पापा, यहां 'ढंग' का कोई है भी?

सच है कि हम अपने बच्चों को भीड़ का हिस्सा नहीं बनाना चाहते. हर मां-बाप की ख़्वाहिश होती है कि उनके बच्चे भीड़ नहीं, भीड़ में चेहरा बनें.

पापा, यहां 'ढंग' का कोई है भी?

अजमेर से पुष्कर के रास्ते सैकड़ों श्रद्धालु कुछ इस तरह करते हैं यात्रा..

"पापा...!"
पुष्कर की गलियों में भीड़ के शोर-शराबे में ज़्यादा कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.

"पापा!!"
इस बार आवाज़ ऊंची थी और थोड़ी तल्ख़ भी. ऊंगलियों को झटका लगा तो झुकना पड़ा. छोटे साहबजादे कुछ कहना चाह रहे थे. सुनने के लिए कान को उनके मुख के समानांतर लाना पड़ा.

"यहां हम लोगों को छोड़कर कोई ढंग का आदमी दिख रहा है आपको?

सवाल में कौतूहल कम शिकायत ज्यादा थी.

"मैं तो पहले ही कह रहा था. मत आओ यहां. यहां आने से क्या होगा? अगर अभी भीड़ में चोट लग जाती है तो भगवान ठीक करेंगे या डॉक्टर?"

ये बड़े साहबजादे थे. किशोर उम्र में प्रवेश किया है. बदलाव के दौर से गुज़र रहे हैं. हर वक़्त तेवर में विद्रोह रहता है. बिदके-बिदके से रहते हैं. सवाल का जवाब सवाल से देते हैं. गुरुवार और शनिवार को हम नाखून या बाल नहीं काटते. मंगलवार को नॉन-वेज से परहेज़ करते हैं लेकिन उनके लिए हर दिन बराबर है. परंपरा और मान्यता पर सवालों की झड़ी लगा देते हैं. सावन में नॉन-वेज क्यों नहीं खाते इसके लिए उन्हें 'साइंटिफ़िक रीज़न' देना पड़ा तब माने.

"एक दिन सबसे ज़्यादा पूजा-पाठ तुम्हीं कर रहे होगे..." बड़े को घुड़की दी और छोटे को फुसलाया, "वो देखो अंग्रेज़ भी यहां आए हुए हैं. बिना किसी दिक्कत के घूम रहे हैं. न भीड़ की परवाह कर रहे हैं और न ही गर्मी से परेशान नज़र आ रहे हैं."

छोटे नवाब अंग्रेज़ों को विस्मय की दृष्टि से देखते हैं जबकि अफ़्रीकी लोगों को देखकर चेहरे पर थोड़ा भयमिश्रित भाव आने लगता था. इस डर के पीछे न्यूज़ चैनल्स द्वारा भारत में अफ्रीकी मूल के लोगों की बनायी छवि थी. हालांकि समझाने के बाद अब नहीं घबराते. वैसे ये डर वेस्टइंडीज़ क्रिकेट टीम और ख़ासकर क्रिस गेल को देखकर कभी नहीं आया. ड्वेन ब्रावो का 'चैंपियन-चैंपियन' गाना लंबे समय तक हॉट फ़ेवरिट बना रहा. क्रिकेट पहला शौक़ जो ठहरा. इनकी चिंता बस एक ही है-पढ़ाई के चक्कर में कहीं क्रिकेट न खराब हो जाए! कई बार समझाए गए हैं कि क्रिकेट से ज़्यादा पढ़ाई आसान है लेकिन मानते नहीं. शायद आगे समझ पाएं.

"बेटा, यही असली भारत है. हमारे देश के अस्सी फ़ीसदी लोग ऐसे ही हैं और इसी तरह से रहते हैं."

तेज़ी से बढ़ रहे शहरीकरण से ये आंकड़ा बदला होगा. अगर मैं सही हूं तो अब गांवों और क़स्बों की आबादी 80 से घटकर 69 प्रतिशत रह गई है. नगरों और महानगरों में 'गेटेड कम्यूनिटी' में बड़े हो रहे और प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहे हमारे बच्चों को 'इंडिया' के बारे में तो कमोवेश जानकारी होती है लेकिन वे 'भारत' के बारे में ज़्यादा नहीं जान पा रहे हैं. फ़िल्मों के पर्दे पर ग्लैमर है. टेलीविजन सोप की दुनिया रुपहली है. किड्स चैनल फंतासी संसार में ले जाते हैं. स्पोर्ट्स चैनल पर खेल के मैदान या कोर्ट पर जगमगाहट नजर आती है और न्यूज़ चैनल्स के लिए ख़बरें सिर्फ महानगरों की बिकती हैं. कस्बों और गांवों की बड़ी और नकारात्मक ख़बरों को ही बुलेटिन में जगह देते हैं. बच्चों के लिए ग्रामीण भारत को समझना आसान नहीं है.

सच है कि हम अपने बच्चों को भीड़ का हिस्सा नहीं बनाना चाहते. हर मां-बाप की ख़्वाहिश होती है कि उनके बच्चे भीड़ नहीं, भीड़ में चेहरा बनें. लेकिन किसी भी हालत में कल इन्हें भीड़ का सामना तो करना ही पड़ेगा, जहां हर क़िस्म की शख्सियतें मिलेंगी. एक न एक दिन बच्चों पर से हमें अपना सुरक्षा चक्र हटाना होगा. ये आवरण एकाएक हटेगा तो ज़्यादा तकलीफ़देह हो सकता है. इसलिए समय-समय पर 'एक्सपोज़र' जरुरी है.

हमारे मज़बूत सुरक्षा आवरण के बाद भी बच्चों की संवेदनशीलता पर समय और समाज चोट करते रहते हैं. अजमेर में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के दरगाह पर छोटे साहबजादे माथा टिकाकर दुआ मांग रहे थे. भीड़ का रेला आया तो ख़ादिम ने "आगे बढ़ो, जल्दी करो" कहते हुए हौले से हाथ लगा दिया. छोटे साहबजादे को बहुत नागवार गुज़रा. हाथ लगाना और झिड़कना उनके लिए बेहद अपमानजनक है. पिटने और डांट खाने से भी ज़्यादा.

जिस भीड़ में सिर्फ हम ही "ढंग" के थे वो इसी 15 अगस्त को पुष्कर में जुटी थी. रंगबिरंगे राजस्थानी पोशाक और पगड़ी में लोग ही लोग. हमारे टैक्सी ड्राइवर ने बताया था कि दरअसल ये भीड़ रामदेवरा मेले की है जो पुष्कर से क़रीब साढे तीन सौ किलोमीटर दूर है. इंटरनेट से थोड़ी और जानकारी खंगाली.

रामदेव जी राजस्थान के एक लोक देवता हैं. उन्हें कृष्ण का अवतार माना जाता है. जैसलमेर से क़रीब 12 किलोमीटर दूर रामदेवरा में उनकी समाधि है. यहां हर साल मेला लगता है जो क़रीब महीने भर चलता है. दिलचस्प बात ये है कि यहां मुसलमान श्रद्धालु भी आते हैं. उनके लिए ये बाबा रामसा पीर हैं. कहते है कि राजस्थान में पांच पीरों की प्रतिष्ठा है जिनमे बाबा रामसा पीर का विशेष स्थान है. मेले के दौरान मंदिर में पांच से छह किलोमीटर तक लंबी कतारें लग जाती हैं.  

अजमेर से पुष्कर के रास्ते सैकड़ों श्रद्धालु बस, ट्रैक्टर और जीप पर लद कर रामदेवरा जा रहे थे. बाइक पर पूरा परिवार गठरियां बांधे चला जा रहा था. दिल्ली के कांवरियों से उलट ये शांत और संयमित थे. अहम बात है कि दर्शनार्थियों के लिए रास्ते भर निःशुल्क भोजन, पानी और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध रहती हैं. आस्था तो अपनी जगह है ही लेकिन एक सच ये भी है कि हाशिए और वंचित जनसंख्या को थोड़ी सी भी सुविधा मिल जाए तो ये उनके लिए बड़ी बात होती है. सालभर कभी कुंभ तो कभी सावन तो कभी उर्स तो कभी कोई और धार्मिक यात्राएं चलती रहती हैं. आबादी व्यस्त रहे तो व्यवस्था बनी रहती है और शासकों का काम आसान हो जाता है. दरअसल हिंदुस्तान में धर्म सियासी साज़िश का अहम हिस्सा रहा है. पहले भी और अब भी. धर्म, फ़िल्म और क्रिकेट का कश देकर भोली-भाली जनता को मुद्दे से भटकाए रखे रहने की कोशिश होती है.

ऐसे में हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. कई शहर तो धर्म की वजह से वजूद में हैं. आंध्र प्रदेश के पुट्टपर्थी की रौनक़ सत्य साईं के निधन के बाद कम हो गई है. वहां की अर्थव्यवस्था डगमगा गई. होटल और पर्यटन उद्योग को ख़ासा नुक़सान हुआ है. सत्य साईं ख़ुद को को शिरडी के साईं बाबा का अवतार कहते थे. सत्य साईं अपने चमत्कारों के लिए भी प्रसिद्ध रहे और वे हवा में से अनेक चीजें प्रकट कर देते थे और इसके चलते आलोचकों के निशाने पर रहे. बावजूद इसके सत्य साईं के वीआईपी भक्तों की फेहरिस्त बहुत लंबी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर, पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह, पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम, बीएचपी के अशोक सिंधल और आरएसएस के सभी बड़े नेता उनके दरबार में जाते थे.

बहरहाल, रामदेवरा जाने वाली जनता मस्त थी और मुझे लगा कि शायद खुश भी. ख़ुश इसलिए भी क्योंकि इनकी उम्मीदें बड़ी नहीं हैं. आमतौर पर इंसान की हैसियत उम्मीदें को बड़ी नहीं बनने देती. रामदेवरा जा रही जनता के एक बड़े तबके के लिए दो जून का अच्छा खाना ख़ुशी दे सकती है. इसी का फ़ायदा हुक्मरान उठाते रहे हैं. शासक वर्ग इनको इतनी ही सुविधाएँ देता है जितने में इनका वजूद क़ायम रहे और इनकी हैसियत कभी बढ़ने नहीं पाए.

वापस लौटते हैं अपनी कहानी पर. रामदेवरा जाने वाली भीड़ के कारण पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर में धक्कामुक्की की स्थिति बन गई थी. हिंदुओं के प्रमुख तीर्थस्थानों में पुष्कर ही एक ऐसी जगह है जहां ब्रह्मा का मंदिर स्थापित है. वहां के हालात देखकर बड़े शहज़ादे बिफर गए और छोटे रुआंसा. भीड़ को नियंत्रित करने की कोई विशेष व्यवस्था नहीं थी. भगदड़ कैसे हो जाता है ये यहां समझा जा सकता था. खैर, लाइन में पौन घंटे की जोरआजमाइस के बाद दर्शन हुए.

दोनों साहबजादों को लगा कि चलो जान छूटी. लेकिन अभी पुष्कर सरोवर का दर्शन तो बाक़ी था. माना जाता है कि पुष्कर झील का निर्माण भगवान ब्रह्मा ने करवाया था. इसमें बावन स्नान घाट हैं. इन घाटों में वराह, ब्रह्म और गव घाट महत्त्वपूर्ण हैं. कार्तिक में यहां बड़ा मेला लगता है.

हमारे शुभचिंतकों ने पहले ही अगाह कल दिया था कि पंडों से बचकर रहना. दस रुपए पूजा की बात कह हज़ारों की 'प्रतिज्ञा' करा कर लूट लेते हैं. एक दिन पहले अजमेर में भी खादिमों के मायाजाल से बच निकलने में हम कामयाब रहे थे. हालांकि दरगाह के अंदर मुख्य खादिम भी बड़े नोट चढ़ाने की दरख्वास्त कम, आदेश ज़्यादा दे रहे थे. निकलते-निकलते एक ने बच्चों के गले में धागा डालकर वसूली कर ही ली. धर्म अलग हो सकते हैं लेकिन पंडों और खादिमों के लालच में अंतर रत्ती भर भी नहीं. वैसे मैंने एक चीज़ नोटिस की है. हम दान-पेटियों में पैसा डाले या न डालें लेकिन ग्रामीण श्रद्धालु जरुर दान करते हैं, दस-बीस रुपए ही सही.

ब्रह्म सरोवर पहुंचते ही पंडों ने घेर लिया. लेकिन हम सजग थे. हमारे सपाट चेहरे और 'बॉडी लैंग्वेज' को पढ़ वे समझ गए कि ये झांसे में आने वाले नहीं. लिहाज़ा ज़्यादा पीछे नहीं पड़े. थोड़ी हैरानी भी हुई कि आसानी से पीछा कैसे छोड़ दिया. वहां पहुंचकर ऐसा लगा कि प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान की हवा सरोवर परिसर की दीवारों से टकरा कर वापस लौट गई हो. अजमेर में भी स्वच्छता का यही आलम था. दरगाह के बाहर की सड़क पान और गुटके के पीक से रंगी पड़ी थी. लोग चाय और लस्सी पीकर ग्लास सड़क पर फेंक दे रहे थे. अब मैं मानने लगा हूं कि शिक्षा से स्वच्छता का बहुत ज़्यादा लेना-देना नहीं. अजमेर आते समय शताब्दी में एक पढ़ी-लिखी दीखने वाली महिला अपने दुधमुंहे बच्चे के बॉटल का निप्पल चेक कर रही थी. उसने सीटों के बीच रास्ते पर बेशर्मी से दूध टपका दिया. वॉशरुम जाते समय देखा कि उसके सीट के पास कूड़ा बिखरा पड़ा है. हद है.  इन्हें अनुशासित किया जा सकता है. दिल्ली मेट्रो ने ऐसा किया भी है.

सरोवर में मछलियों को दाना खिलाकर बच्चों की मुस्कान लौट आयी. अब वे लौटने के लिए तैयार नहीं थे. वापस गाड़ी के पास पहुंचे तो टैक्सी वाले ने गुज़ारिश की-"एक बार एंपोरियम में घूम आइए. मैंने यहां गाड़ी इसी शर्त पर खड़ी की है." राजस्थान टूरिज़म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन का एंपोरियम ख़ाली पड़ा था. हर काउंटर पर हमारे पहुंचने पर लाइट जलायी जाती और आगे बढ़ते ही बुझा दी जाती. अंग्रेज़ भी हमारी तरह विंडो शॉपिंग कर निकल गए. क्या ये बड़े-बड़े एंपोरियम मुनाफ़ा कमाते हैं या सरकार के सफेद हाथी हैं?

हमारी टैक्सी नई थी. अभी नंबर प्लेट भी नहीं लगाया था. लेकिन ड्राइवर "रेट्रो" क़िस्म का था. पेन ड्राइव लगाकर अस्सी के दशक के गाने बजा रहा था. छोटे साहबजादे ने धीरे से कहा-पापा, नए गाने लगाने को बोलो. ड्राइवर ने रेडियो ट्यून करने की कोशिश की लेकिन कर नहीं पाया. नई गाड़ी थी. अभी पूरा 'फंक्शन' समझ नहीं पाया था. छोटे साहबजादे मुझे कभी भी पुराने और खासकर दर्द भरे टाइप के गाने बजाने नहीं देते-"ये क्या पुराने गाने सुनते रहते हो. आपका ज़माना चला गया..." आजकल 'डेस्पासितो'' और 'ओ तेनू सूट-सूट करदा' ज़ुबान पर चढ़ा हुआ है.

अजमेर में आरटीडीसी का होटल 'ख़ादिम' साफ-सुथरा है. स्टाफ़ बेहद विनम्र हैं. सबसे अच्छी चीज़ यहां का खाना है. खाना लज़ीज़ और रेट वाजिब. यहाँ का हाफ प्लेट दिल्ली में फुल होता है. अजमेर जैसे छोटे शहर में भी ओला-उबर आ गए हैं. स्टेशन ड्रॉप करने लिए बुलाया उबर लेकिन आया ओला.
"साहब, शिकायत मत करना. यहां काम कम है इसलिए दोनों कंपनियों की बुकिंग ले लेता हूं."

एक बात समझ नहीं पाता हूं कि क्या आईटी वाले चौबीसों घंटे काम करते हैं. एयरपोर्ट पर, प्लेन में, रेस्टोरेंट में हर जगह लैपटॉप में सर घुसाए रहते हैं. वापसी की शताब्दी में भी एक लड़की ने लैपटॉप ऑन किया तो ट्रेन के रुकने पर ही ऑफ किया. न खाया न पिया. वैसे नहीं खाकर अच्छा ही किया. खाना यक था. हे प्रभु, बुलेट ट्रेन में ऐसा खाना मत परोसना!
प्रभु की सबसे प्रतिष्ठित ट्रेन शताब्दी आधे घंटे की देरी से दिल्ली पहुंची.

संजय किशोर एनडीटीवी के खेल विभाग में डिप्टी एडिटर हैं...
 
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