देश के हालात पर गौर करना हो तो सबसे पहले क्या देखना चाहिए......? देश की माली हालत या सामाजिक स्थिति या राजनीतिक हालात या कानून व्यव्यस्था......? कहा जाता है कि इन सारी बातों को एक साथ देखना पड़ता है. इन सबको दिखाने का काम सिर्फ पत्रकारिता ही कर पाती है, इसीलिए देश के हालात की हकीकत जानने-समझने के लिए सबसे पहले यह देखा जाता है कि वहां पत्रकारिता की हालत क्या है......?
पत्रकारिता पर नज़र मुश्किल काम...
समस्या यह है कि पत्रकारिता पर नज़र रखने का काम कौन करे...? बहरहाल यह काम पत्रकारिता ने अपने अधिकार में ही ले रखा है. उसे बिल्कुल पसंद नहीं कि उसके काम में कोई किसी तरह का भी दखल दे. ठीक भी है, वरना किसी भी देश के हालात और उस देश के कर्ताधर्ताओं के कामकाज की समीक्षा की गुंजाइश ही नहीं बचेगी. इसीलिए अख़बार और टेलीविजन पर मुसलसल नज़र ज़रूरी होती है. कम से कम यह सतर्कता तो ज़रूरी होती ही है कि पत्रकारिता स्वतंत्र और निश्चिंत होकर अपना काम कर रही है या नहीं...? और यह भी कि वह अपना काम कर पा रही है या नहीं...? लगे हाथ यह सवाल भी उठना चाहिए कि पत्रकारिता ईमानदारी से अपना काम करना भी चाह रही है या नहीं.
पत्रकारिता की स्वतंत्रता और निश्चिंतता...
स्वतंत्रता में बाधक एक स्थिति किसी दबाव या दमन की बनती है. दूसरी स्थिति स्वतंत्रता को फुसलाकर या लालच देकर उसे पालतू बनाने की है. इस दूसरी स्थिति का काट अब तक के ज्ञात इतिहास में कोई ढूंढ नहीं पाया है. बस, प्राकृतिक नियमों की तरह इस अवस्था में स्वतंत्रताप्रिय और सुखलोलुपों के बीच संघर्ष खड़ा होने लगता है. राजनीतिक व्यवस्थाओं के इतिहास में सेनाएं और मर्सिनरी यानी भाड़े के सैनिकों के बीच युद्ध की मिसालें भरी पड़ी हैं. यानी ऐसा नहीं है कि उस बुरी स्थिति का कोई विकल्प मुहैया न हो. जो विद्वान अपनी प्रखरता के कारण समर्थ हैं, वे इसे समझने और आसान तरीके से सबको समझा सकते हैं.
स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का फर्क...
पत्रकारिता के सामने यह दुविधा हमेशा से खड़ी है. अपनी राजनीतिक आजादी के संघर्ष से लेकर आजादी पाने और उसे बचाए रखने के अब तक के ज्ञात इतिहास में कई बार हुआ है कि स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच साफ-साफ फर्क करने में विद्वान हमेशा हार गए हैं. हमेशा नैतिकता का लफड़ा आता है. संगठित और दबंग स्वच्छंदों को खुद को नैतिक सिद्ध करने में ज्यादा दिक्कत नहीं आती. बड़ी मुश्किल यह है कि अपने लक्ष्य को जायज़ बताकर उसे हासिल करने के लिए किसी भी नाजायज़ साधन को नैतिक साबित करने का सिद्धांत कुछ दार्शनिकों ने स्थापित कर रखा है. अपने पसंद के राजनीतिक दल की प्रशस्ति और अपनी नापसंद के दल की छवि को मटियामेट करने की स्वच्छंदता को क्या सरलता से नहीं समझाया जा सकता. वैसे तो यह विद्धानों के सोचविचार का विषय है, लेकिन इस समय समस्या अगर पत्रकारिता की हो तो इस पर सोच-विचार क्या पत्रकारिता के मंच से ही शुरू नहीं होनी चाहिए. पत्रकारिता के लिए यह काम आसान भी है, क्योंकि इस समय पत्रकारिता के क्षेत्र में एक से बढ़कर एक कुशाग्र, मेधावी और तेजतर्रार पत्रकार मौजूद हैं.
अगर पत्रकारिता पर कोई मुकदमा चले...
मुकदमे से पहले उसे नोटिस देना पड़ेगा. पत्रकारिता से पूछा जा सकता है कि मानव के सुख के 'न्यूनीकरण' और दुख के 'अधिककरण' के लिए आपको दोषी क्यों न माना जाए...? बहुत संभव है कि पत्रकारिता का जवाब यह हो कि यह जिम्मेदारी तो राजव्यवस्था की है. लेकिन ऐसा जवाब देते समय पत्रकारिता पर खुद-ब-खुद यह जिम्मेदारी आ जाती है कि वह जनता की तरफ से राजव्यवस्था को कठघरे में खड़ा करे. जरा तसल्ली से ठहरकर और पीछे मुड़कर देखें तो हमारी पत्रकारिता यही जिम्मेदारी पिछले 70 साल से निभाती आ रही थी. स्वतंत्र भारत का कोई भी दशक ऐसा नहीं गुजरा, जिसमें पत्रकारिता ने हर सरकार को जगाए न रखा हो. लेकिन अचानक यही ऐसा समय आया दिख रहा है कि पत्रकारिता के अलग-अलग खेमे राजव्यवस्था से सवाल पूछने की बजाय अपने ही सहधर्मियों से उलझने में लगे हैं.
पत्रकारिता के सामने से मोटे-ताजे मुद्दे गायब...
देश में ऊंची आवाज में विकास के नारों का दौर चला. इस समय आलम यह है कि सारे नारे थकान पर हैं और अब जल्द ही सामूहिक ऊब आना स्वाभाविक है. सब कुछ पत्रकारिता के सामने है. बेतहाशा रफ्तार से बढ़ती बेरोजगारी, प्रबंधन की सारी सीमाएं तोड़ती हुई और बेकाबू रफ्तार से बढ़ती आबादी, देश का सबसे बड़ा भौगालिक क्षेत्र, यानी देश के गांवों में अचानक बढ़ी हद दर्जे की बदहाली, छोटे-बड़े सभी कस्बों और नगरों में बढ़ते जा रहे गंदगी के ढेर, अस्पतालों में अचानक बढ़ रही गरीब मरीजों की भीड़, चौतरफा मंदी के कारण ठप पड़ते काम-धंधे, यानी सारे मुद्दे पत्रकारिता ने अचानक हाशिये पर डाल दिए.
क्या सोचते हैं अपराधशास्त्री...?
देश के मौजूदा हालात के मद्देनज़र कुछ समाजशास्त्री, खासतौर पर अपराधशास्त्री, निकट भविष्य में भारतीय समाज को एक ऐसी दशा में जाता देख रहे हैं, जिसे एनोमी कहते है. कुछ समाजशास्त्री प्रतिमानहीनता नाम की इस सामाजिक दशा का एक लक्षण कानूनविहीनता भी बता गए हैं. यानी मौजूदा हालत का असर निकट भविष्य में अपराधों की संख्या में बढ़ोतरी के रूप में दिखेगा. विद्धान लोग आगाह करते है कि कुछ सामाजिक रोगों का इलाज बड़ा मुश्किल होता है. लिहाजा उन रोगों से बचाव ही अकेला विकल्प होता है. कितना अच्छा हो, अगर पत्रकारिता के विचार वाले विभाग में ये बातें अपनी जगह बना लें. यह काम वक्त रहते शुरू हो जाए तो अच्छा.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं. इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता. इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी.
This Article is From Aug 31, 2016
पत्रकारिता की सूरत से भांप सकते हैं देश के हालात...
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
-
Updated:अगस्त 31, 2016 15:56 pm IST
-
Published On अगस्त 31, 2016 15:56 pm IST
-
Last Updated On अगस्त 31, 2016 15:56 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं
भारत में पत्रकारिता, पत्रकारिता की स्थिति, भारत के हालात, Journalism In India, Condition Of Journalism, Condition Of India