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This Article is From Oct 23, 2016

आत्मकथा : दरअसल इसका कोई एक लेखक होता ही नहीं

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    October 23, 2016 02:23 IST
    • Published On October 23, 2016 02:23 IST
    • Last Updated On October 23, 2016 02:23 IST
आत्मकथा सिर्फ अपनी कथा नहीं होती है. उनकी भी कथा होती है जो उसके पात्र होते हैं. मैं कोई बोधि वृक्ष के नीचे नहीं बैठा था कि ज्ञान प्राप्त हुआ है. नाटक देखकर आया हूं. ज़िंदगी की जटिलताओं को समझने के लिए कम से कम टीवी एंकरों को नाटक देखना चाहिए. चैनलों ने फ़िल्मों से बहुत कुछ उधार लिया है. अगर वे नाटक से ले पाते तो आज ये दुर्दशा नहीं होती.

मेरी कुछ ऐसी छवि बन गई है कि लोग यह भी मान लें कि क्वांटम फ़िज़िक्स में भी निपुण हूं तो मुझे हैरानी नहीं होगी. सच तो यह है कि मैंने ज़िंदगी में बहुत कम नाटक देखे हैं. कोई सत्रह अठारह साल पहले अग्नि और बरखा देखी थी. उससे पहले हिन्दू कॉलेज में इडिपस. उसके बाद बीच में कुछ देखा हो तो एकदम से याद नहीं लेकिन आज आत्मकथा नाटक देखा. देखकर लगा कि हमारा पेशा हमें चाहे जितना बुरा बना दे लेकिन अगर हम नाटक के संपर्क में रहे तो कुछ बचने की गुज़ाइश है.

कुलभूषण खरबंदा जी को हमेशा पर्दे पर देखा है. उनके ही आग्रह पर आत्मकथा देखने चला गया. अभिनय के अलावा उनकी आवाज़ का खिंचाव मुझे भाता है. चेहरे पर ख़ास किस्म का ग़ुरूर और जब अभिनय के बीच आप उस ग़ुरूर को भरभराते देखते हैं तो मुझे उनके अभिनय के कई क्षण याद रह जाते हैं. बहरहाल बात बीच में रोककर बता दे रहा हूं कि आप इस नाटक को गुड़गांव के एपिसेंटर में देख सकते हैं. 23 अक्टूबर को शाम साढ़े चार और साढ़े सात बजे देख सकते हैं. मुझे पता नहीं था कि वक्त नहीं होगा मगर ख़ुद से ज़बर्दस्ती कर चला गया. लौटा हूं तो नाटक का एक-एक पल भरकर लौटा हूं.

हम सब अनगिनत अंतर्विरोधों के दस्तावेज़ हैं. कहीं समझौते की गोद में नज़र आते हैं तो कहीं क्रांति के शिखर पर. कहीं चुप नज़र आते हैं तो कहीं मुखर. हम कभी भी कोई एक नहीं हो सकते न हमारी कोई किताब एक हो सकती है. आलोचकों के चिपकाये लेबल को जब लेखक अपने ऊपर रिसर्च कर रही प्रज्ञा के सामने खारिज करता है तो उसे पता भी नहीं होता कि उसकी रचनाओं के किरदार भी अपने लेखक से विद्रोह करने का साहस जुटा रहे हैं. प्रज्ञा तमाम प्रसंगों से बाहर होते हुए सबकुछ देखने के लिए लेखक को उकसाती है, चुनौती देती है, फिर ख़ुद ही किरदार बन जाती है. वो भी आत्मकथा का हिस्सा बन जाती है. लेखक की कथा की कई आत्मकथाएं तो उसके संबंधों के दायरे के बाहर जा चुके संबंधों की आलमारी में भी मिलती हैं.

मैंने इस नाटक से एक बात सीखी. मेरी कथा सिर्फ मेरे पास नहीं है. अनगिनत लोगों के पास है. जिनसे दोस्ती की और जिनसे नहीं की, उनके पास है. जिनको दुश्मन माना और जिनसे दोस्ती तोड़ ली उनके पास है. मेरी आत्मकथा मेरे पास नहीं है. उसे लिखने का मतलब है ख़ुद को लेकर एक सत्ता का ढांचा खड़ा करना है. ऐसा होगा तो जैसा हर सत्ता के साथ होता है, विद्रोह होता है. वो सारे लोग अपनी कथाएं लेकर सामने आ जाते हैं.

कुलभूषण खरबंदा के साथ साथ इस नाटक की तीन अन्य किरदारों की उपस्थिति शानदार रही. प्रज्ञा के किरदार को देखकर लगा कि ये तो बिल्कुल मेरी रिसर्चर दोस्तों की तरह है. वो कितना कुरेदती रही. रिसर्चर का किरदार देखकर लगा कि उनका जीवन कितना सख़्त होता होगा. आप बाहर से कितना भी चाहे जाएं, भीतर से अपने विषय के प्रति कितना कठोर होना होता होगा. लेखक की आत्मकथा के साथ साथ प्रज्ञा, वासंती और उत्तरा की भी आत्मकथाएं चलती हैं.

प्रज्ञा के रूप में अनुभा फतेहपुरिया का अभिनय शानदार है. उतना ही शानदार संचयिता भट्टाचार्जी और चेतना जालान का है. इन तीन किरदारों के बीच अंधेरे के एकांत में खरबंदा साहब के चेहरे के भाव को पढ़ता रहा. उन्हें देखते हुए सीलन वाली दीवार से चूने की परत की तरह धीरे धीरे छिटकता रहा. तीनों स्त्री पात्रों के कारण लेखक राजाध्यक्ष की आत्मकथा में जो हाई प्वाइंट आता है, आपको झकझोर कर रख देता है.

मैं बस अपनी प्रतिक्रिया लिख रहा हूं. समीक्षा नहीं. मुझे नाटक का बिल्कुल ज्ञान नहीं है. इतना तो कह सकता हूं कि एक बेहतरीन नाटक देखा. इस नाटक को देखने के बाद आपको आत्मकथा लिखने में ही नहीं, पढ़ने में भी मुश्किल होगी. यह नाटक आपके पाठक को भी बदल देता है. आत्मकथा का लेखक सिर्फ वही लेखक नहीं होता है. कई और लेखक होते हैं. आप किसी की आत्मकथा पढ़ ही नहीं सकते, कोई आत्मकथा लिख ही नहीं सकता.

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