लोकसभा में विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी लेने से राहुल गांधी के इनकार के पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि इतनी बड़ी हार के बाद विपक्ष का नेता बनना उनके लिए ठीक नहीं होगा। लोग पूछ रहे हैं कि यदि कांग्रेस के इस तर्क में दम है, तो फिर राहुल का पार्टी उपाध्यक्ष बने रहना कहां तक उचित है।
सदन में विपक्ष के नए नेता मल्लिकार्जुन खड़गे कर्नाटक से आते हैं। वह रेलमंत्री भी रहे हैं। पंचायत हो या विधानसभा या फिर लोकसभा, जीवन में उन्होंने कोई चुनाव नहीं हारा है। हिन्दी भी जानते हैं, उर्दू भी और अंग्रेजी भी, लेकिन 71 साल के खड़गे लोकसभा में नरेंद्र मोदी के सामने कितने कामयाब रहेंगे यह कांग्रेस नेताओं को समझ में नहीं आ रहा।
यदि खड़गे हैं, तो कमलनाथ क्यों नहीं, कमलनाथ हैं तो कैप्टन अमरिंदर सिंह क्यों नहीं, या फिर राहुल ही क्यों नहीं... कांग्रेस में यह चर्चा का विषय है। जयपुर के चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने कहा था कि सत्ता जहर के बराबर है...'पावर इज प्वाइजन'…क्या यही वजह है कि राहुल भाग रहे हैं जिम्मेदारियों से। सवाल यह भी नहीं है कि विपक्ष का नेता उत्तर भारत से हो या दक्षिण से, उसका जुझारू होना जरूरी है।
राहुल, मनमोहन सिंह की कैबिनेट में यह कहकर जाने से बचते रहे कि पार्टी को मजबूत करना है और ऐसा तो हो नहीं सका। सरकार में काम करने का अनुभव भी नहीं हुआ। कांग्रेसी सांसद सवाल पूछ रहे हैं कि क्या यह अच्छा नहीं होता कि राहुल विपक्ष का नेता बनते, लोकसभा के आगे की बेंच पर बैठते और सरकार से सवाल-जवाब करते। याद कीजिए यूपीए पर सुषमा स्वराज के हमले। कुछ गलतियां करके सीखने के बजाय किसी बहाने से जिम्मेदारी से बचने के रास्ते पर भी सवाल हैं।
लोग अब यह भी सवाल खड़े कर रहे हैं कि युवा नेतृत्व देने के बजाए कांग्रेस 71 साल के खड़गे की शरण में क्यों गई… नरेंद्र मोदी के आभामंडल और इस बहुमत से लड़ने का एक मौका राहुल गांधी ने खो दिया है। कांग्रेस के साथ यह दिक्कत है कि जब सांसदों के मनोबल को उठाने की जरूरत है और जब पार्टी गांधी परिवार की तरफ देख रही है, राहुल कुछ और सोच रहे हैं।
लोगों के मन में यह भी सवाल है कि क्या कांग्रेस का अध्यक्ष गांधी परिवार के अलावा कोई और नहीं हो सकता? क्या गांधी परिवार यह जोखिम लेने के लिए तैयार होगा? यदि बीजेपी में बंगारू से लेकर गडकरी तक बारी-बारी से अध्यक्ष बन सकते हैं, तो कांग्रेस में क्यों नहीं?
ऐसे में लगातार सवाल उठने लगे हैं कि आखिर कांग्रेस आलाकमान के पास कोई आगे का रोड मैप है भी या नहीं। युवा संगठनों में चुनाव कराने के प्रयोग का खूब ढिंढोरा पीटा गया, लेकिन जिस चीज को रोकने के लिए यह किया गया था, वही हो गया। ज़्यादातर जगह बड़े बाप के बेटे ही जीतकर आए और वोट खरीदने के ढेरों आरोप भी लगे। चुनाव के बाद जो माहौल बना, उससे कोई टीम नहीं बन पाई और नतीजा सामने है।
क्या कांग्रेस आलाकमान को यह नहीं पता कि जिस राज्य में कांग्रेस दो बार से सत्ता में नहीं आई है, उस राज्य में वह खत्म हो गई है। ममता बनर्जी कांग्रेस छोड़कर अलग पार्टी बनाती हैं और सत्ता में आती हैं। वजह साफ है कि वह जमीन पर लगातार लड़ती रहीं। मगर कांग्रेस वहां खत्म हो गई। यूपी, मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार, छत्तीसगढ़, बंगाल, उड़ीसा को मिला दें, तो 225 सीट होती हैं यहां। जो कांग्रेस के हालात हैं, सब जानते हैं..ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास वोट नहीं हैं, उसे बीजेपी के 31 फीसदी के मुकाबले 19 फीसदी वोट मिले हैं।
ऐसे में राहुल के सामने एक चुनौती है कि वह एक साहसी सेनापति बनकर मैदान में उतरें, वरना किसी और के लिए जगह खाली कर दें, चाहे वह प्रियंका ही क्यों न हो। यदि सत्ता जहर है, तो किसी न किसी को कांग्रेस में यह जहर पीने के लिए तैयार होना पड़ेगा, यदि पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं में भरोसा नहीं जगाया, तो वही होगा जो हर हार के बाद होता है... पार्टी बिखरने लगती है... सत्ता का त्याग उस वक्त अच्छा लगता है, जब आपके पास सत्ता हो, जैसा कि सोनिया गांधी ने 2004 में किया था। उस वक्त जिम्मेदारी से क्यों भागना जब संघर्ष करने के दिन हों।
राहुल जी...सलाहकारों के साथ−साथ सोच भी बदलने की जरूरत है और पार्टी में भी जान फूंकने की। वह तभी संभव होगा, जब आप प्रतिबद्धतता दिखाएंगे। राहुल, कांग्रेस के लिए आपको मनमोहन सिंह बनने की जरूरत नहीं है। अपनी दादी को याद कीजिए, बेलछी की घटना को जानिए और तैयार कीजिए पार्टी को एक नई लड़ाई के लिए। बस इंतजार करना होगा एक मौके का और जीवन में मौके बार-बार नहीं मिलते।