपीठ को भी कम से कम तीन डॉक्टरों के पैनल से इसकी इजाज़त लेनी पड़ी होगी। यानी अदालत ने अपनी तरफ से यह अंदेशा पूरी तरह ख़त्म करने की कोशिश की है कि परोक्ष इच्छा मृत्यु से जुड़े कानून का कोई दुरुपयोग न हो सके। लेकिन क्या हमारे समाज में अब भी ऐसी परोक्ष इच्छा मृत्यु का चलन जारी नहीं है? जब कोई डॉक्टर किसी बुजुर्ग और बीमार मरीज के लिए यह युक्ति सुझाता है कि अब उनका कोई इलाज नहीं रहा और उन्हें घर ही ले जाना चाहिए तो यह एक तरह से परोक्ष इच्छामृत्यु का ही फैसला है जिस पर अब तक किसी कानून के अभाव में न उंगली उठती थी, न मुकदमा होता था। अब कहना मुश्किल है, नए हालात में क्या होगा।


बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा शानबाग को फिर भी जीने की इजाज़त क्यों दी थी? इस सवाल का जवाब हमें कई उपयोगी निष्कर्षों तक पहुंचा सकता है। अदालत ने परोक्ष करुणामृत्यु को कुछ परिस्थितियों में वैध बताते हुए भी अगर अरुणा शानबाग को इस नियति से मुक्त रखा तो बस इसलिए कि उनका जीवन चाहने वाली, उसे बचाए रखने के लिए प्रयत्न करने और मुकदमा लड़ने को तैयार एक छोटी-सी बिरादरी थी। यानी एक स्तर पर हम कह सकते हैं कि जीवन की रक्षा में सामूहिकता और सरोकार का बड़ा योगदान होता है। मुंबई के किंग एडवर्ड कॉलेज अस्पताल की नर्सों ने यह सामूहिकता दिखाई, यह सरोकार प्रदर्शित किया, इसलिए अदालत को भी अरुणा शानबाग के अन्यथा व्यर्थ हो चुके जीवन में इतनी गरिमा दिखी कि उसने उन्हें जीने लायक माना। यह अलग बात है कि अरुणा शानबाग की परिस्थितियों में जो संवेदनशीलता, जो सरोकारसंपन्नता अदालत ने देख ली, वह एक और संवेदनशील महिला पिंकी विरानी को नज़र नहीं आई। शायद इसलिए कि पिंकी विरानी अरुणा शानबाग के जीवन को सिर्फ अरुणा शानबाग तक सीमित करके देख रही थीं। वह यह नहीं समझ पा रही थीं कि एक जीवन में कितने जीवन शामिल होते हैं, एक मौत से कितने रिश्ते टूटते हैं।

भारतीय संदर्भों में सामूहिकता के इस सत्य का एक बड़ा महत्त्व है। इस विशाल देश में सामाजिकता के तार सारे दबावों के बावजूद अब तक इतने बचे हुए हैं कि हम दूसरों के जीवन की परवाह करते हैं- भले उनसे हमारा कोई खून का रिश्ता न हो। शायद यही चीज़ है जिसने कई तरह के अभावों के बीच, कई तरह की जड़ताओं के बीच भी इस समाज को बचाए रखा है। लेकिन अब यह संबंध ख़तरे में है,क्योंकि यह समाज ख़तरे में है। गांवों की टूटन और शहरों की सड़ांध के बीच हाल के दिनों में यह सामूहिकता कई स्तरों पर क्षतिग्रस्त हुई है और विस्थापन और अकेलेपन के अभिशाप झेल रहा आदमी आत्महत्या को भी विकल्प की तरह देखने को मजबूर है। यह अनायास नहीं है कि करुणामृत्यु पर अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने आत्महत्या से जुड़े कानून का भी ज़िक्र किया था और इसे अपराध न मानने की वकालत की है।

वैसे, अरुणा शानबाग के इस मामले के एक दूसरे और अहम सिरे पर हमारी निगाह नहीं है। 42 साल पहले अरुणा एक पाशविक व्यवहार की शिकार हुईं। इसी व्यवहार ने उन्हें मानसिक तौर पर एक ऐसी स्थायी अपंगता की तरफ धकेल दिया, जिससे वह अपने अंतिम समय तक उबर नहीं पाई। तब वह 22 साल की लड़की थीं, अब करीब 65 साल की उम्र में उनका देहांत हुआ है। बीच के 42 वर्ष सिर्फ उनके जिस्म पर घटे हैं, उनके मन पर उनकी कोई छाप नहीं पड़ी। उधर, जिस वार्ड ब्वॉय ने उन्हें चेन से जकड़ कर उनके साथ दुष्कर्म किया था, उसने अपने हिस्से की सजा काट ली।

बताया जाता है कि सात साल की जेल भुगत कर वह दिल्ली के किसी अस्पताल में नौकरी करता रहा और कुछ अरसा पहले उसकी मौत हुई। एक तरह से कहा जा सकता है कि उसने अपनी सजा काट ली थी। लेकिन क्या उस शख्स को कभी अपनी एक रात की वहशत ने झकझोरा या सिहराया होगा? या फिर वह कहीं ज्यादा दुस्साहसी हो गया होगा?

बहरहाल, उसका जो भी हो, अरुणा शानबाग के लिए उसका जीवन वह नहीं रह गया जो वह हो सकता था। यह पूरा प्रसंग बताता है कि एक जुर्म सिर्फ एक शरीर के साथ एक हादसा नहीं होता, उसके ज़ख्म मन पर भी पड़ते हैं और बहुत दूर तक पड़ते हैं। किसी अपराध की गंभीरता इस बात से भी तय होती है कि उसका किसी पीड़ित पर क्या असर पड़ा। दुर्भाग्य से यह लगता नहीं है कि अरुणा शानबाग पर चल रहे मुकदमे के वक़्त इस बात का खयाल रखा गया होगा। एक रुटीन अदालती कार्रवाई से एक रुटीन किस्म की सज़ा निकली और एक शख्स की ज़िंदगी को मौत से भी बदतर बना देने वाला शख्स कुछ साल की सजा काट कर बरी हो गया।

अरुणा शानबाग के जीवन का सबसे बड़ा सबक यही है कि एक वहशत अगर किसी के जीवन को व्यर्थ बना सकती है तो कुछ लोगों का साथ उसे फिर भी जीने की गरिमा दे सकता है। अरुणा शानबाग का जीवन उनके लिए भले अहमियत न रखता रहा हो, लेकिन वह बहुत सारे लोगों के लिए- किंग एडवर्ड कॉलेज की उन नर्सों के लिए, जिन्होंने 42 साल तक उन्हें बचाए रखा - मायने रखता था। वह इस हाल में 42 साल बची रह गईं तो भी शायद इसीलिए कि उनकी इस तरह देखभाल की गई। यहां एक संदेश हमारे लिए भी है- करुणामृत्यु का कानून भले बन गया हो, लेकिन जीवन को हम इस कानून से बड़ा मानें और यह समझें कि दूसरों के जीवन में- सरोकार और स्मृति के स्तर पर ही सही- हमारा भी बहुत कुछ शामिल है।

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