अब, जबकि वर्ष 2018 अपने अंत के करीब है, मन में मौजूद एक विचित्र किस्म के खालीपन की चुभन का एहसास निरंतर तीखा होता जा रहा है. दिमाग इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने की जद्दोजहद में कुछ ज्यादा ही बेचैन है कि क्या सचमुच में मानव जाति की सामूहिक स्मृति इतनी अधिक कमजोर है कि वह डेढ़-दो सौ साल पहले की ऐसी बातों को अपनी दिमागी स्लेट से ऐसे मिटा दे, मानो कि उसका अस्तित्व कभी रहा ही न हो. बावजूद इसके कि वह घटना, वह व्यक्ति ऐसा क्रांतिकारी हो कि उसके बाद अभी तक उसका कोई भी सानी न हो.
मैं बात कर रहा हूं विचारक कार्ल मार्क्स की. सन 2018 का संबंध इनसे दो बातों से है. पहला तो यह कि इनका जन्म लगभग दो सौ साल पहले 5 मई 1818 को हुआ था. यानी कि यह उनके जन्म का द्वितीय शताब्दी वर्ष था, जो तकरीबन खामोशी में ही बीता जा रहा है. दूसरी बात यह कि अपने मित्र फ्रेडरिक एंजिल्स के साथ मिलकर इन्होंने जो ‘‘दि कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो'' (मूल नाम-मेनिफेस्टो ऑफ दि कम्युनिस्ट पार्टी) तैयार किया था, उसका प्रकाशन उनके जन्म के पचास साल बाद 21, फरवरी 1848 को हुआ था. यह वही घोषणा पत्र है, जिसमें उन्होंने अपने वर्ग संघर्ष की अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए भविष्यवाणी की थी कि पूंजीवाद के बाद समाजवादी व्यवस्था आएगी. इसी घोषणा-पत्र में यह प्रसिद्ध वाक्य दर्ज था, जो बाद में हुई साम्यवादी क्रांतियों का नारा बन गया कि ‘‘संसार के मजदूरो तुम एक हो जाओ. खोने के लिए तुम्हारे पास हथकड़ियों के सिवाय और कुछ भी नहीं है. जबकि पाने के लिए पूरा विश्व है.''
कार्ल मार्क्स को इस दुनिया से गए अब 125 वर्ष (सन 1883) हो चुके हैं. यदि वे अपनी उन पुरानी स्मृतियों के साथ आज इस दुनिया में आ जाएं, तो वे फिर से उतने ही विचलित और भौंचक्के रह जाएंगे, जितने वे अपने उस दौर में हुए थे. उन्होंने सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तनों को उत्पादक-उत्पादन के कारकों के परस्पर संबंधों के आधार पर विश्लेषित किया था. वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा निर्मित मशीनें दस्तकारों एवं किसानों को श्रमिकों में तब्दील कर रही थीं. उनका पूंजीवाद उत्पादन के नए साधनों की देन था. और पूंजीवाद को नियंत्रित करने वाली शक्ति थी -इस व्यवस्था के शोषण का शिकार बने श्रमिक वर्ग की संगठित शक्ति.
वह औद्योगिक क्रांति का प्रथम दौर था. अब हम इसके चौथे दौर में प्रवेश कर चुके हैं. अब रोबोट, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, थ्री डी प्रिंटिंग, स्वचालन, थिंग्स आफ इंटरनेट तथा क्लाउड कम्प्यूटिंग जैसी अविश्वसनीय सी तकनीकें आकर पूरी दुनिया के उत्पादन-कारकों पर अपना शिकंजा तेजी से कसती जा रही है. इसके कारण सबसे अधिक विस्थापन श्रमिकों का हो रहा है. यानी कि पहले जो हाल कृषकों एवं दस्तकारों का हुआ था, अब वही हाल श्रमिकों का हो रहा है.
लेकिन यह नई औद्योगिक क्रांति इस मायने में मार्क्स की भविष्यवाणी के अनुरूप ही है कि इसका रुझान वैश्विक है, जो उदारीकरण में साफ तौर पर नजर आता है. यहां प्रश्न यह है कि इस स्थिति को देखकर मार्क्स क्या भविष्यवाणी करते? सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करते हुए मार्क्स ने कहा था कि ‘‘कोई भी सामाजिक व्यवस्था तब तक नष्ट नहीं होती है, जब तक कि उसकी जरूरतें पूरी करने वाली सभी उत्पादक-शक्तियां पूरी तरह विकसित नहीं हो जातीं. साथ ही नई व्यवस्था तब तक पुरानी व्यवस्था का स्थान नहीं लेती है, जब तक कि पुराने समाज के ढांचों में उसके अनुकूल नई भौतिक परिस्थितियां तैयार न हुई हों.''
मुझे लगता है कि मार्क्स की इस धारणा की कसौटी पर भी वर्तमान का मूल्यांकन किया जाना चाहिए. और ऐसा करके हम उन्हें विस्मृत कर देने के आरोप से स्वयं को बचा सकेंगे.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Dec 10, 2018
एक विस्मृत विचारक और चौथी औद्योगिक क्रांति
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:दिसंबर 10, 2018 18:12 pm IST
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Published On दिसंबर 10, 2018 18:12 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 10, 2018 18:12 pm IST
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