जरा याद मुझे भी कर लो 'मैं उल्टी राइफल हूं..'

जरा याद मुझे भी कर लो 'मैं उल्टी राइफल हूं..'

प्रतीकात्‍मक फोटो

हर साल 21 अक्टूबर आता है. काले कपड़ों में लिपटी हुई एक किताब आती है. पुलिस की रवानगी भरी हुई दुनिया कुछ देर विश्राम पाती है. पुलिस लाइन के एक कोने में एक ऊंचे स्‍तंभ पर उल्टा शस्त्र बना हुआ है. राइफल की बट पर कैप रखा गया है. जवान को सिखाया जाता है कि आसमान के नीचे सिर नंगा न रहे. गर्वोन्नत माथा, प्रमुत्थित सिर. सिर पर कैप रखी उल्टी राइफल आज अपने सिपाही को याद कर रही है. वह जब 'तान शस्त्र' करता था तो क्या खूब तनती थी मैं! 'सलामी शस्त्र'की प्रहारक आवाज़ सुनकर मैं अपने सिपाही के हाथों में मचल  उठती थी! 'कंधे शस्त्र' पर मैं उसके कंधे चूमती.'बाजू-शस्त्र' पर विश्राम पाकर उसके बाजू सटकर ठहर जाती.

मैं उल्टी राइफल हूं. काले कपड़ों में लिपटी हुई जो किताब अभी अभी मेरे सम्मुख आई है, जरा देखो;क्या मेरे सिपाही की स्मृति उसमें अंकित है? मुझे छुआ दो. एक लघु-स्पर्श मात्र. मैं उस सिपाही का स्याही हुआ नाम जरा चूम तो लूं ! उसके सख्त हाथ मेरी बट पर आज भी छपे हुए हैं ! काले कपड़ों में लिपटी हुई किताब के पृष्ठों पर मेरा सिपाही की शौर्य-गाथा, जरा जोर से पढ़ो. बिगुलर से कहो कि 'लास्ट पोस्ट' ज़रा ऊंची बजाए. इतनी ऊंची कि मेरा सिसकना अनसुना रह जाए. मेरा रुदन बिगुल की स्वर-लहरियों में दब जाए.

मुझे कुछ याद न आए. करुणा के दृश्य मेरी दृष्टि से तिरोहित हो जाएं. मुझे न अख्तर खान याद आए न ब्रज में शहीद हुआ मुकुल और संतोष. मैं रक्त-स्नात खाकी के शवों  को देखना नहीं चाहती. बदायूं के गढ़ौली गांव का वह आंगन जहां सिपाही भीमसेन और सहीम खान के शव पड़े हुए हैं, या थाना विनावर का वह घट-बेहटी का जंगल जहां सर्वेश छटपटा के गिर पड़ा था.....बिगुलर से कहो कि 'लास्ट पोस्ट' की धुन जरा और उठाए. शहीदों की श्वेत-वस्त्र विधवाओं के आंसू मैं सहन कर सकूंगी क्या!

मैं अंतिम सांस की गवाह हूं. मैं आई-विटनेस हूं. जवानों के प्राणोत्सर्ग की. देश के अलग अलग स्थानों पर मैंने जवानों को गिरते हुए देखा है. सीने से अचानक रक्त का फव्वारा फूटते देखा है. खाकी का रंग गहरे लाल में मिलता हुआ देखा है. मैं तो हर क्षण साथ थी. मैं जवान की राइफल थी.'उसके ही शरीर का एक हिस्सा', मैंने सुना था. यही अक्सर कहता था वो. मैंने उसे निजता के क्षणों में भी देखा था,और भीड़ से घिरे हुए भी.बिना शर्त कर्तव्य परायण. यही उसकी जीवन-नियति थी. मान-अपमान की संतुलन -साधना उसके जीवन की स्थायी शैली बन गई थी. इसी साधना में गिरता-पड़ता वह एक दिन गिर ही पड़ा. सीने के बल.मैंने उसे गिरते हुए देखा था. गोली उसने सीने पर ही खाई,पीठ पर नहीं.

मैं भी तो लज्जित हूं. मैं उसके शरीर का हिस्सा थी. पर उस से विदा हो गई. आज 21 अक्टूबर है. काले कपड़ों में लिपटी हुई किताब में मेरे सिपाही का भी नाम है. मैं उदास हूं. उसकी कैप मैंने अपने सिर पर रख ली है. दो आंसू गिरा दिए हैं और चुप उदास खड़ी हूं....

धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

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