नगर निगम में चुनाव में मिली करारी शिकस्त , लगातार हार और ईवीएम पर ब्लेम की राजनीति करने के बाद अब आम आदमी पार्टी के संयोजक व दिल्ली सीएम अरविंद केजरीवाल अपने पार्टी कार्यकर्ताओं या आमजन के सामने खुलकर अपनी राय नहीं रख रहे हैं. दरअसल तथ्य यह है कि केजरीवाल ने अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ बैठक की. आखिरकार, पार्टी का वोट प्रतिशत 50 फीसदी खिसक जाने के बाद आत्मनिरीक्षण की बात दबे जुबान से स्वीकार की है. पार्टी में उठापटक और इस्तीफों का दौर भी जारी है. मानसून से पहले पार्टी में कई नए घटनाक्रम देखने को मिल सकते हैं.
हो सकता है कि ईवीएम के साथ कुछ समस्याएं हों, फिर भी उन्हें दिल्ली, पंजाब और गोवा में हार के लिए AAP पूरी तरह से दोषी नहीं ठहरा सकती. यदि यह मान भी लिया जाए कि सत्तारूढ़ बीजेपी ने ईवीएम मशीन से छेड़छाड़ की है तो फिर पंजाब में उसको सत्ता से क्यों बाहर होना पड़ा? यह भी अविश्वसनीय है कि पंजाब में आम आदमी पार्टी की चुनौती को ध्वस्त करने के लिए ईवीएम में कांग्रेस को सत्ता देने और अकाली दल को दूसरे नंबर पर रखने के लिए उनसे छेड़छाड़ की गई. केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेताओं के इसी रुख के चलते पार्टी को इस साल कोई खास सफलता नहीं मिली. पार्टी ने खुद ही अपनी यह दुर्गति की है और इसके लिए पूरी तरह के केजरीवाल ही जिम्मेदार हैं.
याद कीजिये अगस्त 2011 की रविवार की दोपहर, जब लोग इंडिया गेट पर उमड़े थे और रामलीला ग्राउंड तक अन्ना हजारे के नेतृत्व में मार्च निकाला था. भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के प्रभाव को तो नहीं नकारा जा सकता. 2013 के दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत के रूप में इसका परिणाम नजर आया. कांग्रेस पार्टी का पूरा वोट तो 2015 में हुए चुनाव में AAP के पाले में चला गया जिसके चलते पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला. इस प्रचंड बहुमत में ही पार्टी के अब तक के खराब प्रदर्शन की नीव पड़ी.
वास्तव में, AAP की सुपर-क्लीन इमेज चुनाव बाद से ही धुंधली होने लगी थी. हालांकि शुरुआत में ज्यादातर लोगों का ध्यान इस पर नहीं गया. सबसे पहले पार्टी ने योगेंद्र यादव-प्रशांत भूषण गुट को बाहर का रास्ता दिखाया. यह पहला कदम था कि जो विरोध करेगा, वह पार्टी में नहीं रहेगा. पार्टी ने 2015 के चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस से आए कई उम्मीदवारों को थोक के भाव में टिकट बांटे. जाहिर है पार्टी की क्लीन इमेज को धक्का पहुंचना लाजिमी थी. हालांकि लोगों ने फिर भी भ्रष्टाचार मुक्त दिल्ली की आस में पार्टी का साथ दिया.
मुख्यमंत्री बनने के तत्काल बाद केजरीवाल ने लुटियन जोन में दिल्ली के लोगों से मिलने के लिए बंगला मागा जिसमें एक दर्जन से अधिक एसी लगे थे. बाद में उनके घर के बाहर धरना-प्रदर्शन होने लगे जिस पर मुख्यमंत्री ने प्रतिबंध लगा दिया. तो इस तरह से धरने से राजनीति की शुरुआत करने वाले केजरीवाल सत्ता में आते ही धरने के खिलाफ हो गए.
2015 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी का वोट शेयर लगभग आधा हो चुका है. पार्टी के कई विधायकों के खिलाफ केस दर्ज हुए हैं. वेगेनॉर कार की जगह महंगी एसयूवी गाड़ियों ने ले ली है. उपराज्यपाल से लगातार टकराव के बाद दिल्ली की एक अजीब हालात में फंस कर रह गई है. दिल्ली सीएम अरविंद केजरीवाल ने इसी बीच गोवा और पंजाब में भी पार्टी का विस्तार करने का फैसला किया. हालांकि पार्टी को निराशा ही हाथ लगी.
यदि केजरीवाल फिर से यहां या कहीं और सत्ता में आना चाहते हैं तो उन्हें हर समय राजनीति करना बंद करना होगा और गवर्नेंस पर ध्यान देना होगा. आपको दूसरे के साथ मिलकर काम करना होगा. दिल्लीवासियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सीवेज दिल्ली सरकार के अंतर्गत आता है और नालियां एमसीडी के तहत आती हैं. वे तो सिर्फ यह चाहते हैं कि काम होना चाहिए. यही बात सड़क और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए भी लागू होती है. इसलिए सबसे पहले आप सरकार को मिलजुलकर कार्य करने का पाठ सीखना होगा. आपको लोगों से मिलना होगा. क्या कोई बता सकता है कि विधायकों ने अपने क्षेत्र के लोगों से आखिरी बार कब मुलाकात की थी?
केजरीवाल और उनकी टीम को साफ शासन देकर लोगों का दुबारा भरोसा जीतना होगा. ऑनलाइन ड्राइविंग लाइसेंस अच्छा कदम है और उसे और भी बेहतर बनाया जाना चाहिए. AAP के पास अभी भी तीन वर्ष का समय बचा है. अगले चुनाव से पहले लोगों का विश्वास जीतने के लिए कठिन मेहनत करनी होगी.
(अनुवाद : चतुरेश तिवारी)
(आईपी बाजपेयी एनडीटीवी के वरिष्ठ सलाहकार हैं)
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This Article is From May 01, 2017
केजरीवाल की दिलचस्पी दिल्ली में नहीं और दिल्लीवासियों की अरविंद में नहीं!
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