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This Article is From Jul 15, 2016

हमें उम्मीद करनी चाहिए आतंकी हमलों के बाद भी फ्रांस उदारता नहीं छोड़ेगा

Madan Jha
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 15, 2016 15:58 pm IST
    • Published On जुलाई 15, 2016 10:25 am IST
    • Last Updated On जुलाई 15, 2016 15:58 pm IST

ठीक 8 महीने दो दिन बाद फ्रांस एक बार फिर दहल उठा है। दक्षिणी फ्रांस के शहर नीस में आतंकी हमला हुआ है। मैं जब तक इन पंक्तियों को लिख रहा था, तब तक 80 लोग मारे जा चुके हैं। ठीक नेशनल डे के ही दिन फ्रांस के नीस की दीवारें खून से नहा उठी हैं। यूरोप में सबसे संभ्रांत, सभ्य माने जाने वाले फ्रेंच समाज के लिए यह हमला बदलाव का सबब बन सकता है। यूरोपीय समाज में फ्रांस और जर्मनी ही मध्य पूर्व से आ रहे शरणार्थियों को पनाह देने में सबसे आगे रहा है, लेकिन इन हमलों से इस सोच पर बदलाव आए तो हैरत नहीं होनी चाहिए।

मैं जितनी बार भी फ्रांस गया हूं और फ्रांसीसी समाज को मैंने जितना देखा है, उससे अब भी यही उम्मीद है कि वह समाज इसके बावजूद शायद ही अपनी उदारता छोड़े। मैं कल्पना कर सकता हूं कि इस हमले के बाद भी फ्रेंच समाज बदहवास होने के अपने भाव को अपने चेहरों पर नहीं लाया होगा...अब भी फ्रेंच समाज के लोग हमारे जैसे प्रवासियों को बचाने के लिए काम कर रहा होगा...

13 नवंबर 2015 की उस भयानक रात को मैं अपने काम से पेरिस में ही मौजूद था। उस पेरिस में जिसे सपनों का शहर कहा जाता है। जहां फैशन नया जन्म लेता है और जो यूरोप का सबसे उदार शहर माना जाता है। ऐसी न जाने कितनी ही छवियां पेरिस को लेकर लोगों के दिलों में हैं। यहां जिंदगी जैसे नई हिलोरें भरती है। उस नवंबर की गुलाबी ठंड में फिर पेरिस जाने का मौका मिला था। अपने काम के सिलसिले में 12 नवंबर को वहां पहुंचा था तो मन में एक ही उम्मीद थी कि इस बार यूरोप के इस उदार शहर से और भी कुछ हासिल करके अपने वतन लौटना है, लेकिन उस बार किस्मत में कुछ और ही लिखा था। अपनी आंखों से वह भयानक मंजर देखने को मिला, खून में नहाए पेरिस को देखना बेहद दुखद था। उस शहर में जिसके निवासियों पर उपनिवेशवाद के दौर में भी कभी भारत में अंग्रेजी हुकूमत के दौर जैसे अत्याचार का आरोप नहीं लगा, लेकिन डूप्ले के शहर पेरिस में इस बार कुछ ऐसा घटा कि लगा जैसे किसी ने इस शांत, शालीन शहर की जिंदगी ही छीन ली हो।

13 नवंबर की वह रात भूले नहीं भूलती। हम अपना काम खत्म करके भोजन की तलाश में निकले थे। कुछ साथी भारतीय साहित्यकारों के साथ हम उस शहर में भोजन के लिए निकले जहां रात को भी कभी खतरे का अहसास नहीं होता। हम मशहूर इलाके सौजेलिजे की ओर बढ़े। यह इलाका कुछ-कुछ दिल्ली के कनाट प्लेस जैसा है। खोज हुई किसी चीनी रेस्टोरेंट की, जो नजदीक में ही दिख गया। चूंकि हम काफी थके हुए थे लिहाजा यह तय हुआ कि पेरिस घूमने के बजाय होटल लौटकर आराम किया जाए। अभी हम रास्ते में ही थे कि एक समाचार वेबसाइट के जरिए मुझे न्यूज अलर्ट मिला...'टेरर अटैक इन फ्रेंच कैपिटल पेरिस'। खबर देखी ही थी कि हमारे एक फ्रेंच पत्रकार मित्र का फोन भी आ गया। दरअसल, वे हमारी सलामती के लिए चिंतित थे। पेरिस चाहे कितना भी उदार हो, हमारे लिए तो परदेस ही था। सो सुरक्षा के लिहाज से हमने तत्काल होटल की तरफ जाने की तैयारी कर दी। टैक्सी से हम आनन-फानन में होटल लौट आए। पेरिस के उस टैक्सी ड्राइवर को तब तक पता नहीं था कि ऐसा आतंकी हमला हो चुका था।

अपना वतन सबको प्यारा होता है... मुझे भी है, लेकिन भारत में रहते हुए भी मैं सोच सकता हूं कि फ्रांस के लिए यह हमला कितना भयावह है। मैं यहां से सोच सकता हूं कि फ्रांस के लोग दुख की इस घड़ी में भी हिंदुस्तानी मिजाज की तरह अफरातफरी से नहीं भरे होंगे। दुख को जज्ब करते हुए वे अपने काम में जुटे होंगे, लेकिन सवाल यह है कि मासूम लोगों के खूनों से अपने हाथ रंगने वाले इस मासूमियत पर कब ध्यान देंगे।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और समाजिक संस्था से जुड़े हैं...

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