ज़रूरी है कि जो हुआ है उस पर शांत स्वर में बात की जाए. जिस तरह से शाहीन बाग़ को तेज़ी से शत्रु और गद्दार के रूप में चित्रित किया जाने लगा था वो उसी ज़हर का हिस्सा है जो कई महीनों से फैलाया जा रहा था. नेताओं के बयानों ने माहौल बनाया है कि ऐसा सोचा जाना ऐसा बोला जाना ग़लत नहीं है. जिस तरह से एक समुदाय विशेष को लेकर ज़हर उगल रहा है उसके असर में यह स्वाभाविक है कि कोई नौजवान उसकी चपेट में आ जाए. जब पूरा सिस्टम इस तरह की सोच को आगे जाने का रास्ता देने लगे तब किसी के भीतर से भी यह डर खत्म हो सकता है कि ऐसा करने से समस्या हो सकती है. गोली मारने के नारों के ज़रिए उस ज़हर को एक्शन के लिए इशारा कर दिया गया है जो मीडिया व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी और नेताओं के बयानों के ज़रिए घर घर पहुंचा दिया गया है. वर्ना 17 साल का किशोर एक बार सोचता कि उसकी पीठ के पीछे पुलिस बल खड़ा है. सामने छात्र खड़े हैं. होली फैमिली अस्पताल के सामने वो आता है पिस्तौल लहराता है और गोली चला देता है.
मीडिया ने इसे आतंकवादी कहने की कोई जल्दबाज़ी नहीं की. आतंकवादी का बदनाम विशेषण गोपाल या देवेंद्र के लिए नहीं है. दिन में पता चला कि इसका नाम राम भक्त गोपाल शर्मा है. दिन भर टीवी पर चला लेकिन बाद में सूचना आई कि नाबालिग है तो हम इसका नाम नहीं लेंगे. चेहरा पूरा नहीं दिखाएंगे. यह कानून है. इसलिए हम उसे रामभक्त कहेंगे क्योंकि उसने अपने नाम के आगे रामभक्त लगाया है. आज पूरे दिन मुझसे किसी ने नहीं कहा कि इसे आतंकवादी लिखो. आतंकवादी अब खास समुदाय के किसी भी अपराधी के लिए है. व्यापक समाज यह सब देखते हुए भी नहीं देख रहा है. यह भी नहीं देख रहा है कि जो लड़का पिस्टल लेकर पुलिस और छात्रों के बीच आ गया वो उन्हीं के घर का लड़का है. व्यापक समाज व्हाट्एसएप यूनिवर्सिटी के मैसेज देखकर इसे सही बताने में जुट गया होगा. इसी तरह धीरे-धीरे आप लोकतंत्र हारते जा रहे हैं. अगर इससे आपको आपके बच्चों को फायदा हो रहा है तो बताया कीजिए. मुझे नहीं, रिश्तेदारों को.
अब आप आराम से उस वीडियो दोबारा देखिए. यहां पुलिस कितने अनुशासन से खड़ी है. बंदूक वाला राम भक्त नौजवान छात्रों और पुलिस के बीच आराम से खड़ा है. पुलिस भी आराम से खड़ी है. उस तरह से हमलावर नहीं है जिस तरह से 14 और 15 दिसंबर को पुलिस ने इस जगह पर गोली चलाई थी. गोली चला देने के बाद पुलिस आती है और आराम से उसके हाथ से पिस्तौल ले लेती है और गोपाल बिना किसी धक्का मुक्की के पुलिस के हवाले हो जाता है.
क्या आप उस विचारधारा पर बात करना चाहेंगे जो आपके और आपके बच्चों के व्हाट्सएप में पांच साल से पहुंचाई जा रही है जिसे दिन रात आप सही ठहराते हुए, हर तरह की हिंसा और संस्थाओं के पक्षपात को सही मानने की ज़िद पर अड़े हैं. एक दिन आपका बच्चा अगर ऐसा कर बैठा तो क्या करेंगे, जिसे आप आज तक सही कहते आ रहे हैं क्या उस दिन भी सही कहेंगे.
राम भक्त के फेसबुक पर दो दो प्रोफाइल मिले हैं. दोनों ही पेज पर राम भक्त बजरंग दल का बताया है. 2018 वाले पेज पर खुद को बीजेपी बजरंग दल और आरएसएस का सदस्य बताता है. एक तस्वीर में बजरंग दल का संयोजक बताता है. कभी नकाब में है कभी नकाब की ज़रूरत ही नहीं. 2019 वाली प्रोफाइल में कई तस्वीरों में तलवार और बंदूक के साथ है. एक साल में बदल जाता है. इन तस्वीरों से आप राम भक्त जैसे नौजवानों को समझ सकते हैं. फेसबुक और ट्विटर की दुनिया में राम भक्त अकेला होता तो इन तस्वीरों को खास तवज्जो नहीं देता. लेकिन राम भक्त को समझने के लिए ये तस्वीरें महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं. आप सोशल मीडिया में देखेंगे और जानते भी हैं आप, कि ऐसी छवियों में खुद को दिखाने वाले बहुत से राम भक्त हैं. यह लड़का अच्छा हो सकता था. यह अपने लिए शानदार भविष्य चुन सकता था मगर जिस ज़हर की बात कर रहा हूं वो ऐसे युवाओं में काफी भीतर तक घुस गया है. अब उसके बाहर आने का समय है. आया भी. एक वीडियो मिला जिसमें राम भक्त बंदूक लेकर गर्व के साथ घूम रहा है. गाना बज रहा है कि हम हैं महाराणा प्रताप के नाती, पीतल से भर दें छाती.
राम भक्त ने शायद ही कभी महाराणा प्रताप पर एक किताब पढ़ी हो लेकिन उस जैसे नौजवानों के मन में ज़हर के साथ महाराणा का आधा अधूरा इतिहास भर दिया गया है. महाराणा की वीरता की गरिमा और महानता बंदूक और तलवार की तस्वीरों में नहीं है. जिन नौजवानों के गले में डॉक्टरी का आला होना चाहिए वो गोलियों की माला पहन कर धीरे-धीरे उस ज़हर को राष्ट्रवाद के नाम पर पी रहे हैं और पिलाएं जा रहे हैं जिसका अंजाम यही है. इस दिल्ली में एक महीना पहले नकाब पहन कर गुंडे हॉस्टल में घुस गए, उन सबको जाने दिया गया. कोई गिरफ्तार नहीं हुआ. दो दिन पहले शाहीन बाग में भी कोई पिस्टल लेकर आया और अब एक और आ गया है. सवाल है कि राम भक्त जैसों को गोली मारने या किसी को जो उसकी समझ से अलग बात कह रहा है गाली देने, ललकारने का साहस कहां से मिलता है. दिल्ली में जिस तरह से शाहीन बाग को शत्रु के रूप में चित्रित किया गया, बड़े बड़े नेताओं के द्वारा, गृहमंत्री अमित शाह करंट पहुंचाने का बयान दे रहे हैं, वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर गोली मारने के नारे लगवा रहे हैं, सांसद प्रवेश वर्मा शाहीन बाग के लोगों को दिखा कर कह रहे हैं कि लाखों लोग घरों में घुस कर बेटियों को उठा ले जाएंगे. बलात्कार करेंगे और मारेंगे.
याद कीजिए जब अनुराग ठाकुर का बयान आया था तब मैंने प्राइम टाइम में इस खतरे की तरफ इशारा किया था जिसे राम भक्त ने आज सच कर दिया. 30 जनवरी गांधी की हत्या का दिन है. मरते-मरते गांधी ने हे राम कहा था. गोड्से को देशभक्त कहने वालों के बीच कोई राम भक्त आ गया. आप अपने नेताओं से आग्रह करें कि भाषा बदलें. उनकी भाषा राम भक्त जैसे युवकों को यह संकेत दे रही है कि गोली चलाना अधिकार की बात है.
यह वही ज़हर है जिससे लैस भीड़ ने इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह को मार दिया. इंसाफ़ नहीं मिला. यह वही भीड़ है जो पहलू खान को मार देती है. यह वही भीड़ है जिसने असम में अभिजीत नाथ और निलोत्पल दास को मुसलमान समझ कर मार दिया. जब आपको बताया जाता है कि नागरिकों के एक हिस्से की पहचान कपड़े से करें, मज़हब से करें, खुल कर उसके मोहल्लों को पाकिस्तान कहने लगें, गद्दार कहें तो आप कहते देखते भीड़ में बदलने लगते हैं. मुमकिन है इस ज़हर से लैस कोई किशोर उम्र का बंदूक उठा ले और हत्यारा बन जाए. मैं आपको गांधी जी की बात बताता हूं. 1946 के साल में इसी तरह की गरमी चढ़ने लगी थी. ठीक आज की तरह बात-बात में गांधी को मुसलमान कहा जाने लगा था. मुसलमान बता कर किसी को मारने की सोच आज की नहीं है. आज इसने अपना रूप बदल दिया है. गांधी की हत्या नहीं होती अगर उस समय की पुलिस ने गंभीरता से लिया होता, आज जामिया में पुलिस ने गंभीरता से लिया होता तो शादाब के हाथ में गोली नहीं लगती. आपको लगेगा कि मैं भाषण दे रहा हूं, बिल्कुल नहीं. 9 अप्रैल 1947 को बापू अपनी प्रार्थना सभा में कहते हैं, 'चिट्ठियां भेजनेवालों में एक आदमी लिखता है कि तुम्हें मुहम्मद गांधी क्यों न कहा जाए? और फिर बड़ी ख़ूबसूरत गालियां दी हैं जिन्हें यहां दुहराने की ज़रूरत नहीं है. गाली देने वालों का जवाब न दिया जाए तो वह एक, दो, तीन या अधिक बार गाली देकर थक जाएगा. थक कर या तो चुप हो जाएगा या और गुस्से में आकर मार डालेगा.'
गुस्से में आकर गोड्से ने गांधी को मार दिया. गांधी की दूसरी आशंका सही निकली. वही सोच, वही गालियां जो पढ़ी नहीं जा सकती थी आज दिन भर लाखों पन्नों पर लिखी जा रही हैं. आप आसानी से समझ जाएंगे कि कौन लोग हैं, किस तरफ के लोग हैं जो इन गालियों को लिख रहे हैं. उस वक्त बापू को इसी तरह पाकिस्तान का हमदर्द, जिन्ना की औलाद कहा जाता था. 30 जनवरी को ही गोपाल आया है. आज फिर गांधी पर गोली चली है. आप नहीं समझेंगे क्योंकि ज़हर का असर अभी गहरा है. बस अपने बच्चों को समझना शुरू कर दीजिए कि वे कहीं राम भक्त और गोड्से तो नहीं बन रहे हैं. उससे पहले खुद को समझिए कि कहीं आप राम भक्त तो नहीं बन गए हैं. मैं करोड़ों लोगों तक तो नहीं पहुंच सकता, अगर पहुंच सकता तो यही कहता जो कह रहा हूं.
आज की घटना में जिसे गोली लगी उसका नाम शादाब फारूख़ है. कश्मीर का छात्र है. राम भक्त गोली चलाने निकला तो शादाब रोकने आ गया. राम भक्त ने गोली चला दी. शादाब घायल हो गया. शादाब सुरक्षित है. एम्स में इलाज हो रहा है. बायें हाथ में गोली लगी थी. दो हड्डियों के बीच गोली फंस गई थी. एक और तस्वीर है जिसमें किसी की हथेली किसी के खून से सन गई है. आपके घरो में फैला ज़हर किसी के लिए वोट तो बना रहा है, मगर इन नौजवानों की हथेली को गोली से छलनी कर रहा है.
गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि गोली चलाने वाले को छोड़ा नहीं जाएगा. उसे बख्शा नहीं जाएगा. कड़ी कार्रवाई का आश्वासन आया है. जेएनयू के मामले में नकाब पोश आज तक पकड़े नहीं गए हैं. मैं जिस ज़हर की बात कर रहा हूं उसे सांप्रदायिकता कहते हैं. जब आप भारत के नागरिकों की तरफ इशारा करते हुए उन्हें पाकिस्तान कहें, गद्दार कहें और वो हर बार मुसलमान ही हों तो आप आज मत सोचिए, जब आपके घरों से राम भक्त जैसे किशोर निकलेंगे उस दिन सोचिएगा. ये सोचिए कि इस राजनीति से आपके नौजवानों को ऐसी छवि मिल रही है. पांच साल से व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से फैलाए जा रहे ज़हर की बात कर रहा हूं. राम भक्त के पेज से एक पोस्ट मिला है, ऐसे अनेक पोस्ट व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में घूमते मिल जाएंगे. एक साल पहले इस नौजवान के पेज पर वैसी बातें दिखती हैं जिनमें झूठ और नफरत के सामान हैं. एक साल बाद उसके पेज पर बंदूक वाली तस्वीरें मिलनी शुरू होती हैं. कुछ महीनों बाद वो गोली चला देता है. उसका पोस्ट आपके लिए पढ़ रहा हूं, 'बात इंकलाब की है तो महासंग्राम कर देंगे, तुम्हारी आंख के सामने सुबह को शाम कर देंगे, ये हरे गमछे सफेद टोपी हमें क्या दिखाते हो, हम भगवा बांध कर निकलेंगे तो कोहराम कर देंगे. जय श्री राम, जय हिन्दुत्व.'
राजनीति हिन्दी प्रदेश के ग़रीब घरों के नौजवानों के दिमाग़ में ज़हर घोले बग़ैर भी हो सकती है. मगर हो नहीं रही है. यह मान लिया गया है कि व्यापक समाज इस ज़हर को राष्ट्रवाद समझने लगा है. उसी का असर है कि आज ट्विटर पर नाथूराम गोड्से के पक्ष में ट्रेंड करने लगा है. नाथूराम गोड्से की बात करने का अधिकार और स्पेस किसके दम पर बन रहा है आप समझ सकते हैं.
यह जानते हुए भी कि आज के दिन प्रधानमंत्री मोदी राजघाट गए थे, श्रद्धांजली देने. देश का हर बड़ा नेता बापू को नमन करने जाता है. प्रधानमंत्री भले प्रज्ञा ठाकुर को पार्टी से नहीं निकाल सके लेकिन मन से माफ न करने की बात तो कही ही थी. आधिकारिक रूप से कोई भी बापू के हत्यारे के साथ खड़ा नहीं है. हो ही नहीं सकता है लेकिन ऐसा नहीं है कि गोड्से के साथ खड़े लोग कम हो गए हैं. ट्विटर से लेकर फेसबुक पर गोड्से के लिए 30 जनवरी और 2 अक्तूबर को ट्रेंड कराने आ जाते हैं. गोड्से को महान देशभक्त बनाने आ जाते हैं. ट्विटर पर उनके प्रोफाइल को देखिए. वही प्रतीक, वही नेता और वही झंडे नज़र आते हैं. इन्हीं में से कोई निकल कर जामिया चला जाता है. पिस्तौल लेकर. क्या अब भी आप मेरी बात नहीं सुनेंगे. मुझे पता है आप नहीं सुनेंगे. दस साल बाद जब खंडहर की वीरानी पर अफसोस करेंगे तब उस दिन मेरे ये प्रोग्राम आप अकेले में मोबाइल फोन पर देखा करेंगे, रोया करेंगे. याद रखिएगा.
प्राइम टाइम के शुरू में नमस्कार के बाद मेरी पहली लाइन याद कीजिए. ज़रूरी है कि जो हुआ है उस पर शांत स्वर में बात की जाए. आपकी दिल्ली बदल गई है. अब चीखने से क्या फायदा. देर तो बहुत हो चुकी है. यहां की सड़कों पर पिस्टल लेकर घूमने वाले आ गए हैं. वोट के लिए नहीं आए हैं. वो अब आपके पड़ोस में रहने लगे हैं. आप ही तो चुप थे. आप ही तो हां में हां मिला रहे थे. इसी तरह तो 1948 तक आते आते वो शख्स अकेला हो गया था. जिनके साथ वो 30 साल तक अहिंसा को लेकर संघर्ष करता रहा उन्हें के बीच अजनबी हो गया था. हिन्दू और मुसलमान की सनक सवार हो गई थी. उसी दिल्ली में. इसी दिल्ली में. 1948 में. 2020 में. दिल्ली को बधाई क्योंकि वह शांत रही. मगर नेता इस हंगामे में भी गरम ज़ुबान में बोलते रहे. सांसद प्रवेश वर्मा केजरीवाल को आतंकवादी बोलते रहे. किसी ने यह थ्योरी मतदान से पहले साबित कर दी है कि इस भाषा से दिल्ली बदल जाती है. वोट मिलने लगता है. लेकिन वोट सिर्फ इसी भाषा से मिलते हैं?
बिहार के गोपालगंज में एक गांव है जिगना. इस गांव एक लोककलाकार थे रसूल मियां. भिखारी ठाकुर की तरह लोकप्रिय. रसूल मियां राम और गांधी को लेकर रचा करते थे. उनके गीतों में आज़ादी, चरखा और सुराज आता था. राम का सेहरा लिखा है रसूल मियां ने. गमकता जगमगाता है अनोखे राम का चेहरा. राम का चेहरा अब भी चमक रहा है उसके बाद भी जब जामिया की सड़क पर लड़का बंदूक लहरा रहा था, खुद को रामभक्त बता रहा था. गांधी की जब हत्या हुई तब रसूल मियां कोलकाता में थे. सुभाष चंद कुशवाहा जी ने अपनी पत्रिका लोकरंग में रसूल मियां को पाठकों के सामने लाया था. उनके इस गीत को सुनिए. चंदन तिवारी ने गाया है आप दर्शकों के लिए. चंदन की आवाज़ गांधी के पदचाप की तरह सुनाई देती है. आप सुनिएगा उस आवाज़ को. भोजपुरी में है. समझना आसान है. आप जानते हैं कि मेरी मातृभाषा भोजपुरी है. हिन्दी नहीं है. इस गाने में रसूल मियां कहते हैं कि मेरे गांधी को किसने गोली मार दी. तीन तीन गोली मारी. कल ही तो आज़ादी मिली थी, आज ही गोली मार दी. ज़रा सा टीवी का वाल्यूम तेज़ कर दीजिए. आपको गांधी जाते हुए दिखाई देंगे. गोड्से आता हुआ दिखाई देगा.
के हमरा गांधी जी के गोली मारल हो
धमा धम तीन गो
के हमरा गांधी जी के गोली मारल हो
धमा धम तीन गो
काल्हूए आज़ादी मिलल
आज चलल गोली
गांधी बाबा मारल गइले
देहली के गली
अरे काल्हुए आज़ादी मिलल
आज चलल गोली
गांधी बाबा मारल गइले
देहली के गली
धमा धमा तीन गो
के हमरा गांधी जी के
गोली मारल हो
धमा धम तीन गो
पूजा जात में जात रहले
बिड़ला भवन में
दुश्मन बैठल रहल
पाप लेकर मन में
पूजा में जात रहले
बिड़ला भवन में
दुश्मन बैठल रहल
पाप लेकर मन में
अरे गोलिया चलाके
बनल चाहल बली
धमा धमा तीन गो
के हमरा गांधी जी के गोली मारल हो
धमा धम तीन गो
कहत रसूल सो
सबका के दे के
कहा गइले मरल
अनार के कली
धमा धम तीन गो
के हमरा गांधी जी के गोली मारल हो
धमा धम तीन गो
धमा धम तीन गो
धमा धम तीन गो
धमा धम तीन गो।।
चंदन तिवारी ने जब भेजा तो पहली बार सुन कर गला भर आया. टीवी पर देखकर आंखें भर आईं. गांधी इस देश का ईमान हैं. जब बहुत झूठ फैल जाता है तो गांधी किसी के भीतर आ जाते हैं. कमेडियन कुणाल कामरा ने एक वीडियो पोस्ट किया था. मुंबई से लखनऊ जा रहे इंडिगो विमान के भीतर अर्णब गोस्वामी से कुणाल सवाल पूछने लगते हैं और अर्णब नोटिस भी नहीं करते हैं. इस वीडियो के बाद बहस छिड़ गई कि कुणाल ने सही किया या नहीं. एक राय कहती है कि गलत किया. दूसरी राय पुराने उदाहरणों को दिखा कर कहती है कि कुछ भी ऐसा नहीं किया. कुणाल कामरा ने कहा कि उसने अर्णब गोस्वामी से बात करनी चाहिए, वे फोन पर थे. फोन खत्म होने के बाद फिर बात शुरू की तो बात नहीं की. तब कुणाल ने बताना शुरू किया कि वह उनकी पत्रकारिता के बारे में क्या सोचते हैं तो अर्णब ने कहा कि उसका मानसिक रूप से संतुलन बिगड़ा हुआ है. फिर सीट बेल्ट के साइन आ गए. तब वह एयर होस्टेस के कहने पर तुरंत अपनी सीट पर बैठ गया. उड़ान भरने के बाद कुणाल फिर से अर्णब के पास गए. जब अर्णब ने बात नहीं कि तब मैंने वो किया जो रिपब्लिक टीवी के पत्रकार लोगों के प्राइवेट स्पेस में घुस कर करते हैं. मुझे इसका अफसोस नहीं है. अगर मैं क्रिमिनल हूं तो वो भी क्रिमिनल है. कुणाल ने अपने बयान में कहा है कि मैंने किसी भी तरह से गतिरोध पैदा नहीं किया न ही कैबिन क्रू या कप्तान की बात को टाला. न ही मैंने किसी तरह से यात्रियों को जोखिम में डाला. सिर्फ यही नुकसान किया कि एक पत्रकार के अहं को नुकसान पहुंचाया जिसका अफसोस नहीं है. मैंने सभी क्रू के सदस्यों से माफी मांगी. दोनों पायलट से भी माफी मांगी. मुझे नहीं लगता कि मैंने कोई अपराध किया है. मेरी बहादुरी की भी बात नहीं है. मैं सभी यात्रियों से भी माफी मांगता हूं, सिर्फ एक को छोड़ कर. कुणाल इस वीडियो में कह रहे हैं कि आपने रोहिता वेमुला की जाति पर सवाल उठाया था, आपको इंसान बनने के लिए उसका सुसाइड नोट पढ़ना चाहिए. इस बहस से अलग जिस तरह से विमान कंपनियों ने कुणाल कामरा को छह महीने के लिए उड़ान भरने से बैन किया है उसे लेकर बहस हो गई है. विमान के भीतर यात्री का व्यवहार कैसा हो इसके नियम है. नियमों के तहत दोष साबित करने की प्रक्रिया है. क्या उनका पालन हुआ अब इस पर बहस हो रही है.
बिना किसी प्रक्रिया का पालन किए कुणाल को इंडिगो ने छह महीने के लिए उड़ान भरने से बैन कर दिया. जबकि रिटायर्ड जज से जांच होनी चाहिए. विमान मंत्री हरदीप पुरी को टैग करते हुए बाकी एयरलाइन्स ने भी कुणाल को बैन करना शुरू कर दिया. डर के कारण सिस्टम के भीतर से आने वाली आवाज़ थम गई. मगर गांधी का ईमान एक पायलट में लौट आया जो उस विमान को उड़ा रहा था. कैप्टन रोहित मटेटी से झूठ बर्दाश्त नहीं हुआ. कैप्टन ने एक मेल कर दिया और बता दिया कि कुणाल ने कत्तई बदतमीज़ी नहीं की थी. लंबे ईमेल में कैप्टन रोहित ने पूरी कहानी का पक्ष रखा है. जब स्टाफ ने कामरा से बैठने के लिए कहा तो कामरा ने माफी मांगी और सीट पर बैठ गए. उसके बाद पूरी फ्लाइट में सीट के सिग्नल आन रहे. जब सर्विस शुरू हुई कामरा अर्णब के पास गए. यह पता चलते ही सर्वेलेंस कैमरा ऑन किया तो देखा कि कामरा अर्णब गोस्वामी को इशारा कर कुछ कह रहे हैं. अर्णब जवाब नहीं दे रहे हैं. जब फ्लाइट से लोग उतर गए तो कामरा ने पायलट से मिलने की अनुमति मांगी और मिलकर माफी मांगी. मैंने पूछा कि क्या आपका इश्यू राजनीतिक था तो जवाब था हां. मैंने उसे सलाह दी कि हर किसी का अपना मत होता है लेकिन उसे व्यक्त करने की जगह होती है. उसका एक समय होता है. फ्लाइट के दौरान ऐसा करना सही नहीं थी. कुणाल ने मेरी बात मानी और शुक्रिया कह कर प्लेन से उतर गए. कुणाल का बर्ताव स्वीकार करने लायक नहीं था. मगर हर बार कुणाल कामरा ने क्रू की बात मानी. कुछ समय के लिए उसका व्यवहार लेवल वन के अनुसार था. पर वो उसने तुरंत क्रू की बात भी मानी. कभी भी रेड वार्निंग कार्ड नहीं दिया गया. इसलिए उसे लेवल वन के अपराध में शामिल नहीं किया जा सकता है. स्थिति सामान्य हो गई.
पायलट का ईमेल साहसिक है. गांधी की तरह भीड़ के सामने खड़ा होकर सच बोल देने का साहस है उसमें. किसी भी लिहाज़ से रोहित मटेटी का ईमेल ऐतिहासिक है. यह पत्र लाखों युवाओं के लिए प्रेरणा बनेगा. सरकार के भीतर चुपचाप गलतियों को सहन करने वाले ईमानदार अफसरों को आवाज़ देगा. कैप्टन रोहित ने लिखा है कि 'हम सभी पायलट इसकी गवाही दे सकते हैं कि इस तरह के कई मामले हुए हैं जिन्हें कभी सजा के लायक नहीं माना गया. मुझे जानकर दुख हुआ कि मेरी एयर लाइन ने सोशल मीडिया के पोस्ट के आधार पर एक्शन ले लिया. पायलट से बात तक नहीं की. 9 साल से जहाज उड़ा रहा हूं. यह अप्रत्याशित है. क्या मुझे यह समझना चाहिए कि हाई प्रोफाइल केस में दुर्व्यवहार को सहने की छूट है? तब तो इसका ज़िक्र मैन्युअल में नहीं होना चाहिए. मैं इस पर अपनी एयरलाइन से इसकी सफाई चाहूंगा.
ये है अंतरात्मा की आवाज़. ये है गांधी की आवाज़. 30 जनवरी को सिर्फ गोली चलाने वाला सामने नहीं आया. सच बोलने वाला भी आया. कैप्टन रोहित मटेटी को सलाम भेजिएगा.