दिल्ली सरकार के साथ पिछले दिनों जो कुछ हुआ, या इसे यूं भी कह लें कि उसने जो कुछ किया, उससे कई महत्वपूर्ण सवाल मन में उठते हैं. पहला सवाल तो यही कि देश की राजधानी की सरकार लगभग 10 दिन तक हड़ताल पर रही. सरकार के खिलाफ हड़तालों की बात तो आम थी, लेकिन यह एकदम से खास हो गई. और वह हड़ताल भी किसके विरूद्ध - अपने ही उपराज्यपाल के विरुद्ध, और वह भी उन्हीं के दफ्तर में घुसकर. दूसरी मज़ेदार और बहुत चिंतित कर देने वाली बात यह है कि सरकार अपने ही IAS अफसरों पर आरोप लगा रही थी कि वे हड़ताल पर हैं. सरकार के किसी मंत्री की बदतमीज़ी पर अफसरों के विरोध की खबर तो सुनी थी, लेकिन पूरी सरकार के खिलाफ दिल्ली की IAS जमात हड़ताल पर चली जाए, यह पहली बार सुना.
इससे भी ज़्यादा चौंकाने वाली तीसरी बात यह है कि IAS अफसर कह रहे थे कि हम तो हड़ताल पर हैं ही नहीं. हम तो रोज़ाना दफ्तर आ रहे हैं. तो फिर सच बोल कौन रहा था...? या दोनों सच थे, और दोनों के अपने-अपने सच थे...? आम लोगों की दृष्टि में दोनों का ओहदा बड़ा है. जनता दोनों से सच की उम्मीद करती है, और यदि वह इन दोनों के सच पर संदेह करने लगे, तो व्यवस्था का हाल क्या हो सकता है, वर्णन से परे है. शायद अराजकतावाद का जन्म यहीं से होता है.
और इन तीनों घटनाओं से भी ज़्यादा मजेदार घटना यह रही कि दिल्ली की सरकार हड़ताल करके अपने उपराज्यपाल पर इस बात के लिए दबाव डाल रही है कि वह IAS अफसरों के हड़ताल को तुड़वाएं. यह तो गज़ब ही हो गया. क्या सचमुच भारत के राज्यों की सरकारें इतनी लुंज-पुंज, निरीह एवं अधिकारविहीन हैं कि वे अपने अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं रख सकतीं...? यदि सचमुच ऐसा है, तो देश को अपने संघात्मक स्वरूप के बारे में ही नहीं, लोकतांत्रिक चरित्र के बारे में भी सोचना पड़ेगा. फिर तो यह अफसर तंत्र हो गया.
इन सभी घटनाओं के पीछे की राजनीति चाहे जो भी हो, लेकिन दिमाग की सुई इस तथ्य पर पहुंचकर अटक जाती है कि यह सब, ऐसा सब दिल्ली की सरकार के साथ ही क्यों होता है. अन्य राज्यों में भी केंद्र की विरोधी दलों की सरकारें हैं. दोनों के बीच 'हॉट टाक' भी होते रहते हैं, तनातनी बनी रहती है. लेकिन वहां वे 'तथाकथित तमाशे' नहीं होते, जो दिल्ली में होते हैं. क्या ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि दिल्ली में हुआ छोटा-सा तमाशा भी देश का तमाशा बन जाता है...? निश्चित रूप से दिल्ली राज्य की संवैधानिक स्थिति अन्य राज्यों की तुलना में कमज़ोर है, और इसे वर्तमान संकट एवं समस्याओं के लिए मूल रूप से ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. इन संवैधानिक प्रक्रियाओं के प्रति दिल्ली की सत्तासीन पार्टी की प्रतिक्रिया कभी-कभी इतनी तीखी और आक्रामक हो जाती है कि वह विपक्ष की पार्टी लगने लगती है, लेकिन जब हम संविधान के व्यावहारिक पक्ष पर आते हैं, तो हमें लोकतंत्र को उससे ऊपर उठकर 'परस्पर समझ' एवं 'प्रशासनिक आवश्यकताओं' की दृष्टि से भी देखना होता है.
इसका कारण चाहे अनुभव की अपरिपक्वता अथवा युवा रक्त का उतावलापन ही क्यों न हो, लेकिन इनकी राजनीतिक एवं प्रशासनिक कार्यप्रणाली में सामंजस्य की उस नमी का एहसास नहीं होता, जो मूलतः मानवीय संस्थानों से काम लेने के लिए बहुत ज़रूरी होती है. इसकी अंतिम परिणति टकराव में होती है, चौतरफा टकराव में; जो वर्तमान में दिल्ली सरकार के साथ दिखाई दे रही है. अन्यथा मिलन का कोई स्पेस तो निर्धारित किया ही जा सकता है, और यही राजनीति एवं प्रशासन की कला भी है.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Jun 29, 2018
आखिर दिल्ली सरकार की समस्या है क्या...?
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:जून 29, 2018 13:37 pm IST
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Published On जून 29, 2018 13:37 pm IST
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Last Updated On जून 29, 2018 13:37 pm IST
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