ये दिल्ली है मेरी जान! दिल्ली है दिलवालों की! इस शहर में न तो जान दिखती है और न ही कोई दिलवाला, अगर ऐसा होता तो कोरोना के खतरे के बीच लोग यूं शहर छोड़कर नहीं भागते. एक हिंदी फिल्म 'अलग अलग' का वो गाना याद आता है 'गिला मौत से नहीं है मुझे ज़िंदगी ने मारा.' अपने मासूम बच्चों को गोद लिए, कंधों और सिर पर भारी भरकम बैग लिए हवाई चप्पल पहने जो मज़दूर घर जाने के लिए कई दिन भूखे रहकर कई किलोमीटर की दूरी तय कर चुके हैं, उनके लिए शायद ज़िंदगी मौत से भी बदतर है. 28 मार्च की सुबह से दिल्ली की सड़कें खासतौर पर आनंद विहार बस अड्डे ,कौशांबी बस अड्डे और यूपी गेट के आसपास घर जाने के लिए बेताब लोगों के रेले का जो नज़ारा दिखा उससे यही एहसास होता है कि ये तबका एक तरफ कोरोना तो दूसरी तरफ भूख की खाई में फंस गया है. शायद ये सोचकर इस खाई से निकलना चाहता है कि कोरोना से मरें न मरें भूख जरूर मार डालेगी.
लॉकडाउन के बाद 24 मार्च की दोपहर मैं दिल्ली की सड़कों पर घूम रहा था, जब आनंद विहार बस अड्डे के पास पहुंचा तो कई मजदूर सिर पर पोटली और कंधों पर बैग लेकर ग़ाज़ियाबाद की तरफ चले जा रहे थे. भीड़ को देखकर मैंने गाड़ी रोकी और उन मजदूरों से बात करने लगा. जब उनसे हुई बातचीत कैमरे पर रिकॉर्ड कर रहा था तो कुछ ने बताया कि वो मजदूर हैं और वो लद्दाख से आए हैं. कुछ ने बताया कि वो दिल्ली से हैं और मिस्त्री का काम करते हैं. लॉकडाउन के चलते अब काम बंद हो गया है, पैसे नहीं हैं. खाना खाने को नहीं मिल रहा, इसलिए वो अब घर जा रहे हैं, वो भी पैदल क्योंकि घर जाने के लिए कोई बस या दूसरा साधन नहीं मिल रहा. इसी बीच एक लड़का आ गया जो जोर-जोर से रोने लगा. मेरे काफी पूछने के बाद उसने बताया कि वो बिहार अपने घर जाना चाहता है. 3 दिन से ऐसे ही भटक रहा है. जेब में पैसे नहीं हैं. सड़क पर जहां घूमता है तो पुलिसवाले मारने को दौड़ते हैं. इतनी बात करने के बाद वो लड़का आगे बढ़ गया और मैं 3-4 और लोगों से बातचीत करता रहा. मेरे बातचीत के दौरान ही आगे की तरफ पुलिस की एक पीसीआर वैन आयी और आगे चल रहे लोगों को भगा दिया.
मैंने वो पूरी रिकॉर्डिंग ऑफिस भेजी और जो बच्चे से बातचीत थी उस हिस्से को ट्वीट किया. ये पलायन के शुरुआती दिन थे. मुझे अंदाज़ा भी नहीं था कि ये ट्वीट इतनी तेजी से वायरल होगा, जिसे अब तक 7 लाख से ज्यादा लोग देख चुके हैं. उसके बाद बच्चे की मदद के लिए सरकारी महकमे से लेकर एनजीओ और आम लोगों के फोन आने शुरू हो गए. सभी मदद के लिए उस बच्चे का नाम, पता और फोन नंबर मांग रहे थे, जो मेरे पास था ही नहीं, क्योंकि वहां चलते-चलते अचानक मेरी बिहार के रहने वाले मजदूरों के उस ग्रुप से बातचीत हुई और फिर सब आगे निकल गए. कोरोना के संक्रमण के खतरे को देखते हुए मैं भी तुरंत कार में बैठा, सेनेटाइजर से हाथ साफ किये और कहीं और बढ़ गया. मुझे इस बात का मलाल था कि मेरे पास बच्चे का कोई कॉन्टेक्ट नम्बर नहीं था. शायद उस बच्चे के पास कोई मोबाइल था भी नहीं.
हालांकि बाद में मैं ये भी सोचता रहा कि क्या ये इसी बच्चे की कहानी है. गरीबी में जी रहे न जाने कितने बच्चों और परिवार वालों की ऐसी ही कहानियां हैं जो कोरोना से नहीं बल्कि लॉकडाउन से टूट गए हैं. सवाल ये है कि लॉकडाउन का क्या कोई दूसरा तरीका हो सकता था, जिससे इस गरीब तबके को पलायन न करना पड़ता? निसंदेह लॉकडाउन बेहद जरूरी था, लेकिन साथ ही सरकार कुछ ऐसे नियम बनाती जिससे इस तबके को अपने गांव न भागना पड़ता. जब पलायन धीरे-धीरे अपने चरम पर है तो दिल्ली से लेकर यूपी सरकार इन्हें बसें और खाना मुहैया करा रही हैं. कल तक डण्डे लेकर दौड़ाने वाली पुलिस इन्हें खाना बांट रही है. लेकिन सोचिए अगर भीड़ में कोरोना से संक्रमित लोग हुए तो वो इस बीमारी को हर गांव और कस्बों तक ले जाएंगे और जिस तरह से हज़ारों में भीड़ में सटकर बैठे हैं और चल रहे हैं ये लोग खुद भी बड़े पैमाने पर इनके शिकार होंगे.
दिल्ली में दिल्ली के लाखों मजदूर तो हैं ही, लेकिन देश के दूसरे राज्यों के भी हज़ारों मज़दूर पहुंच गए हैं. कुछ बिहार और उत्तर प्रदेश के दूर दराज इलाकों के लिये पैदल ही निकल गए हैं तो कुछ बसों का इंतजार कर रहे हैं. इस भीड़ में कुछ ऐसे भी हैं जो मजदूर नहीं हैं. ठीक-ठाक काम करते हैं, लेकिन उन्हें आशंका है कि लॉकडाउन लंबा चलेगा इसलिए घर जाने के लिए भीड़ में शामिल हो गए. कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी साईकल या रिक्शे पर परिवार को लेकर सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करेंगे. रास्ते में कोई कुछ खाने के लिए देता है तो खा लेते हैं, कई ऐसे भी हैं जो सब्ज़ी या दूध के ट्रक पर बैठकर मोटा किराया देकर घर के लिए निकल पड़े हैं.
अब 28 मार्च को गौतमबुद्धनगर और ग़ाज़ियाबाद प्रशासन ने आदेश दिया है कि कोई मकान मालिक किसी से किराया नहीं लेगा. अगर लिया तो उस पर कड़ी कार्रवाई होगी. अगर ऐसा ही आदेश लॉकडाउन के समय आता, केंद्र सरकार और राज्य सरकारें मिलकर ये सुनिश्चित करतीं कि मजदूर तबके से कोई मकान मालिक फिलहाल घर का किराया नहीं लेगा, शुरुआत से ही इनकी आर्थिक मदद होती तो शायद ऐसे हालात नहीं होते. आशंकाओं और संसाधनों की कमी से जूझता ये तबका अब बस अपने घर जाना चाहता है. सड़क पर चल रहे लोगों की अपनी मजबूरियां हैं जो जायज़ हैं, लेकिन इस भीड़ की वजह से सोशल डिस्टेंसिंग और कोरोनो के संक्रमण का खतरा एक मज़ाक बन गया है. ये वक्त तय करेगा कि ये मज़ाक कितना भारी पड़ेगा.
मुकेश सिंह सेंगर NDTV इंडिया में रिपोर्टर हैं...
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