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This Article is From May 19, 2016

पश्चिम बंगाल में ममता की शानदार जीत और वाममोर्चे की करारी हार के मायने

Harimohan Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 19, 2016 14:25 pm IST
    • Published On मई 19, 2016 14:25 pm IST
    • Last Updated On मई 19, 2016 14:25 pm IST
इस साल पांच राज्यों के चुनावी दौर का आखिरी मतदान 16 मई को संपन्न हुआ और शाम तक अधिकांश एग्ज़िट पोल के नतीजे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की भारी विजय की भविष्यवाणी कर रहे थे। तब भी कोलकाता में कालीघाट के पास तृणमूल कांग्रेस की नेता के घर और दफ्तर में सन्नाटा छाया रहा, तो मानो वह तूफान के पहले की शांति थी। उससे वाममोर्चा और कांग्रेस के नेता खुशफहमी के शिकार हो गए और कहने लगे कि एग्ज़िट पोल तो अनेक बार की तरह इस बार भी मुंह की खाएंगे, लेकिन 19 मई को जब ममता के लिए जनादेश की आंधी उमड़ी तो वाममोर्चा और कांग्रेस के 'जोट' (गठबंधन) का 'सिलीगुड़ी' फॉर्मूला डाल से गिरे पत्ते की तरह उड़ता नजर आया।

बंगाल की राजनीति से परिचित लोगों के लिए यह कयास लगाना तो मुश्किल नहीं था कि 'सब 294 सीटे एकला' लडऩे वाली ममता को कम से कम इस बार वामपंथियों और कांग्रेस के लिए मिलकर हराना भी संभव नहीं होगा, लेकिन कोई विरला ही यह सोच पाया था कि ममता को 2011 के 184 से भी बहुत ज्यादा सीटें मिल जाएंगी। यह आंकड़ा 215 के ऊपर जाता दिख रहा है। यह भी शायद ही किसी ने सोचा था कि वामपंथियों की गलतियों को बंगाल की जनता पांच वर्ष बाद भी भुला नहीं पाई है।

इसका सबसे बड़ा संकेत तो यही है कि वाम-कांग्रेस 'जोट' से कांग्रेस को तो लाभ मिला, मगर वामपंथियों को नहीं। सबसे भीषण स्थिति तो यह है कि कांग्रेस की सीटें वामपंथियों के मुकाबले दोगुने से कुछ ही कम मिलती दिख रही हैं। वाममोर्चा की सीटें 27 के आसपास अटकी हैं तो कांग्रेस 43 सीटों का आंकड़ा छू रही है। हालांकि वामपंथियों का वोट प्रतिशत अभी भी 24 के आसपास खड़ा है और कांग्रेस को 11.5 प्रतिशत के करीब वोट ही हासिल हो रहे हैं, लेकिन तृणमूल के लगभग 46 प्रतिशत से उसका कोई मुकाबला नहीं।

इससे यह भी कयास लगता है कि वामपंथियों के वोट कांग्रेस के उम्मीदवारों को तो मिले, मगर कांग्रेस का वोट वामपंथियों की ओर कम ही गया। यह वोट अगर तृणमूल की ओर नहीं गया होगा तो शायद कुछ शहरी इलाकों में बीजेपी की ओर मुड़ गया होगा। लिहाजा, भगवा रंग कुछ खुलकर रंग जमाता दिखा। शुरू में उसकी बढ़त 10 सीटों पर दिख रही थी, लेकिन वह सिमटकर चार सीटों तक आ गई है। हालांकि बीजेपी का मत प्रतिशत 11 के आसपास ही अटका हुआ है, जबकि लोकसभा चुनावों वह 16 प्रतिशत के करीब पहुंच गया था। इससे बीजेपी की उम्मीदें उफान पर दिख रही थीं, लेकिन बंगाल ने फिर साबित किया कि अभी उस पर भगवा रंग चढ़ने में देर है।

हालांकि बिहार चुनावों में वोट प्रतिशत जोड़कर स्थापित किए गए जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन की भारी जीत के बाद बंगाल में वाममोर्चा और कांग्रेस के नेताओं को लगा था कि उनका गणित काम कर जाएगा। माकपा के राज्य सचिव सूर्यकांत मिश्र और कांग्रेस के अधीररंजन चौधरी और प्रदेश अध्यक्ष मानस भुइयां तो काफी आशावान हो गए थे। कुछ खबरों के मुताबिक अधीररंजन और मानस भुइयां तो उप-मुख्यमंत्री पद पर दावा करने की भी सोचने लगे थे।

असल में उत्तर बंगाल के सिलीगुड़ी में पिछले साल नगर निगम चुनावों में किए गए प्रयोग में कामयाबी से यह आशा उपजी थी। वहां इस दोस्ती के अच्छे नतीजे दिखे, इसीलिए इसे 'सिलीगुड़ी फार्मूला' कहा गया और विधानसभा चुनावों में वामपंथी और कांग्रेस के नेता हाथ मिलाकर चुनाव प्रचार करने लगे।

इस गणित का आधार 2014 के लोकसभा चुनाव में मुसलमान वोटों के कांग्रेस और वाममोर्चा में बंटने से ममता और एक सीट पर बीजेपी को हुए फायदे को रोकने की कोशिश था। इसका लाभ अधिक उत्तर बंगाल में होने की उम्मीद थी, जो कुछ हद तक मिला भी, लेकिन दक्षिण बंगाल में इसका ज्यादा फायदा नहीं मिला। उत्तर बंगाल में 74 सीटें हैं, जबकि दक्षिण में 220 सीटें हैं।

उत्तर और दक्षिण बंगाल की तासीर कुछ अलग है। ममता के लिए उत्तर बंगाल कुछ कमजोर रहा है, लेकिन इस बार इस इलाके में भी उनकी पहुंच बढ़ी है। इस तरह वामपंथियों और कांग्रेस के मन के लड्डू मन में ही रह गए। तृणमूल नेताओं के खिलाफ शारदा चिट फंड और नारद स्टिंग ऑपरेशन के घोटालों का भी कोई खास असर नहीं हुआ। इसके विपरीत जीत के बाद पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में ममता ने ऐलान किया कि जनता ने बता दिया है कि बंगाल भ्रष्टाचारमुक्त राज्य है।

इस जनादेश का राष्ट्रीय राजनीति में फर्क पड़ेगा ही। ममता के जीतने की खबरें आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली ने उन्हें बधाई दी। ममता ने भी कहा कि वह जीएसटी विधेयक पर सकारात्मक रुख अपना सकती हैं। हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ हैं, इसलिए उनसे किसी तरह के तालमेल की संभावना नहीं बनती। हालांकि बीजेपी की कोशिश होगी कि ममता और जयललिता को साथ लेकर कम से कम राज्यसभा में कांग्रेस की घेराबंदी तोड़ी जाए।

बहरहाल, इन नतीजों का कांग्रेस से भी अधिक बुरा असर वाममोर्चे पर होगा और प्रकाश करात के बाद माकपा की कमान संभालने वाले सीताराम येचुरी के लिए यह अच्छी खबर नहीं है। येचुरी ही कांग्रेस के साथ गठजोड़ के हिमायती रहे हैं। जो भी हो, ममता ने साबित किया कि बंगाल में अभी वह बेजोड़ हैं। बंगाल की जनता वैसे भी जल्दी-जल्दी गद्दी बदलने में यकीन नहीं करती। यह आजादी के बाद से कांग्रेस और बाद में 34 साल तक वाममोर्चा के शासन से स्पष्ट है। एक और बात यह कि कम से कम बंगाल के इन नतीजों से 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को कुछ लाभ शायद ही मिले।

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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