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This Article is From Jul 28, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : 16 साल बाद अनशन तोड़ेंगी इरोम शर्मिला

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 28, 2016 21:32 pm IST
    • Published On जुलाई 28, 2016 21:32 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 28, 2016 21:32 pm IST
9 अगस्त के दिन इरोम शर्मिला अपना उपवास तोड़ने जा रही हैं। इरोम शादी करेंगी और चुनाव लड़ेंगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सब इरोम शर्मिला की कहानी का ठीक से पाठ करने में चूक गए। आए दिन कोई न कोई नेता भारत के लोकतंत्र की महानता का गुणगान करते रहते हैं, क्या वे लोग भी चूक गए। सोलह साल तक किसी एक शख्स ने उपवास के ज़रिये अपनी बात रखी हो, क्या उसका धीरज महान लोकतंत्र की राज्य व्यवस्थाओं के लिए मिसाल नहीं है। एक नागरिक के रूप में आप इरोम शर्मिला की संघर्ष यात्रा को कैसे देखना चाहेंगे। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आप लोकतंत्र में धरना प्रदर्शन या आंदोलन को कैसे देखते हैं और क्या आप खुद कभी किसी धरना प्रदर्शन में गए हैं। हममें से बहुतों की ज़िंदगी बिना किसी आंदोलन में गए गुज़र जाती है। वैसे लोग भी इरोम शर्मिला के आंदोलन के महत्व को समझ सकते हैं। हमारे नेता अपने जेल जाने या लाठी खाने की कहानी तो बीस बार सुनाते हैं मगर इरोम जैसे किसी नागरिक के संघर्ष की दास्तां से कन्नी काट लेते हैं।

आखिर क्यों इरोम का यह फैसला बड़ी घटना की तरह दस्तक नहीं दे सका। जब तक वो अनशन पर रहीं हर आंदोलन के चरम और धीरज की मिसाल बनकर रहीं। क्या इसलिए हुआ कि हम और आप अब ऐसे लोकतांत्रिक संघर्षों को अहमीयत देने से बचते हैं। फिल्म एंड टेलिविज़न इस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, हैदराबाद यूनिवर्सिटी और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलनों की आवाज़ संसद तक पहुंची, ख़ूब तकरारें हुईं मगर ये आंदोलन धीरे धीरे ठंडे पड़ने लगे। सरकार की ताकत के इतने रूप होते हैं कि उसके सामने छोटे समूहों का टिक पाना मुश्किल होता है। छात्र राजनीति को लेकर तमाम सरकारें और राजनीतिक दल सुस्त हो चुके थे। लेकिन हाल के छात्र संघर्षों ने राजनीतिक दलों को सतर्क कर दिया। शायद यही वजह रही होगी कि मीडिया और रिटायर नौकरशाहों के ज़रिये बार बार कहा जाने लगा कि छात्र कॉलेजों में पढ़ने आते हैं। राजनीति करने नहीं आते हैं। मंत्री तक बोलने लगे कि छात्रों को राजनीति से दूर रहना चाहिए। वे अपनी जवानी के किस्से तो बेचते रहते हैं मगर चाहते हैं कि दूसरों को ये किस्सा सुनाने का मौका न मिले कि वो कॉलेज के दिनों में आंदोलन में गया था। जिस देश की आज़ादी का इतिहास कॉलेजों में पढ़ने वाले कई नौजवानों के आवाज़ उठाने से भरा हुआ है कि कैसे उन युवाओं ने किताबें पढ़ीं, लिखीं, लाठियां खाईं, जेल गए और फांसी पर चढ़ गए। इसी देश में एक रिटायर नौकरशाह टी एस आर सुब्रह्मणयम कमेटी की रिपोर्ट में कहा जाता है कि कैंपस में प्रदर्शन, आंदोलन, घेराव और अन्य बाधा डालने वाली गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं। इसके कारण परीक्षा में देरी होती है और इम्ति‍हान स्थगित होते हैं। राजनीतिक रूप से सक्रिय छात्रों का छोटा सा समूह ऐसे व्यवधान पैदा करता है। ऋतिका चोपड़ा की रिपोर्ट की हेडलाइन है कि कैंपस में राजनीतिक गतिविधियों को सीमित किया जाए।

एक दिन कोई और रिटायर नौकरशाह आएगा जो रिपोर्ट देगा कि समाज में लोग खाने कमाने और मरने आए हैं, आंदोलन करने नहीं, इससे सरकार को नुकसान होता है। गुजरात में पटेल और दलित आंदोलनों को अवैध घोषित कर देगा। बिना इन सवालों पर गए आप इरोम शर्मिला की कहानी की सीमा और संभावना को नहीं समझ सकते हैं।

इसलिए आप इतनी आसानी से नहीं समझ सकते कि किस तरह राजनीतिक दल प्रदर्शन करने का अधिकार सिर्फ अपने तक ही सुरक्षित रखना चाहते हैं। वे नागरिकों के धरना प्रदर्शन को अवैध घोषित करने और उन्हें जगह न देने का हर उपाय करते हैं। मीडिया अब इन प्रदर्शनों को व्यवधान की तरह पेश करता है। ट्रैफिक जाम का कारण बताता है। एक पल के लिए सोचिये कि अगर छात्रों, किसानों मज़दूरों के प्रदर्शनों की वैधता नहीं बचेगी तो तब क्या होगा जब किसी मुद्दे पर सारे राजनीतिक दल हाथ मिला लें। आवाज़ उठाने की खानापूर्ति कर चुप हो जाएं। हर शहर से धरना प्रदर्शन की जगहों को समाप्त किया जा रहा है। कैंपस में राजनीतिक न करने देने की बात चल रही है। तो राजनीति कहां होगी। ब्यूटी पार्लर या जिमखाना क्लब में। यही कारण है नेताओं ने प्रदर्शन का ठिकाना बदल लिया है। दिल्ली में अब वे एक दूसरे के घरों को घेरते हैं। जंतर मंतर कम जाते हैं। वहां पहले से बैठे धरने वाले कहीं उन्हें न घेर लें कि हमारी आवाज़ कब उठाओगे।

सामूहिक रूप से नागरिकों के प्रदर्शनों को, आंदोलनों को विकास विरोधी बताकर अनसुना करने का चलन बढ़ता जा रहा है। ऐसे में कोई व्यक्तिगत संघर्ष को 16 साल तक जारी रखें, बेशक उसे कई लोगों का समर्थन मिला हो लेकिन यह किसी अजूबे से कम नहीं लगता। अगर हमारे भीतर लोकतांत्रिकता धड़कती है तो इरोम शर्मिला की कहानी क्यों नहीं धड़कती है। नेताओं के मुख से बात बात में भारत का लोकतंत्र महान से महानतम होता जा रहा है, उसी महान लोकतंत्र में इरोम शर्मिला का यह संघर्ष किस मुकाम पर रखा जाएगा। मैं आपको इरोम के बारे में कुछ बताना चाहता हूं।

42 साल की हो गई होंगी इरोम शर्मिला, इंफाल की इस लड़की के नौ भाई बहन हैं। साधारण मज़दूर परिवार की यह लड़की तीन बार में दसवीं पास करती है लेकिन बारहवीं में फेल होने के बाद वो अपने पैरों पर खड़ा होने का फैसला करती है। टाइपिंग और सिलाई सीखने के बाद पत्रकारिता की पढ़ाई पढ़ती है। इंफाल के अखबारों में उसका कॉलम छपने लगता है। अपनी डायरियों में कविता लिखते लिखते इरोम शर्मिला मणिपुर में बिखरे समाज और सत्ता के क्रूर चेहरों को देखने लगती है। साइकिल से शहर और गांव नापने लगती है। एक मानवाधिकार संगठन के लिए इंटर्न बनती है और AFSPA कानून के प्रभावों को छानबीन करने निकलती है। इरोम हर बृहस्तपिवार को उपवास करती थीं। ऐसे ही एक बृहस्पतिवार को जब साइकिल से घर लौटती हैं तो पता चलता है कि मालोम में 10 लोग असम राइफल्स के साथ हुई मुठभेड़ में मारे गए हैं। इनमें 60 साल की एक महिला थी और 17 साल का एक लड़का। 2 नवंबर 2000 की यह घटना है। उस रात इरोम ने एक काग़ज़ पर लिखा था कि शांति की शुरुआत कहां और अंत कहां होगा। इरोम ने फैसला कर लिया कि वे भूख हड़ताल करेंगी। किसी को पता नहीं चला कि इरोम अगले 16 साल तक के लिए लंबे उपवास पर बैठने वाली हैं।

मैने ये जानकारी दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा की किताब से ली है जिसका नाम है इरोम शर्मिला और मणिपुर जनता की साहस यात्रा। यह किताब हिन्दी में भी है। आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट के खिलाफ मणिपुर में भी प्रदर्शन हो रहा है और कश्मीर में भी इसके ख़िलाफ़ आवाज़ें उठती हैं। इरोम का रास्ता कश्मीर की आवाज़ों से बिल्कुल अलग है। भले ही यह कानून समाप्त नहीं हुआ लेकिन इसे समाप्त करने की बात करने वालों ने भी इरोम शर्मिला को भुला दिया। नेताओं ने भी इरोम को याद कर कश्मीर को नहीं बताया कि विरोध ही करना है तो एक रास्ता यह भी है। इरोम शर्मिला पर आत्महत्या के प्रयास के कई आरोप भी हैं। अपना फैसला बताते हुए उन्होंने कहा कि सरकार उनकी आवाज़ सुन नहीं रही है और आंदोलन को कुचलती रही है। इसलिए दिल्ली को सुनाने के लिए वो राजनीति में आएंगी। इतने लंबे उपवास के बाद भी इतना लंबा धीरज। कायदे से संसद को तारीफ करनी चाहिए इस बात के बावजूद कि इरोम की मांग से हम असहमत हैं लेकिन उनके शांतिपूर्ण और अहिंसक रास्ते का सम्मान करते हैं। 7 जनवरी 2015 को वॉल स्ट्रीट जर्नल से इरोम ने कहा था कि वे सामान्य जीवन में प्रवेश करना चाहती हैं। वे संत या देवी नहीं बनना चाहतीं। शांति प्यार और सत्य का दूत बनना चाहती हैं।

मैं नहीं जानता मगर अखबारों में पढ़ा है कि इस लंबे संघर्ष के दौरान इरोम किसी से प्यार भी करती रहीं। डेसमंड कौतिन्हो। इस ताल्लुकात को लेकर विवाद भी हुआ। उनके आंदोलन को समर्थन करने वालों ने डेसमंड पर आरोप लगाया कि वो इरोम शर्मिला को बहका रहा है और AFSPA हटाने के आंदोलन को कमज़ोर कर रहा है। कुछ कमी हमारी है। जो आंदोलन करते हैं हम समझते हैं वो सांस भी नहीं लेते होंगे। गीत भी नहीं गाते होंगे। इरोम ने किसी से कुछ नहीं बताया। जिस तरह से उपवास पर बैठते समय उनकी मां को अंदाज़ा नहीं था, उसी तरह उपवास तोड़ने के फैसले की जानकारी भी उनकी 84 साल की मां को नहीं थी। उनकी मां का प्रण था कि जब तक AFSPA हटेगा नहीं तब तक वे अनशन पर बैठी अपनी बेटी से नहीं मिलेंगी।

16 साल का अनशन समाप्त हो रहा है। चुनावी राजनीति इरोम शर्मिला के लिए कितनी जगह बनाएगी, लेकिन इसमें भी वो एक बड़ा संदेश दे रही हैं। उसी युवा को जो चुनावों से भागता है। क्या इरोम शर्मिला का अनशन समाप्त करने का फैसला बताता है कि उनका संघर्ष बेकार रहा, भारतीय राज्य व्यवस्था के सामने एक व्यक्ति की ताकत का यही अंजाम होता है या कुछ और बात भी है।

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