इरोम शर्मिला : आजादी के आइने में झांकता मणिपुर

इरोम शर्मिला : आजादी के आइने में झांकता मणिपुर

इरोम शर्मिला (फाइल तस्वीर)

यदि मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला ने अपने 16 साल से जारी भूख हड़ताल को खत्म करने की तारीख को पांच दिन आगे बढ़ा दिया होता, तो देश की स्वंत्रता दिवस के साथ उसका एक सुखद संयोग बैठ सकता था. यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो निश्चित रूप से उसके पीछे कोई सोचा-समझा विचार जरूर होगा.

शायद यही विचार हो कि वे अपने इस सत्याग्रह की समाप्ति को आजादी के दिन से जोड़कर अपनी मांग के पूरे होने का प्रतीकात्मक अर्थ नहीं देना चाहती हों. वैसे भी मणिपुर को सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफ्स्पा) से मुक्त करने की उनकी एकमात्र मांग को एक आजाद देश ने अपने एक संघात्मक स्वरूप में मानी भी कहां है. इसलिए इरोम ने अपने इस संघर्ष को जारी रखने का फैसला किया है, लेकिन एक बदले हुए रूप में. अब वे अपनी इस लड़ाई को लोगों के बीच सक्रिय होकर लोकतांत्रिक पद्धति से यानी कि चुनाव के जरिये लड़ेंगी, बजाय एक कमरे में लगे एक बिस्तर में पड़े रहने के.

निश्चित रूप से इरोम का यह फैसला न केवल देश के लिए, बल्कि उनके अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भी अधिक व्यावहारिक सिद्ध होगा. इससे जहां बातचीत के द्वारा समस्या के समाधान के लिए सहमति की संभावनाएं बढ़ेंगी, वहीं इरोम लोगों के बीच जाकर उनमें एक सकारात्मक सोच एवं रचनात्मक ऊर्जा भी पैदा कर सकेंगी.

यहां गौर करने की बात यह है कि उनकी मांग न तो उग्रवादी विचारों से प्रेरित है, और न ही उससे किसी प्रकार की अलगाववादिता की बू आती है. यदि ऐसा होता, तो वे मणिपुर विधानसभा के अगले साल होने वाले चुनाव में भाग लेने की इतनी स्पष्ट घोषणा नहीं करतीं. यदि सैद्धांतिक रूप से देखा जाए, तो उनका मकसद मणिपुर के 30 लाख लोगों को एक प्रकार के उस सैन्य कानून से आजाद कराने की है, जिसे ब्रिटिश सत्ता ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए एक अध्यादेश के रूप में जारी किया था.

ज्ञातव्य है कि संविधान लागू होने के बाद से ही पूर्वोत्तर राज्यों में अलगाववादी गतिविधियां शुरू हो गई थीं. इसी से निपटने के लिए मणिपुर में 1958 में तथा 1972 में इसमें कुछ संशोधन करके इसे लगभग पूरे उत्तर-पूर्वी राज्यों में लागू कर दिया गया था.

दुर्भाग्य की बात यह रही कि अन्य राज्य तो इस कानून से मुक्त होते रहे, लेकिन मणिपुर नहीं. सरकार चाहती तो यही है कि वहां से इस कानून को हटाया जाओ, जो सेना को एक प्रकार से 'तानाशाही तुल्य' अधिकार देती है. इससे न केवल नागरिकों के मूल अधिकारों का ही हनन होता है, बल्कि अधिकांश शांतिप्रिय लोग एक अनजाने से आतंक के साये में जीने को मजबूर रहते हैं. इस भय को मैंने 28 साल पहले तब महसूस किया था, जब सरकारी नौकरी में आने के बाद हम लोग पहली बार उत्तर-पूर्व राज्यों की यात्रा पर एल.टी.सी. के अंतर्गत गए थे. हम लोगों को गेस्ट हाउस से बाहर अकेले निकलने की इजाजत नहीं थी.

दरअसल, वहां के इस भय का सच क्या है, कहना मुश्किल जान पड़ता है। केंद्र सरकार ने इसके लिए 10 साल पहले जीवन रेड्डी समिति और वर्मा समिति बनाई थी. दोनों ने अपनी रिपोर्ट में वहां तैनात सुरक्षा बलों पर काफी गंभीर आरोप लगाए थे, लेकिन केंद्रीय खुफिया रिपोर्ट कहती है कि अधिकतर ऐसे आरोप अलगाववादियों के इशारे और दबावों के कारण लगाए जाते हैं. हां, तीन-चार प्रतिशत आरोप सच अवश्य होते हैं.

सच चाहे जो भी हो, लेकिन तब, जबकि पूरा देश अपने 70वें स्वतंत्रता दिवस का उत्सव पूरे जोश-खरोश के साथ मना रहा है, इस सवाल पर पूरी गंभीरता के साथ प्राथमिकता के आधार पर विचार किया ही जाना चाहिए कि 'आखिर क्यों किसी राज्य को इतने लंबे समय तक लगातार सैन्य प्रशासन के अंतगर्त रखना पड़ रहा है?' नागरिक प्रशासन की बहाली के बिना किसी को भी आजादी का एहसास नहीं कराया जा सकता.

इस मामले पर हाल ही में दिया गया सर्वोच्च न्यायालय का वक्तव्य इस प्रक्रिया को तेज करेगा, ऐसी आशा की जा सकती है। इस बार का यह स्वतंत्रता दिवस एक ऐसा अच्छा अवसर है, जब मणिपुर की जनता भी शर्मिला इरोम जैसों के नेतृत्व में लोकतांत्रिक पद्धति से इस समस्या के समाधान के लिए तैयार हो सकती है.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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