प्राइम टाइम इंट्रो : सरोगेसी का दायरा सीमित करना कितना ठीक?

प्राइम टाइम इंट्रो : सरोगेसी का दायरा सीमित करना कितना ठीक?

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

मेडिकल कारणों से जिनके बच्चे नहीं होते हैं वो न जाने कहां कहां भटकते हैं. हमारे समाज में बच्चा चाहने वाले मां बाप का जिस स्तर पर भावनात्मक और आर्थिक शोषण होता है वो सामाजिक और पारिवारिक शोषण की तुलना में कुछ भी नहीं है. निसंतान दंपत्तियों को उपाय बेचने वालों का एक समानांतर तंत्र बिछा हुआ है. बहुत लोग खुद बच्चा चाहते हैं और बहुत लोग जितना नहीं चाहते उससे कहीं ज्यादा परिवार और समाज के लोग चाहने के लिए मजबूर कर देते हैं. सामान्य स्तर की महिलाओं के लिए झेल पाना बहुत मुश्किल होता है. कुछ महिलाएं या कुछ पति पत्नी इस दबाव को झेल भी जाते हैं और परवाह भी नहीं करते. पर जो चाहते हैं उनके पास क्या विकल्प है. उपाय बेचने वाले ठगों के पास जाना विकल्प है या चिकित्सा विज्ञान के दिए विकल्पों को आज़माना ठीक रहेगा. इन्हीं में से एक है सरोगेसी.

पहले ये समझ लेते हैं कि सरोगेसी है क्या. विज्ञापन की दुनिया में आप बार बार सुनते होगे सरोगेट एड. शराब का विज्ञापन दिखाना मना है तो किसी और तरीके से बिना बोतल या पैमाना दिखाये उस ब्रांड का विज्ञापन कर दिया. सरोगेसी का यहां मतलब है मां का विकल्प. एक ऐसी मां जिसके गर्भ में किसी और पति पत्नी के शुक्राणु या स्पर्म और एग को लैब में फर्टिलाइज़ कर उससे बने भ्रूण को डाल दिया जाता है. नौ महीने तक बच्चा उस मां की गर्भ में रहता है और नौ महीने बाद बच्चा उनका हो जाता है जिनके वीर्य और अंडे के फर्टिलाइज़ेशन से भ्रूण तैयार होता है. आपने किसी न किसी शहर में इन विट्रो फर्टिलाइजेशन सेंटर का बोर्ड तो देखा ही होगा. टेस्ट ट्यूब बेबी के बारे में भी सुना होगा. इन तरीकों को आज़माते आज़माते भी कई बार सफलता नहीं मिलती है. तब जाकर एक ही आखिरी रास्ता बचता है और वो है सरोगेसी.

अगर कोई गोद लेना चाहे तो उसके लिए भी नियम कानून मौजूद हैं मगर कई बार वहां भी मामला इतना आसान नहीं होता. गोद लेने वालों को भी इंतज़ार की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है और कई बार वहां भी गड़बड़ घोटाले की ख़बरें आ ही जाती हैं. आज कल मीडिया में इसकी चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि केंद्र सरकार ने सरोगेसी (नियमन) बिल, 2016 के प्रारूप को मंज़ूरी दी है. अगर यह ड्राफ्ट कानून बन गया तो इसके बाद से वो लोग इसके ज़रिये बच्चा नहीं पैदा सकेंगे जिनके पहले से बच्चे हैं. वही कर सकेंगे जो कुदरती तौर पर पैदा नहीं कर सकते और उनके पास कोई अन्य तकनीकि विकल्प न बचे हों.
उनके लिए भी यह छूट तभी होगी जब नज़दीकी रिश्तेदारों में से कोई सरोगेट मां बनने के लिए तैयार होगी. वो भी सिर्फ एक बार के लिए सरोगेट मां बन सकेगी.

भारत में परिवार और रिश्तेदार का जितना भी हम गुण गा लें, इनकी महानता का अनुभव हर किसी का एक जैसा नहीं है. इसकी चर्चा यहां छेड़ दूं तो आप मेरा प्राइम टाइम छोड़ कर अपने ही रिश्तेदारों की असलीयत पर प्राइम टाइम करने लगेंगे. अब आप बताइये नज़दीकी रिश्तेदार में कौन तैयार होगा. क्यों तैयार होगा. वो क्यों अपनी ज़िंदगी का नौ महीना किसी को सौंप दे. यह नियम बनाते समय क्या हम नज़दीकी रिश्तेदार कैटेगरी की उस महिला की अपनी ज़िंदगी या अपने फैसले के बारे में सोच रहे हैं. अगर बच्चा चाहने वालों का संबंध किसी से बेहतर न रहा तो क्या होगा, कई बार संपत्ति विवाद के कारण हो सकता है कि कोई रिश्तेदार आगे ही न आए. अगर सरोगेसी मदर फैक्ट्री है तो बाहर की फैक्ट्री बंद कर घर परिवार के भीतर यह फैक्ट्री क्यों खोली जा रही है. क्या इस नियम से यह सुनिश्ति हो सकेगा जैसा शोषण बाहर की औरत का हो रहा था वैसा परिवार की किसी औरत का नहीं होगा. सरकार कैसे चेक कर पाएगी कि परिवार के भीतर पैसे का लेन देन नहीं हुआ है. फिर सरकार ने ऐसा सोचा ही क्यों.

तमाम मीडिया रिपोर्ट में सरोगेट मदर के शोषण की ख़बरें आती रही हैं. सरोगेट मदर बनने वाली ज़्यादातर महिलाएं ग़रीब और अशिक्षित बताई जाती हैं. उन्हें अपने शरीर को होने वाले कानूनी और मेडिकल नुकसान की समझ नहीं होती है.

क्या बेहतर नहीं होता कि सरकार सरोगेट मां बनने वाली महिलाओं के अधिकार को ठीक से स्पष्ट करती. अच्छे खासे पढ़े लिखों को मेडिकल और कानूनी शब्दावली समझ नहीं आती है. ये चाहे परिवार वाली हो या बाहर वाली हो या फिर वाला ही क्यों न हो. इसका कोई ठोस उपाय होता तो बेहतर रहता. नए विधेयक में सरोगेसी को रेगुलेट करने की एक संस्था बनाने की बात कही गई है. यह एक बेहतर उपाय है क्योंकि ज़रूरत भी है कि देश भर में उग आए आईवीएफ क्लिनिकों के तौर तरीकों पर निगाह रखी जाए. दस लाख तक का जुर्माना और दस साल की सज़ा का प्रावधान किया गया है.

विदेशी नागरिक अब भारत में सरोगेसी मदर का लाभ नहीं उठा सकेंगे। एनआरआई भी वंचित कर दिये गए हैं जिन्हें मतदान का अधिकार देने पर चर्चा हो रही है. ट्रांस जेंडर, समलैंगिक स्त्री और पुरुष को भी इस तकनीक से वंचित कर दिया गया है. तलाकशुदा, अविवाहित और अकेले रहने वाले स्त्री पुरुष भी सरोगेसी से मां या पिता नहीं बन सकेंगे.

विदेशी के लिए बात समझ आती है लेकिन बाकी के लिए सरोगेसी क्यों रोक दी गई. तुषार कपूर अगर बिना शादी के बच्चा चाहते हैं और विज्ञान उपलब्ध करा रहा है, झाड़फूंक वाले तांत्रिक बाबा नहीं तो क्या दिक्कत है. अगर विज्ञान की इस तकनीक में दिक्कत है तब तो उसी पर बात होनी चाहिए. सरकार के विधेयक से ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि सरोगेसी विज्ञान का कोई अवैध तरीका है. एक और बात है, विधेयक में लिखा है कि शादी के पांच साल बाद ही सरोगेसी के लिए इजाज़त होगी. इसका क्या आधार है, क्यों पांच साल इंतज़ार करना चाहिए? क्या मेडिकल साइंस को यह बताने में पांच साल लगते हैं कि बच्चा नहीं हो सकता? क्या यह कहा जा रहा है कि पांच साल तांत्रिक वांत्रिक आज़मा लें फिर सरोगेसी सोचें? अगर बच्चा पाने के लिए इलाज का ख्याल रखा गया है तो क्या वो धंधा नहीं बन गया है?

यह सही है कि सरोगेसी व्यावसायिक हो रहा है. इसके तहत औरतों का शोषण हो रहा है. सरकार क्यों सरोगेसी को अंतिम विकल्प बनाना चाहती है. क्या यह उसका काम है. सरकार ने इस बिल के ज़रिये सरोगेसी की स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास किया है या वह सीमित करना चाहती है.


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