बसपा प्रमुख मायावती की फाइल तस्वीर
अब दलित मुद्दा गर्म है। एक तरफ सरकार की सुस्ती और दूसरी तरफ गलतबयानी। स्थिति ये बनी की मुख्यमंत्री को खुद जमीनी हालात का जायजा लेने जमीन पर उतरना पड़ा, तो दूसरी तरफ बीजेपी के प्रदेश उपाध्यक्ष को सभी पदों से हटा दिया गया। गुजरात और उत्तर प्रदेश में बीजेपी कैसे बैकफुट पर आ गई।
एक प्रधानमंत्री का राज्य गुजरात है तो दूसरा उनका चुनावी राज्य उत्तरप्रदेश। दो साल पहले इन राज्यों में बेमिसाल जीत कर सबका साथ सबका विकास के नारे के साथ सत्ता में आई बीजेपी की नीति में ऐसा क्या बदला कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव एक चुनौती बनकर सामने खड़े हैं। यूपी में बीजेपी के प्रदेश उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने दलित नेता और राज्य की चार बार मुख्यमंत्री रहीं मयावती के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया, जिससे बीजेपी से बचाव में कुछ कहते नहीं बना। महिला नेता का अपमान वो भी दलित... बीजेपी को संवेदनशील समय में कुछ दिन पहले नियुक्त किए गए दयाशंकर को आखिरकार पद से हटाना पड़ा।
दलित मुद्दे पर सियासी वार इतना बरपा कि संसद में मायावती के पक्ष में महिलाओं समेत अनेक नेताओं की आवाजें उठीं। किसी ने दयाशंकर पर एससी-एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज कर गिरफ्तारी की मांग की, तो एक ने दलितों पर बढ़ते अत्याचार गिना दिए। बहुजन समाज पार्टी ने साफ कर दिया कि अगर देश भर में आंदोलन होगा, तो इसके लिए बीजेपी जिम्मेदार होगी, बसपा नहीं। बीजेपी ने आनन-फानन में कार्रवाई करते हुए दयाशंकर को सभी पदों से हटा दिया, लेकिन मायावती ने उनके इस बयान से यूपी की चुनावी भूमि तैयार कर ली और कहा कि देश बीजेपी को माफ नहीं करेगा। बीजेपी के एक मंत्री ने दलितों को जानवर तक कह दिया, लेकिन वो सरकार में बने हुए हैं।
यहां मायावती की सियासी परेशानी भी समझनी होगी। भले ही समाजवादी पार्टी यूपी में कमजोर विकेट पर है, लेकिन राज्य के 21 प्रतिशत दलित 2014 में बीजेपी के साथ चले गए थे। आंकड़ों के हिसाब से देखें तो 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी का दलित वोट शेयर दोगुना होकर 24 प्रतिशत पर पंहुच गया था। सीएसडीएस के सर्वे के अनुसार बीएसपी और कांग्रेस का वोट शेयर 20 प्रतिशत से नीचे पंहुच गया। एक रिपोर्ट के अनुसार 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस ने 53 सीटें अनुसूचित जाति के प्रभाव वाले इलाकों में जीती थी, लेकिन 2014 में वह सिर्फ 13 बचा पाई। जबकि बसपा के पास जो 13 सीटें थीं, वो सभी हार गई। बीजेपी की सीटें 21 से 73 हो गईं। दलित समाज बिखरा बताया जाता है। राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के अनुसार उन्हें एक वर्ग में डाल देते हैं, लेकिन अलग-अलग राज्यों में इनकी जातियों में अलग समीकरण हैं।
गुजरात भी बेहद अहम है। यहं दलित भले ही 7 प्रतिशत हों, लेकिन पाटीदार समाज के आंदोलन के साथ दलितों का विरोध महंगा पड़ सकता है। चिंता की बात ये है की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल उना जरूर पंहुचीं, लेकिन हिंसा और विरोध की घटनाऐं बढ़ रही हैं। बुधवार को गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उना मामले पर संसद में भारी हंगामे के बीच सफाई दी और राज्य सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का जिक्र किया, फास्ट ट्रैक कोर्ट का भरोसा दिलाया। लेकिन कांग्रेस ने सरकार पर दलित विरोधी होने और दलित मुक्त भारत की नीति का तमगा जड़ दिया।
सवाल है कि दलित मुद्दे पर सरकार बार-बार बैकफुट पर क्यों दिखाई पड़ रही हैं। देश भर में दलितों के लिए आरक्षित लोकसभा सीटों पर बीजेपी को 60 प्रतिशत में जीत मिली और उसके खाते में 40 सीटें आईं। लोकसभा में बीजेपी की 15 प्रतिशत ताकत दलित सासंदों के जरिये से आती है। हाल में पार्टी के नेता तरुण विजय जब उत्तराखंड में दलितों के साथ एक मंदिर में पंहुचे थे, तो उनकी जमकर पिटाई हुई थी। बावजूद इसके रोहित वेमुला हो या दलित समाज पर हिंसा की घटनाएं, प्रश्नचिन्ह खड़े करती रहती हैं।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस शासन में ऐसा न हुआ हो। यूपी में रीता बहुगुणा जोशी ने मायावती के लिए अभद्र बयान दिया था, जिसकी खूब निंदा हुई थी। कांग्रेस शासन में भी दलितों के उत्पीड़न की फेहरिस्त लंबी थी। 2010 में हरियाणा के मिर्चपुर में 70 साल के बुजुर्ग को उनकी मानसिक रूप से कमजोर बेटी के साथ जला दिया गया था, साथ ही 18 अन्य दलितों के घर भी जला दिए गए थे। 15 लोग दोषी पाए गए 82 को छोड़ दिया गया था, लेकिन NACDOR के अनुसार पिछले 10 सालों में दलितों के खिलाफ हिंसा के मामले 271 प्रतिशत बढ़े हैं। NCRB के 2014 के डेटा के अनुसार दलितों पर अपराध के 92.3 प्रतिशत मामलों में चार्जशीट हो जाती है, लेकिन सिर्फ 28.8 प्रतिशत को ही सजा मिलती है।
हालांकि पिछले साल जुलाई में सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्री थावर चन्द गहलोत Schedule Caste and Schedule Tribes (Prevention of Atrocities Act) Amendment Bill 2014 लाए, जिसमें नए अपराध जोड़े गए- से जूतों की माला पहनान, जानवरों और मनुष्यों के कंकाल को जबरन उठाने को मजबूर करना या मैला ढोना या सार्वजनिक तौर पर जातिसूचक शब्दों द्वारा दुर्व्यव्हार करना शामिल है। नीतियों के तौर पर, कानून के तौर पर तो सभी सरकारें कदम उठाती रही हैं, लेकिन मन में जो गांठें हैं। मन में जो भेदभाव हैं, उसको हटाने के लिए अलग प्रयासों की जरूरत होगी, जो सिर्फ नेताओं से नहीं होगा।
(निधि कुलपति एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)
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