उद्घाटन से नहीं फैकल्टी की भर्ती से चलता है AIIMS

एम्स एक ऐसा अस्पताल है जो पूरा कभी नहीं बनता. टुकड़े टुकड़े में बनता है और कई मामलों में दस पंद्रह साल निकल जाने के बाद भी पूरा बनता ही रहता है. अब चुनावी कारणों से एम्स को चालू किया जाने लगा लेकिन उसमें भी कुछ विभागों के सहारे इसे चालू कर दिया जाता है.

एम्स एक ऐसा अस्पताल है जो पूरा कभी नहीं बनता. टुकड़े टुकड़े में बनता है और कई मामलों में दस पंद्रह साल निकल जाने के बाद भी पूरा बनता ही रहता है. अब चुनावी कारणों से एम्स को चालू किया जाने लगा लेकिन उसमें भी कुछ विभागों के सहारे इसे चालू कर दिया जाता है. यह एम्स की कमाल की कामयाबी है कि वह सरकारी अस्पतालों का चुनावी मॉडल बन गया है लेकिन इसकी आड़ में न तो पूरा एम्स बन पाता है और एम्स बनने के नाम पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर ज़िला अस्पतालों की कड़ियों को भी अधर में छोड़ दिया जाता है. मरीज़ एम्स बनने का सपना देखकर आधी नींद में दिल्ली से पटना, भोपाल से दिल्ली भागता रहता है.

जब वे एम्स का नाम लेते हैं तो उसका मतलब केवल एम्स नहीं होता बल्कि टॉप क्लास सरकारी अस्पताल भी होता है. लेकिन जब कोई सरकार एम्स की बात करती है या कोई राजनीतिक दल एम्स का नाम जपता है तो उसमें एक चालाकी होती है. एम्स का नाम तमाम सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के बदले लिया जाता है. सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर ज़िला अस्पताल तक अस्पतालों की कई श्रेणियां आती हैं. ये कड़ी ध्वस्त होती जा रही है, इसे ठीक किए बगैर एम्स तमाम अस्पतालों का विकल्प नहीं हो सकता है. अव्वल तो एम्स को भी एम्स की तरह नहीं बनाया जा रहा है. किसी राज्य और किसी ज़िले को एम्स मिल जाता है लेकिन कई साल तक वह एम्स इमारत के रूप में खड़ा रहता है. उसके भीतर के विभाग ख़ाली खंडहर नज़र आते हैं. लोगों को लगता है कि ज़िला अस्पताल तो कभी ठीक नहीं होगा, एम्स ही आ जाए और एम्स के आने और बनने में और दस पंद्रह साल निकल जाते हैं. आम आदमी जहां होता है वहीं होता है.

एम्स का मकसद है श्रेष्ठ मेडिकल शिक्षा देना, मेडिकल की पढ़ाई और रिसर्च में श्रेष्ठ मानक तैयार करना और मरीज़ों को सस्ता और बेहतर इलाज देना. यह उम्मीद सभी अस्पतालों से की जाती है मगर एम्स से कुछ ज़्यादा की जाती है. अगर पढ़ाने वाले सीनियर प्रोफेसर नहीं होंगे तो मेडिकल के छात्र और दूसरे डाक्टरों को मेंटरशिप नहीं मिलेगी. हमारा सवाल है कि अगर एम्स में मेडिकल के छात्रों को पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं होंगे, मरीज़ों के लिए डाक्टर नही होंगे और बाकी स्टाफ नहीं होंगे और ठेके पर रखे जाएंगे तो क्या इसके आधार पर उस एम्स का निर्माण हो सकता है जिसके लिए जनता सपने देखती है.

आज के अखबारों में विज्ञापन आया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सात दिसंबर को गोरखपुर एम्स राष्ट्र को समर्पित करेंगे. इसी के साथ 125 मेडिकल छात्रों का पहला बैच भी शुरू हो रहा है. इस विज्ञापन में लिखा है कि 1011 करोड़ से 112 एकड़ में विस्तृत अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान एम्स गोरखपुर. सीटी स्कैन, अल्ट्रासाउंड की सुविधा वगैरह का ज़िक्र है. यह इमारत बिल्कुल बन कर तैयार है लेकिन जो बात विज्ञापन में नहीं बताई गई है वो यह कि अभी कितने फैकल्टी यहां नहीं हैं. इसका जवाब सरकार ने तीन दिसंबर को लोकसभा में दिया है. बताया है कि गोरखपुर एम्स में 183 फैकल्टी के पद मंज़ूर किए गए हैं लेकिन इस वक्त 118 फैकल्टी नहीं हैं. 64 प्रतिशत पद खाली हैं लेकिन प्रधानमंत्री इसे राष्ट्र को समर्पित कर रहे हैं. ऐसा ही होता है, अस्पताल चालू हो जाता है और आने वाले वर्षों में डाक्टर आते रहते हैं और पद भरते रहते हैं. पिछले महीने यानी 11 नवंबर के हिन्दुस्तान में खबर छपी है कि एम्स में अस्पताल का पहला ब्लाक बन कर तैयार हो गया है. इसके तहत 400 नर्सों की भर्ती एम्स प्रशासन कर रहा है.

प्राइवेट अस्पताल खुलता है तो पहले दिन से सारे डॉक्टर होते हैं. लेकिन एम्स के साथ ऐसा क्यों होता है. हज़ारों करोड़ के बजट के बाद भी कई साल से तीस से चालीस फीसदी पद खाली रह जाते हैं. सरकार को यह भी बताना चाहिए कि एम्स में डॉक्टर की बहाली की प्रक्रिया कितने महीने में पूरी होती है. गोरखपुर एम्स नया है लेकिन दिल्ली के बाद जो छह एम्स खुल चुके हैं, जिनको खुले हुए कई साल हो गए हैं उनके यहां भी फैकल्टी के पद काफी खाली हैं. नॉन फैकल्टी के पद ख़ाली हैं. इन छह में पटना, जोधपुर, भुवनेश्रर, रायपुर ऋषिकेष और भोपाल एम्स  को गिना जाता है.

2018 में संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में एम्स जैसे संस्थानों में फैकल्टी और ग़ैर फैकल्टी स्टाफ की कमी पर चिन्ता जताई थी. लिखा था कि इस समस्या को दूर करने की ज़रूरत है क्योंकि इससे संस्थान में मेडिकल की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत बुरा असर पड़ता है. स्थायी समिति ने CAG की रिपोर्ट के हवाले से छह एम्स में 55 से 83 फीसदी तक पद ख़ाली होने पर चिन्ता जताई थी. नॉन फैकल्टी पदों में से 77 फीसदी से 97 फीसदी खाली थे. एम्स रायपुर में सुपर स्पेशियालिटी विभागों के लिए 81 मंज़ूर पदों में से 60 ख़ाली थे. 74 प्रतिशत ख़ाली. एम्स पटना में भी सुपर स्पेशियालिटी के 86 पद मंज़ूर हैं मगर 65 खा़ली थे यानी 75 फीसदी पद ख़ाली.

सुपर स्पेशियालिटी विभाग में ही अगर 60 प्रतिशत और 75 प्रतिशत पद ख़ाली हों तो तब फिर वह किस बात का एम्स हो जाता है. ठीक है यह रिपोर्ट 2018 की है लेकिन क्या तीन साल बाद हालात में कोई बड़ा बदलाव आया है? इसी तीन दिसंबर को लोकसभा में सांसद शर्मिष्ठा सेठी के सवालों के जवाब में केंद्र सरकार ने जो जानकारी दी है उससे यही लगता है कि अभी भी बड़ी संख्या में पद ख़ाली हैं. तीन दिसंबर के जवाब में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री ने लिखा है कि पुराने छह एम्स में फैकल्टी के 1830 पद मंज़ूर हैं लेकिन 703 पद ख़ाली हैं. करीब 38 प्रतिशत पद खाली हैं. सीनियर रेजिडेंट के 2262 पद मंज़ूर हैं लेकिन 957 ख़ाली हैं. 42 प्रतिशत पद खाली हैं.

बिहार में कोरोना के समय उम्मीद का अस्पताल पटना एम्स ही था. वहीं पर सरकार के बड़े अफसर और मंत्री भर्ती हो रहे थे. इसके बाद भी पटना एम्स को पूरी तरह से खड़ा होने में कई साल लग गए.

पटना एम्स बिहार का मुख्य अस्पताल बनता जा रहा है, यही कारण है कि यहां पर हर दिन इलाज कराने 3000 से 5000 मरीज़ आते हैं. हमें यहां एक सवाल करना चाहिए. यहां आने वाले हज़ारों मरीज़ बिहार के दूसरे सरकारी अस्पतालों की खस्ता हालत के कारण आते हैं या दिल्ली जाने के बजाए यहां आते हैं. यह भी देखना होगा कि दिल्ली एम्स में इलाज पटना एम्स के इलाज की तुलना में सस्ता है या महंगा. कई जांच के रेट काफी अधिक हैं. रीज़नेबल चार्जेज़ के नाम पर ग़रीब मरीज़ों के लिए पटना एम्स महंगा है. जबकि एम्स जाना जाता है गरीब से गरीब मरीज़ों के इलाज के लिए. इसके बाद भी पटना एम्स अपनी पहचान बना रहा है लेकिन इस बात को कैसे स्वीकार किया जाए कि यहा पर फैकल्टी के कई पद खाली हैं. 300 से अधिक पद मंज़ूर हैं लेकिन 167 पद खाली हैं. नेफ्रोलोजी के विभाग में एक भी विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं है जहां किडनी का इलाज होता है. थाइराइड और मधुमेह की बीमारी वाले विभाग में एक भी विशेषज्ञ नहीं है. न्यूरो विभाग में भी कोई डाक्टर नहीं है. यहां सीनियर रेजिडेंट डाक्टरों के भी 157 पद खाली हैं. फैकल्टी न आने से लेकर अस्पताल के पूरी तरह से चालू होने के कई कारण हैं. पटना एम्स पर सीएजी की रिपोर्ट कहती है कि छह साल में इसे 496 करोड़ दिया गया लेकिन 158 करोड़ खर्च नहीं हो पाया. यानी पैसे की कमी तो नहीं हो सकती है.

एम्स का एक मकसद अच्छे डाक्टर और टीचर पैदा करना भी है अगर एम्स में पद खाली हैं तो यह बता रहा है कि सरकार एम्स को लेकर कितनी गंभीर है. एम्स के अलावा सेंट्रल हेल्थ सर्विसेज़ के ज़रिए डाक्टरों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर भी बात होनी चाहिए. इसके ज़रिए कितना समय लगता है किसी नियुक्ति को पूरा होने में. 2018 में CAG ने प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना की समीक्षा की थी. CAG की रिपोर्ट में भुवनेश्वर एम्स का ज़िक्र किया है उससे पता चल रहा है कि कैसे काम हो रहा है.

एम्स भुवनेश्वर में फैकल्टी की भर्ती के 84 मामलों की समीक्षा की गई है. पता चला कि सात सहायक प्रोफेसर और एक एसोसिएट प्रोफेसर की भर्ती हुई जिनके पास पढ़ाने का अनुभव नहीं था या पर्याप्त योग्तया ही नहीं थी. अभी हम नर्सिंग, फार्मा और टेक्निकल स्टाफ की गुणवत्ता की बात ही नहीं कर रहे हैं. उनके बिना तो अस्पताल पूरा नहीं होता है. यही कारण है कि छह छह एम्स बन जाने के बाद भी दिल्ली एम्स में मरीज़ों का आना कम नहीं हो रहा है.

दिल्ली एम्स में 2019 में देश भर से 44 लाख से अधिक मरीज़ इलाज कराने आए. 2018 में 38 लाख से अधिक मरीज़ आए. एक साल में छह लाख से अधिक मरीज़ बढ़ गए. 22 एम्स के बनने की घोषणा हो चुकी हैं और ज्यादातर को किसी न किसी रुप में चालू किया जा चुका है. तब भी दिल्ली एम्स से मरीज़ों का भार कम नहीं हुआ. एम्स दिल्ली हर साल अपनी सालाना रिपोर्ट जारी करता है. 2019-20 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली एम्स में फैकल्टी के 336 पद ख़ाली हैं और बिना फैकल्टी वाले 2129 पद खाली हैं जिनमें नर्सिंग स्टाफ वगैरह आते हैं. इस साल 3 दिसंबर को लोकसभा में स्वास्थ्य मंत्री ने जानकारी दी है कि दिल्ली एम्स में सहायक प्रोफेसर के 389 पद ख़ाली हैं. सीनियर रेज़िडेंट के 576 पद ख़ाली हैं.

सवाल है कि एम्स में फैकल्टी क्यों नहीं हैं, क्या इसलिए कि सरकारी नौकरी ठेके पर मिल रही है, पेंशन नहीं है, सरकारी भर्तियां कम निकलती हैं, हम यह सवाल केवल एम्स के संदर्भ में नहीं कर रहे हैं, अन्य सरकारी अस्पतालों के संदर्भ में भी कर रहे हैं. अगर इसी तरह से डॉक्टरों के पद भरने में देरी होती रही देश और राज्यों के स्तर पर, तो फिर कोरोना की तीसरी लहर के समय ही हम उसी बात का रोना रोते रहेंगे कि अस्पताल में डाक्टर नहीं है. आज दिल्ली में रेजिडेंट डाक्टर्स की हड़ताल थी. 

केंद्र और राज्य स्तर पर डॉक्टरों की बहाली की प्रक्रिया पर बात होनी चाहिए. केवल इमारत दिखा कर अस्पताल घोषित नहीं कर सकते हैं. बहुत से डाक्टर हैं जो प्राइवेट छोड़ सरकारी अस्पताल में काम करना चाहते हैं मगर बजट से लेकर पेंशन और वेतन के मामले में सरकार को अलग से सोचना होगा. वेतन के अलावा पेंशन का न होना एक बड़ा कारण है. देश भर के रेज़िडेंट डाक्टर हड़ताल पर हैं. पीजी नीट की काउसलिंग पर रोक है क्योंकि इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है. वहां भी मुद्दा बहुत ज़रूरी है लेकिन इसके कारण नया बैच एक साल लेट हो गया है. रेज़ि़डेंट डॉक्टर का कहना है कि वे तीस तीस घंटे लगातार काम करते हैं. काम का दबाव बढ़ता जा रहा है. ऐसा तो दुनिया में कहीं नहीं होता है. 

पिछले कई हफ्तों से इस देश में जो भी इस बात से परेशान है कि उन्होंने दूसरा टीका नहीं लगाया लेकिन सर्टिफिकेट बन गया है. कोई उस समय शहर में नहीं था लेकिन सर्टिफिकेट बन गया है. ऐसे परेशान लोगों की संख्या एक या दो नहीं है बल्कि अनगिनत है. आए दिन लोग हमें लिखते रहते हैं. कई जगहों से डेटा एंट्री में गड़बड़ी की शिकायत सुनने को मिली है लेकिन बिहार के अरवल ज़िले से एक ऐसा मामला सामने आया है जिसके जांच के आदेश दिए गए हैं.

हंगामा इस बात पर है कि इसमें दो बार नरेंद्र मोदी लिखा है मगर उनकी उम्र 21 साल और 52 साल दर्ज है. पिता का नाम नहीं लिखा है. प्रधानमंत्री भी नहीं लिखा है. इसी तरह अमित शाह, सोनिया गांधी और प्रियंका चोपड़ा के भी नाम दर्ज किए गए हैं. इनके नाम इस सूची में कई बार डाले गए हैं. इससे अनुमान लगा सकते हैं कि 100 करोड़ टीका लगाने के दावे में कितनी कमियां होंगी. भारत में जगह जगह पर 100 करोड़ टीका लगने के पोस्टर लगे हैं. प्रधानमंत्री के ट्वीटर अकाउंट की डीपी में भी यही है. क्या हम दावे के साथ कह भी सकते हैं कि सौ करोड़ को टीका लग गया है या सौ करोड़ का सर्टिफिकेट बन गया है ये कहना सही रहेगा. अगर हम इस आधार पर कोरोना के तीसरी लहर से लड़ने की तैयारी कर रहे हैं तो धोखा निश्चित है. हम कुछ लोगों की आपबीती सुनाना चाहते हैं जो उन्होंने देश के अलग अलग हिस्सों से भेजी है.

घपला तो कई जगहों पर हैं आखिर जिसने टीका नहीं लिया है उसका सर्टिफिकेट कैसे आ जाएगा. अरवल ज़िले की ज़िलाधिकारी का कहना है कि मामला सीरीयस है. FIR होगी. 

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पांच साल में आप जनता ने केंद्र और राज्य सरकार को पेट्रोल डीज़ल पर तरह तरह के टैक्स के ज़रिए 32 लाख करोड़ रुपये दिए हैं. राज्यसभा में केद्र सरकार ने यह जानकारी दी है. इतना पैसा देकर भी अस्पताल में डाक्टर नहीं हैं, और टीके का सर्टिफिकेट फर्ज़ी बन रहा है. 32 लाख करोड़ आपने केवल पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स के ज़रिए दिया है. क्या आपको पता था कि आपके पास इतना पैसा है? आपको पता था तभी तो आप 100 रुपये लीटर पेट्रल भरा रहे थे और सपोर्ट कर रहे थे.