बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स के डायरेक्टर जनरल डीके पाठक ने जम्मू में कहा कि उन्होंने 1971 की जंग के बाद ऐसी क्रॉस बॉर्डर फायरिंग नहीं देखी, इस तरह से नागरिक इलाकों को कभी निशाना नहीं बनाया गया था। लेकिन बीएसएफ के मुखिया के इस बयान का क्या मतलब निकाला जाए, ये भी कम पेचीदा नहीं।
दरअसल इस तरह के बयान टीवी और अखबारों की सुर्खियां तो बन सकते हैं, लेकिन बिना किसी तथ्यात्मक सूचनाओं के इस तरह की तुलनाओं का कोई खास मतलब नहीं रह जाता।
पाकिस्तान की सीमा पर गोलीबारी कोई बहुत नई बात नहीं रही है, मिसाल के तौर पर 13 दिसंबर 2001 को जब संसद पर हमला हुआ तो पाकिस्तान की तरफ से अंतरराष्ट्रीय सीमा पर हुई गोलीबारी में कई गांव तबाह हो गए थे। ऐसे ही 23 मई, 2002 को जम्मू के पास हीरानगर बॉर्डर के पनसर गांव में सीमा पार से हुई फायरिंग में 53 घर तबाह हुए थे, इसी दिन मनियारी गांव में हुई फायरिंग में आधा गांव बर्बाद हो गया।
दरअसल किसी अर्धसैनिक बल के प्रमुख के नाते इस तरह के बयान को लेकर आलोचना भी हो सकती है। उनके इस बयान के पीछे एक वजह ये भी हो सकती है कि पैरामिलेट्री सेवाओं के ज्यादातर डीजी उसी सुरक्षाबल से आने की बजाय आईपीएस अधिकारी होते हैं, जिनका अंतरराष्ट्रीय सीमा या फिर एलओसी जैसे संवेदनशील इलाकों में होने वाली घटनाओं का सीधा अनुभव नहीं होता।
यही वजह है कि इस तरह के सवाल भी उठते रहे हैं कि क्या किसी आईपीएस का इस तरह के बलों का प्रमुख बनाया जाना जायज है। ये समस्या सिर्फ बीएसएफ ही नहीं बल्के दूसरे अर्धसैनिक बलों के साथ भी है।
हालांकि बयान के बचाव में आए पूर्व डीजीपी बीएसएफ प्रकाश सिंह का कहना है कि बीएसएफ डीजी के दिए गए बयान को समझने और उसके पीछे के जज्बात को महसूस करने की जरूरत है, ना कि बाल की खाल निकालने की। हो सकता है यही सच हो और ऐसा होना ही देश और सुरक्षाबलों के हक में भी है।