अरुंधती रॉय देश की उन गिनी-चुनी हस्तियों में हैं, जिन्होंने लेखक के तौर पर अंतरराष्ट्रीय मुकाम हासिल किया, लेकिन वह फेसबुक या ट्विटर समेत किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नहीं हैं, इसीलिए जब अरुंधती के खिलाफ परेश रावल ने रविवार शाम को टिप्पणी की तो उसका जवाब उनकी ओर से नहीं आया. हालांकि बाद में अरुंधती ने NDTV इंडिया से कहा कि इस ट्वीट का जवाब देने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है.
अरुंधती रॉय ने '90 के दशक में 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' लिखकर ख्याति हासिल की थी. कहानी के प्रवाह और भाषा के जादू के लिए 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' को आज दुनिया के जाने-माने उपन्यासों में गिना जाता है, और वर्ष 1997 में रॉय को इसके लिए प्रतिष्ठित बुकर सम्मान भी मिला था. अगर रॉय वैसा ही लेखन करती रहतीं, तो शायद आज भारतीय मध्यवर्ग की आंखों का तारा होतीं, लेकिन बुकर मिलने के एक साल बाद ही उन्होंने एक ऐसा लेख लिख दिया, जिससे उनके बारे में कई लोगों की धारणा बदल गई. उनकी नज़रों में अब अरुंधती प्रवाहमयी भाषा और शब्दों के जादू की साम्राज्ञी ही नहीं रहीं, वह तिरंगे और देश की संप्रुभता को ललकारने वाले लेखक भी बन गईं.
अरुंधती का वह लेख था – 'द एंड ऑफ इमेजिनेशन' - इसमें उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के पोखरण परमाणु विस्फोटों की कड़ी आलोचना की. इस लेख के बाद अरुंधती ने वर्ष 2002 में नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थन में एक लंबा लेख लिखा - 'द ग्रेटर कॉमन गुड'. इस लेख के पक्ष और विपक्ष में तीखी बहस शुरू हुई. बुकर विजेता अरुंधती के इस लेख ने जहां एक ओर नर्मदा पर बन रहे सरदार सरोवर बांध समेत तमाम बांधों के प्रभावों पर दुनिया का ध्यान खींचा, वहीं उनकी काफी आलोचना भी हुई.
लेखक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने उन पर अतिशयोक्ति अलंकार का इस्तेमाल करने और तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का आरोप लगाया. गुहा ने 'अरुण शौरी ऑफ लेफ्ट' शीर्षक से एक लेख लिखा और कहा कि अरुंधती रॉय दक्षिणपंथियों की तर्ज पर वामपंथी अतिवादियों की तरह हैं. पत्रकार हरतोश सिंह बल ने अपनी बेहतरीन किताब 'वॉटर्स क्लोज़ ओवर अस' में बांधों के प्रभाव और उससे होने वाले विस्थापन पर अरुंधती के गणित पर सवाल उठाया, लेकिन यह माना कि उनके लेखन से पूरे आंदोलन में नई ऊर्जा आ गई.
अरुंधती रॉय ने इसके बाद इंदिरा सागर बांध से डूब रहे शहर हरसूद की कहानी लिखी, जो काफी चर्चित रही. अचानक दुनिया के कैमरे वहां पहुंचने लगे. फिर तो अरुंधती की कलम से दूर-दराज़ के गांवों की कहानियां लिखने का सिलसिला ही शुरू हो गया. वह अचानक मध्यवर्ग की परीकथा लेखिका से हटकर एक ऐसी लेखिका बन गईं, जो शहरी लोगों को विकास की राह में रोड़ा दिखतीं.
अरुंधती के खिलाफ असली गुस्सा तब फूटने लगा, जब उन्होंने वर्ष 2001 में संसद पर हुए हमले की सच्चाई पर सवाल उठाए. उन्होंने मोहम्मद अफज़ल गुरु के बचाव में लिखा और तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी पर सवाल उठाए. इसके बाद वर्ष 2002 में गुजरात के दंगों और वर्ष 2009 में बस्तर में शुरू किए गए 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' की वजह से वह चर्चा में रहीं. तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदम्बरम को उन्होंने बस्तर में चल रही जंग का सीईओ कहा. वर्ष 2010 में उन्होंने 'वॉकिंग विद द कॉमरेड्स' लिखा. बस्तर के माओवादियों के साथ बिताए वक्त का लेखा-जोखा. यह लेख वामपंथी विचारक सतनाम के 'जंगलनामा' के काफी करीब दिखता है. अरुंधती के लेख किताबों की शक्ल में आते रहे और दुनिया में उनकी बिक्री के रिकॉर्ड बनते रहे.
जब 2011 में अरुंधती रॉय मुझे इंटरव्यू देने को तैयार हुईं, तो उन्होंने साफ कहा कि उनके लिए लोगों की नफरत सिर्फ शहरी इलाकों तक सीमित है. "गांव देहात या देश के दूर दराज के इलाकों में मैं जहां भी जाती हूं, लोग मुझे बड़े प्यार से मिलते हैं... गले लगाते हैं..."
"देश में लोग आपसे क्यों चिढ़ते हैं...?" यह पूछने पर वह अक्सर कहती रही हैं कि "आपके देश की परिभाषा कुछ शहरी लोगों तक ही सीमित है..."
अरुंधती के सभी विचारों से सहमत नहीं हुआ जा सकता. असल में उनके आलोचक कई बार उसी धारा के होते हैं, जिसकी वह वकालत करती हैं. कई लेखक, इतिहासकार और पत्रकार उनकी कड़ी आलोचना कर चुके हैं और उनके साथ असहमति जताते हैं. उन पर अतिशयोक्ति के इस्तेमाल, लोगों को आक्रोशित करने वाले और सनसनीखेज़ लेखन के आरोप लगते रहे हैं. उनके कई साथी कहते हैं कि वह तथ्यों को ठीक तरीके से पेश नहीं करतीं. रामचंद्र गुहा ने तो अरुंधती को फिक्शन (कथालेखन) में लौट जाने की सलाह भी दी, लेकिन इन सभी आलोचकों ने उनके खिलाफ हिंसा करने के बयान नहीं दिए, जैसा परेश रावल और उनके समर्थकों की सोच है. बुकर जीतने के 20 साल बाद अरुंधती रॉय का नया उपन्यास 'द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पिनेस' बाज़ार में आ रहा है. अगले महीने यह किताब दुनिया के 30 देशों में एक साथ प्रकाशित होगी. 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' के बाद यह उनका पहला उपन्यास है, जिसकी कहानी उन्होंने अब तक बेहद पोशीदा रखी है.
अरुंधती के खिलाफ ताज़ा ट्वीट को कश्मीर पर उनके विचारों के खिलाफ एक बयान माना जा रहा है, लेकिन यह अरुंधती के लेखों और विचारों से अधिक परेश रावल जैसे लोगों की सोच पर सवाल है. परेश रावल एक सांसद हैं. संविधान की शपथ को लेकर उस संसद में बैठने वाले शख्स, जहां कानून बनाए जाते हैं. वह अपने ट्वीट से न केवल सेना से यह कह रहे हैं कि वह एक लेखक को जीप के आगे बांधकर घुमाए, बल्कि हिंसा भी भड़का रहे हैं. यह केवल विचारों की आज़ादी और लिखने–बोलने की संस्कृति पर हमला नहीं है, बल्कि उस मानसिकता को बढ़ावा देना भी है, जहां भीड़ सड़क पर लोगों की पीट-पीटकर हत्या कर देती है.
परेश रावल के ट्वीट को दनादन हज़ारों बार रीट्वीट किया जा रहा है और उस पर लाइक की भी भरमार है. इससे पता चलता है कि आज़ाद-खयाली और निर्भीक लेखन के खिलाफ एक भीड़ को लामबंद करने की मुहिम कामयाब है. कम से कम सोशल मीडिया पर तो है ही. लेकिन इस भीड़ में सिर्फ आम लोग या किसी पार्टी के कार्यकर्ता या फिर सड़क पर बलवा करने वाले लोग ही शामिल नहीं हैं. खुद को ज़िम्मेदार नागरिक कहने वाले और सभ्य समाज का हिस्सा कहे जाने वाले लोग भी गर्व के साथ इसका हिस्सा बन रहे हैं. अपने विवादित ट्वीट के लिए चर्चा में रहे गीतकार अभिजीत ने तो परेश रावल के ट्वीट पर कहा कि उन्हें (अरुंधती जैसे लोगों को) गोली मार दी जाए.
परेश की ओर से किए ट्वीट के बाद ख़बर आई कि कश्मीरी नौजवान फारुख डार को बोनट पर बांधने वाले मेजर लीतुल गोगोई को सेनाध्यक्ष की ओर से सम्मानित किया जाएगा. रविवार को ही देश के गृहमंत्री ने कहा था कि कश्मीर, कश्मीरी और कश्मीरियत हमारे हैं. लेकिन क्या मेजर को यह सम्मान कश्मीर में शांति बहाली और वहां के लोगों के भरोसे को जीतने में मदद करेगा...? 'इंडियन एक्सप्रेस' अखबार में डार के भाई का बयान छपा है, जिसमें इस कदम (मेजर को सम्मानित करने) को 'निर्दयी' कहा गया है. राजनीति का नौसिखिया भी बता सकता है, इसमें कोई शक नहीं कि इस वक्त मेजर गोगोई को सम्मानित करने से कश्मीरियों के बीच क्या पैगाम जाएगा.
एक राष्ट्र की सीमाओं के लिए सामरिक शक्ति ज़रूरी हो या न हो, लेकिन एक स्वस्थ और खिलखिलाते समाज के लिए निर्भीक लेखक और कलाकार बेहद ज़रूरी हैं. इन दिनों सरकारों को देश का आवरण चढ़ाकर दिखाया जा रहा है, लेकिन देश सरकार नहीं होते और देश सरकारों से नहीं बनते. सरकारों की भक्ति देशप्रेम नहीं है और देश का महिमामंडन लेखक के लिए ज़रूरी नहीं. निर्भीक लेखकों और फ़नकारों के लिए तो उनकी वैचारिक आज़ादी ही सर्वोपरि और सर्वप्रिय है. वह ऐसे समाज को तैयार करना चाहते हैं, जहां विचारों का मुक्त प्रवाह किसी तरह की भौगौलिक या भाषायी सीमाएं न जानता हो. जहां न्याय का फलसफा देशभक्ति के किसी भी गीत से ऊपर हो और जहां किसी लेखक के खिलाफ सुनाया गया (मृत्यु) दंड भी उसके शब्दों को अनमोल बनाता हो.
हृदयेश जोशी NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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This Article is From May 23, 2017
अरुंधती रॉय के खिलाफ 'हेट क्लब' और देश की परिभाषा...
Hridayesh Joshi
- ब्लॉग,
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Updated:मई 23, 2017 16:10 pm IST
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Published On मई 23, 2017 16:10 pm IST
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Last Updated On मई 23, 2017 16:10 pm IST
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