तारीख 23 अप्रैल. दिन सोमवार. कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु से करीब 150 किलोमीटर दूर वरुणा में सुबह तक सड़कों पर चहल-पहल थी. बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बी एस येदियुरप्पा अपने समर्थकों के साथ मौजूद थे. उनके बेटे विजयेंद्र वरुणा सीट से पर्चा भरने के लिए तैयार थे. पर्चा भरने के लिए मुहूर्त भी देख लिया गया था. पर्चा भरने की आखिरी तारीख मंगलवार 24 अप्रैल थी लेकिन ज्योतिष के हिसाब से वह सही दिन नहीं था. इसलिए सोमवार को ही पर्चा भरने का फैसला हुआ. मीडिया में इसे लेकर बहुत उत्सुकता थी क्योंकि यहां महामुकाबला होने वाला था. एक तरफ पूर्व मुख्यमंत्री का बेटा तो उनके सामने मौजूदा मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का बेटा यतींद्र. तभी अचानक एक फोन आता है. येदियुरप्पा फोन पर बात करते हैं. दूसरी तरफ कौन है, यह पता नहीं चला. लेकिन इसके बाद येदियुरप्पा ऐलान करते हैं कि उनके बेटे विजयेंद्र चुनाव नहीं लड़ेंगे. समर्थकों में निराशा और गुस्सा छा जाता है. बीजेपी आलाकमान के खिलाफ नारे लगते हैं. येदियुरप्पा एनडीटीवी से कहते हैं कि विजयेंद्र को चुनाव नहीं लड़ाने फैसला उनका अपना है. जब पूछा जाता है कि वे इससे निराश हैं तो वे कहते हैं कि बिल्कुल नहीं.
लेकिन क्या वाकई ऐसा है? सूत्रों की मानें तो बेटे के चुनाव मैदान में न उतरने से येदियुरप्पा खासे दुखी हुए. उनके करीबी कहते हैं कि विजयेंद्र ने वरुणा से चुनाव लड़ने की तैयारी कर ली थी. वे कई महीनों से इलाके की खाक छान रहे थे. ज़मीन तैयार करने में काफी मेहनत और पैसा भी खर्च हुआ. लेकिन ऐन वक्त पर सब बेकार हो गया. हालांकि यह फैसला क्यों हुआ, इसे लेकर तमाम तरह की अटकलें लगती रहीं, लेकिन अब पुख्ता जानकारी मिली है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ?
बीजेपी सूत्रों की मानें तो इस फैसले के पीछे एक ही शख्स है. और वह हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. पीएम मोदी के दखल के बाद येदियुरप्पा के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं बचा था कि वे अपने बेटे के चुनाव मैदान में न उतरने का ऐलान खुद ही करें. इस बात पर तब मुहर लगी जब पीएम मोदी ने अपनी पहली चुनावी सभा में येदियुरप्पा की मौजूदगी में ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया पर टू प्लस वन के लिए निशाना साधा. टू प्लस वन यानी सिद्धारमैया के खुद दो सीटों पर और एक सीट पर उनके बेटे के चुनाव लड़ने को लेकर पीएम मोदी ने कांग्रेस के वंशवाद पर निशाना साधाय. मोदी ने उनके मंत्रियों को भी नहीं बख्शा. उन पर वन प्लस वन का आरोप लगाया. यानी एक सीट से खुद और दूसरे से उनके रिश्तेदारों के चुनाव लड़ने ज़िक्र किया. ऐसा नहीं है कि चुनावी सभाओं में सिद्धारमैया पर वंशवाद को लेकर हमला करने के लिए ज़रूरी हथियार जमा करने के मकसद भर से ही येदियुरप्पा के बेटे को टिकट देने से इनकार किया गया हो.
हालांकि इस सभा में पीएम मोदी ने कामदार बनाम नामदार का मुद्दा उठा कर साफ कर दिया कि वे वंशवाद की बात कर कांग्रेस पर हमला करते रहेंगे. लेकिन बीजेपी नेता कहते हैं कि पीएम मोदी का यह फैसला सिर्फ कर्नाटक भर तक ही सीमित नहीं है. बल्कि 2013 में उनके बीजेपी की चुनाव प्रचार समिति की कमान संभालने के बाद से ही इसका असर कई राज्यों में महसूस किया गया है और बीजेपी के कई दिग्गज नेताओं के अपने बेटे-बेटियों को आगे बढ़ाने के मंसूबों पर इससे पानी भी फिरा है.
बीजेपी नेता कहते हैं कि इसका सबसे पहला असर देखने को आया था जब लोक सभा चुनावों के टिकट वितरण के समय चुनाव समिति की बैठक में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के बेटे अभिषेक सिंह का नाम चर्चा में आया. बैठक में मौजूद नेताओं के मुताबिक तब मोदी के एक छोटे से सवाल भर ने ही राज्य के उम्मीदवारों की सूची के एलान को कुछ समय के लिए टाल दिया था. दूसरा वाकया तब का है जब नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह से राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे दिल्ली में रहने के बावजूद दूर हो गईं. तब कहा गया कि वे अपने बेटे समेत पसंद के लोगों के मंत्री न बनने से नाराज थीं. उत्तर प्रदेश में गृह मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज को टिकट तो दिया गया. लेकिन सरकार में मंत्री नहीं बनाया गया.
पार्टी के अंदरूनी सूत्र कहते हैं कि ऐसे मामलों में पीएम मोदी के निर्देश बिल्कुल स्पष्ट हैं. पार्टी के किसी भी नेता को जिसने संगठन में अपनी क्षमता, कुशलता और समर्पण को साबित किया हो, सिर्फ इस बात पर टिकट न देना ठीक नहीं होगा क्योंकि वह पार्टी के किसी बड़े नेता का पुत्र या पुत्री हो. इसलिए उनके चुनाव लड़ने पर रोक नहीं है. लेकिन बाद में यह अपेक्षा करना कि राज्य और केंद्र दोनों जगह परिवार के लोग सरकार में रहें, शायद उचित नहीं होगा. यह बीजेपी का एक तरह का अघोषित नियम है. ठीक उसी तरह जैसे 75 वर्ष की उम्र पार कर चुके नेताओं को चुनाव मैदान से दूर रखने का नियम.
हालांकि कर्नाटक में येदियुरप्पा बीजेपी के दूसरे नियम के अपवाद बने. 75 का होने के बावजूद बीजेपी ने न सिर्फ उन्हें चुनाव मैदान में उतारा बल्कि मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित किया. इसके पीछे राज्य के जातीय समीकरण भी काफी हद तक ज़िम्मेदार हैं. लेकिन पार्टी आलाकमान ने परिवार वाले नियम से उन्हें छूट नहीं दी है.
वंशवाद एक ऐसा मुद्दा है जिसे लेकर बीजेपी गांधी-नेहरु परिवार पर लंबे समय से वार करती आ रही है. हालांकि बीजेपी से पूछा जाता है कि उसके अपने नेताओं के वंशवाद का क्या? इस पर बीजेपी का जवाब होता है कि बीजेपी का अगला अध्यक्ष कौन होगा यह किसी को नहीं पता, लेकिन कांग्रेस का अगला अध्यक्ष कौन होगा, यह सब जानते हैं.
पर अंदरखाते बीजेपी को भी यह एहसास है कि जिन नेता पुत्र-पुत्रियों ने संगठन का काम कर पहचान बनाई है उनके दावों को खारिज करना आसान नहीं होगा. लेकिन जहां यह नेता पुत्र-पुत्री सत्ता का समानांतर केंद्र बनने का प्रयास करें, वहां इन कोशिशों को शुरु होने से पहले ही खत्म करने की बीजेपी की नीति है. कम से कम कर्नाटक में तो यही हुआ है.
(अखिलेश शर्मा एनडीटीवी इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
This Article is From May 03, 2018
बीजेपी के वंशवाद पर चला मोदी का चाबुक
Akhilesh Sharma
- ब्लॉग,
-
Updated:मई 14, 2018 21:15 pm IST
-
Published On मई 03, 2018 10:52 am IST
-
Last Updated On मई 14, 2018 21:15 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं