देश के सैकड़ों जगहों पर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन हुए, लोग जमा हुए और आए और चले गए. गंभीरता से किसी ने उन प्रदर्शनों को भी नहीं लिया. वर्ना उनसे बात करने का कोई तरीका निकाला जा सकता था. अब भी हिंसक प्रदर्शनों से ज़्यादा शांतिपूर्ण प्रदर्शनों की संख्या ही ज्यादा होगी. हरियाणा के मेवात में प्रदर्शनकारियों की संख्या बहुत ज्यादा थी मगर वहां कोई हिंसा नहीं हुई. बिहार के पूर्णिया में भी काफी बड़ी रैली हुई लेकिन वहां भी हिंसा नहीं हुई. मुंबई के मुंबरा में कितने ही लोग आकर चले गए. केरल के त्रिची में भी भारी संख्या में लोग जमा हुए मगर हिंसा नहीं हुई. नागपुर में भी काफी बड़ा मार्च हुआ. अगर गिनती की जाए कि कहां कहां बड़ी रैली हुई और हिंसा नहीं हुई तो उनकी संख्या ज़्यादा होगी. लेकिन जब हिंसा होती है तो लोगों और पुलिस की भूमिका को लेकर कई सवाल उभरते हैं, कई तरह के वीडियो आ जाते हैं. मीडिया दोनों को छोड़ देता है. उसका ज़ोर सिर्फ हिंसा की तस्वीरों में होता है लेकिन कारणों की खोज में दिलचस्पी नहीं होती. पुलिस के बयान ही हावी होते हैं. चैनलों के समय का बड़ा हिस्सा डिबेट में चला जाता है. लोग व्हाट्सएप में वीडियो ठेल ठेल कर जवाब ठूंढते रहते हैं. जैसे जो लोग मारे गए हैं उनके परिवार की कहानी आपको कहीं नहीं दिखेगी.
हिंसा होती है तो लोगों का पक्ष कमज़ोर हो जाता है. इसका भी एक सिस्टम बना हुआ है. इसीलिए गांधी जी ने चौरी चौरा की हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था. जब प्रदर्शन नियंत्रण से बाहर होने लगे तो रोक देना चाहिए. हिंसा के कई कारण होते हैं फिर भी इसका सबसे बुरा असर प्रदर्शन के नतीजे पर पड़ता है. जो लोग ध्यान से सुन रहे होते हैं वो भी हिंसा के बहाने सुनना बंद कर देते हैं. कई प्रदर्शनों में हिंसा बढ़ने लगी है. एक ट्रेंड दिख रहा है. जहां ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में लोग आ रहे हैं वहां हिंसा नहीं है. जहां तुलनात्मक रूप से कम लोग हैं वहां हिंसा कम हो रही है. हिंसा के बाद वायरल होने वाले वीडियो से तुरंत किसी नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहिए. उत्तेजित नहीं होना चाहिए. लेकिन इन वीडियो को खारिज कर देना या किनारे लगा देना भी ठीक नहीं है जो कि हो रहा है. इस बार की रिपोर्टिंग में पुलिस की भूमिका वाले वीडियो गायब हो गए हैं. उन पर ठीक से और ठोस तरीके से बात नहीं है.
बहराइच का एक वीडियो है जिसमें आप देख सकते हैं कि पुलिस किस तरह से प्रदर्शनकारियों को दबोच कर मार रही है. उसका मकसद भय से नियंत्रण से ज्यादा कुछ और लगता है. लोग जवाब में कुछ नहीं कर रहे हैं. सिर्फ पीछे हटते जा रहे हैं लेकिन पुलिस शांत नहीं दिखती है. लाठी से मारे जा रही है. आप यह तस्वीर देखर तुरंत एक नतीजे पर पहुंचेंगे लेकिन इसके ठीक पहले क्या हुआ पता नहीं. फिर भी यह तस्वीर विचलित करती है. गोरखपुर के एक वीडियो में आप देख सकते हैं कि दोनों तरफ से पत्थर चल रहे हैं. पुलिस पत्थर चलाती दिख रही है. पूरी गली में ईंट के टुकड़े भर गए हैं. अगर आप दूसरी साइड से वीडियो बनाएं तो सिर्फ पुलिस ईंट चलाती दिखेगी लेकिन इस वीडियो में आप देख रहे हैं कि दूसरी तरफ से भी लोग पत्थर चला रहे हैं. एक किस्म का मोर्चा खुला हुआ है. बहुत सारे वीडियो में लोग पत्थर चलाते दिख रहे हैं. कई बार प्रदर्शनकारियों के बीच से ही पत्थर चलते हैं. साफ-साफ दिखते हैं. कई बार पत्थर चलाने वालों की पहचान पर विवाद हुआ है. सीलमपुर और लखनऊ में कहा गया कि वो प्रदर्शन का हिस्सा नहीं थे. उनकी पहचान कुछ और थी. इस तरह का विवाद हो जाता है. कहीं लोग पुलिस की चपेट में हैं तो कहीं पुलिस लोगों की चपेट में है. अहमदाबाद में पुलिस को ही चपेट में ले लिया. यह दृश्य भयावह था लेकिन इसी भीड़ से सात लड़के निकल कर आते हैं और पुलिस वाले को बचाते हैं. कुछ वीडियो में पुलिस हिंसा के बाद उन जगहों पर बाद में पत्थर चलाती दिखती है. घरों में घुस कर पुलिस की बर्बरता के कई वीडियो आए हैं जिनकी कोई ज़रूरत नहीं थी. सड़क पर पत्थर चले हैं तो उसके जवाब में पुलिस किसी भी घर में घुसकर औरतों या मर्दों को पकड़ कर पीट नहीं सकती है. ये पुलिसिंग नहीं है. पुलिस पानी की बौछारों का इस्तमाल कम कर रही है. सीधे लाठी, और आंसू गैस के गोले दागने के विजुअल आ रहे हैं. तब भी जब भीड़ दूर जा चुकी है.
एक दूसरे को वीडियो फार्वर्ड कर पैनिक न मचाएं. कई बार इस चक्कर में पुराने वीडियो भी फार्वर्ड होने लगते हैं और एक शहर का फार्वर्ड हुआ वीडियो दूसरे शहर के नाम से फार्वर्ड होने लगता है. यूपी के तेरह शहरों में प्रदर्शनों के दौरान हिंसा हुई है. अभी पिछले ही महीने बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि विवाद पर फैसला आया तो सुरक्षा की कितनी तैयारी थी। तब तो कोई हिंसा नहीं हुई. फिर अब यूपी में हर दूसरा प्रदर्शन हिंसक क्यों हो जा रहा है? क्या सिर्फ लोग कारण हैं? पुलिस बिल्कुल नहीं? दो दिनों में 7 लोग गोली से मर गए और पुलिस कहती है कि उसने गोली नहीं चलाई. क्या यह यकीन करने लायक तर्क है या तथ्य है. मंगलुरु में भी दो लोगों की मौत हुई है. पुलिस के जो भी तर्क हों, लोग अपनी तरफ से सबूत और वीडियो लेकर घूम रहे हैं. तो लोगों की दलील की तरफ से पुलिस पर सवाल नहीं है सिर्फ ये चलता है कि लोगों ने हिंसा की.
पुलिस भी अपनी तरफ से कई बार नहीं बताती है कि उसकी तरफ से कितनी हिंसा हुई. वो हमेशा सही लगती है जबकि होती नहीं है. जामिया मिल्लिया में हुई बर्बरता के बाद पुलिस ने पहली प्रेस कांफ्रेस में यह बात नहीं बताई कि तीन लोगों को गोली लगी है. कई तरह की थ्योरी पुलिस की तरफ से ही दी गई. पुलिस ने कहा कि बुलेट नहीं है. फिर कहा कि देसी कट्टा चला है और किसी बाहरी ने चलाया. फिर वीडियो आ गया कि पुलिस के हाथ में ही पिस्तौल है. वो गोली चला रही है. मेडिको लीगल रिपोर्ट में लिखा है कि शोएब और एजाज़ को पुलिस फायरिंग के कारण बुलेट इंजरी हुई है. अब इस पर चर्चा ही नहीं है. जामिया की लाइब्रेरी में कौन सी हिंसा हो रही थी जहां लड़कियों को मारा गया. सारे सवाल गायब हैं.
कई तरह के वीडियो से गुज़रते हुए पुलिस की सोच में भयंकर सांप्रदायिकता भी दिखी. कई वीडियो में अफसर और सिपाही गालियां देते सुनाई देते हैं. अपने अफसरों से भी गालियों से बात कर रहे हैं और लोगों से भी. गालियों के अलावा सांप्रदायिक भाषा का भी प्रयोग आम है. लेकिन मीडिया इसे महत्व नहीं देता है. पुलिस में एक और चेहरा है जो पुलिस का चेहरा नहीं है लेकिन है पुलिस में ही.
बंगुलरू में पुलिस ने जिन प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया उन्हें एक मैरिज हाल में लेकर गई. उन्हें टमोटे राइस सांभर रसम और दही चावल भी खिलाया. प्रोफेसर राम गुहा को भी खाना खिलाया गया. अस्सिटेंट कमिश्नर के गौड़ा ने कहा कि हम पहले इंसान हैं फिर खाकी वर्दी हैं. डीसीपी चेतन सिंह राठौड़ चाहते थे कि प्रदर्शन हो गया तो लोग जाएं मगर जब लोगों ने जाने से इंकार किया तो डीसीपी खुद राष्ट्रगान गाने लग गए. पुलिस और जनता दोनों ने जनगणमण गाया और शांतिपूर्ण तरीके से वापस हो गए.
मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान में भी 19 दिसंबर को भारी संख्या में लोग जमा हुए थे. यहां के लोग जाते वक्त पुलिस की तारीफ कर रहे थे. मुंबई पुलिस ज़िंदाबाद के नारे लगाए. लोगों ने ट्विटर पर लिखा कि दिल्ली पुलिस मुंबई पुलिस से सीखे.
दिल्ली में जामिया लाठीचार्च के बाद जंतरमंतर पर लड़कियों ने पुलिस वाले को फूल दिए और गाने गाए कि दिल्ली पुलिस हमसे बात करो, आओ हमारे साथ चलो. हम तुमसे बात करेंगे न कि घूंसा लात करेंगे.
कहीं प्रदर्शन प्रदर्शनकारी के कारण हिंसक होता है तो कहीं पुलिस के कारण भी प्रदर्शन हिंसक हो जाते हैं. रविवार को रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री की सभा है. क्या दिल्ली पुलिस धारा 144 लगा लेगी? ज़ाहिर है नहीं लगाएगी. तो इस तरह से धारा 144 भी सरकारी हिंसा का रूप बन जाती है.
कनाट प्लेस के सेंट्रल पार्क में नागरिकता संशोधन कानून पर सभा हुई. बीजेपी के अध्यक्ष मनोज तिवारी यहां मौजूद थे. इस प्रदर्शन की इजाज़त थी. मनोज तिवारी ने लोगों को समझाया कि नागरिकता संशोधन कानून से किसी को चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है. समर्थन में लोग बैनर पोस्टर के साथ आए थे. उम्मीद है मनोज तिवारी गुवाहाटी में भी इस कानून के समर्थन में रैली करेंगे क्योंकि वहां काफी विरोध हो रहा है.
आप देख सकते हैं कि जामा मस्जिद के बाहर बड़ी संख्या में लोग इक्ट्ठे हो गए. चंद्रशेखर आजाद को डिटेन किया तो उनके समर्थकों ने छुड़ा लिया. मगर जामा मस्जिद से जंतर मंतर की तरफ मार्च किया तो दिल्ली गेट से आगे इजाज़त नहीं मिली. शाम होते ही प्रदर्शनकारी अड़ गए कि जंतर मंतर जाएंगे. दरियागंज इलाके में रोका रोकी हुई तो पुलिस ने पीछे हटने को कहा. एक गाड़ी जला दी गई. और उसके बाद पुलिस ने लाठी चार्ज किया. सड़कों पर जूते चप्पल बिखरे हुए थे. इसीलिए अगर हिंसा नहीं थमी तो फिर यह आंदोलन वैसे ही थमेगा जैसे पुलिस चाहेगी. शहर और आस पास की संप्तियों को कितना नुकसान होता है. यहां आए लोगों को साफ नहीं था कि किसने बुलाया था. ऐसे में एक नियम का पालन करें. जब संगठन स्पष्ट न हो तो न जाएं. पुलिस के अफसरों को भी चोट आई है. दो लोगों को इमरजेंसी में भरती कराया गया है. कुछ लोगों का कहना है कि पत्थर नहीं चला फिर भी लाठी चली. पुलिस कहती है बाहरी लोग आ गए. हमेशा बाहर आ लोगों में बाहरी लोग आ जाते हैं. दरियागंज में ही वीडियो चल रहा है कि छत पर पुलिस ईंटे तोड़ रही हैं और चला रही है. जब तक हम ऐसे वीडियो औ सवालों का सामना नहीं करेंगे लोगों में भरोसा नहीं बढ़ेगा.
मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान में करीब 25000 लोग सभा में आए. इस सभा की खूबियों की विस्तार से चर्चा नहीं हो सकी है. इस प्रदर्शन की काफी चर्चा है. इस प्रदर्शन की खास बात यह रही है कि फिल्म जगत के कई लोग खुलकर सामने आए. हुमा कुरैशी, नंदिता दास, स्वरा भास्कर, कोंकणा सेन शर्मा, अदिति राव हैदरी, मिनि माथुर, अनुप्रिया गोयनका, फरहान अख्तर, अनुराग कश्यप, अनुभव सिन्हा, राकेश ओेम प्रकाश सिन्हा, जावेद जाफरी, कबीर खान, सुशांत सिंह शामिल हुए. हमारे सहयोगी सुनील कुमार सिंह का कहना था कि मुंबई के इस प्रदर्शन में लोग अपने तर्कों और तथ्यों से लैस होकर आए थे.
आप जानते हैं कि संसद में साफ-साफ गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि वे नागरिकता कानून के बाद नागरिकता रजिस्टर लेकर आ रहे हैं. इसके अलावा पीआईबी ने प्रश्नोत्तरी जारी की है जिसे faq कहते हैं. इसे आप ज़रूर पढ़ें. इसमें एक जगह कहा है कि नागरिकता रजिस्टर आएगा तो क्या शर्तें होंगी. शर्तें बता कर यह भी लिखा कि अंतिम फैसला नहीं. आधार कार्ड और वोटर आई कार्ड भी मांगे जा सकते हैं. 128 करोड़ लोगों के पास आधार है, 90 करोड़ के पास वोटर आई कार्ड. तो फिर नागरिकता रजिस्टर के अभ्यास की ज़रूरत ही क्या है. आधार भी तो इसीलिए हुआ था. योगेंद्र यादव कहते हैं कि बेरोज़गारों का रज़िस्टर क्यों नहीं बनाते हैं. जो भी है बीजेपी और सरकार अड़ी हुई है कि नागरिकता रजिस्टर आएगा. तब फिर किस आधार पर नीतीश कुमार कह रहे हैं कि नागरिकता रजिस्टर लागू नहीं होने देंगे. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने नागरिकता संशोधन बिल का काफी विरोध किया था. लेकिन जब समर्थन किया तो पब्लिक को नहीं बताया. बीजेपी ने नीतीश कुमार के इस बयान को बहुत महत्व नहीं दिया है. उसी तरह नागरिकता संशोधन कानून का समर्थन करने वाली बीजेडी भी नागरिकता रजिस्टर का विरोध कर रही है. बीजेपी ने बीजेडी के बयान को भी तवज्जो नहीं दी है.
विपक्षी खेमे में ममता बनर्जी की तरह नागरिकता कानून और रजिस्टर का विरोध कोई नहीं कर रहा है. बाकी दलों के कार्यक्रम एक दिन या दो घंटे के होते हैं मगर ममता बनर्जी 16 दिसंबर से लेकर 27 दिसंबर तक विरोध को अलग-अलग तरीके से लांच कर रही हैं. कोलकाता में हर शाम उनका भाषण होने लगता है. संयुक्त राष्ट्र ने नागरिकता कानून की निंदा की है लेकिन जब ममता बनर्जी ने संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमत संग्रह की बात कह दी तो बीजेपी ने उनसे माफी की मांग कर दी. ममता ने सफाई देते हुए कहा कि उन्होंने ओपिनियन पोल की बात कही थी कि जब यह पोल हो तो संयुक्त राष्ट्र भी देखे और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी देखे.
बंगाल से टेलिग्राफ की एक खबर काफी चर्चा है. बंगाल के बहरामपुर में छह लोगों को गिरफ्तार किया गया है. इन लोगों को ट्रेन के इंजन पर पत्थर मारते हुए गांव के लोगों ने देखा. गांव वालों ने कहा कि रेलवे लाइन के पास ये कपड़े बदल कर लुंगी और टोपी पहन रहे थे. पुलिस ने जब गिरफ्तार कर पूछताछ की तो लड़कों ने बताया कि वे यू टयूब के लिए एक वीडियो बना रहे थे. मगर पुलिस को ऐसा कोई चैनल नहीं दिखा पाए जहां पर ये वीडियो अपलोड किया जाता. इनमें से एक को बीजेपी का कार्यकर्ता बताया जाता है, बीजेपी ने इंकार किया है. सूत्रों के हवाले से टेलिग्राफ ने लिखा है कि बीजेपी का कार्यकर्ता है. लेकिन टेलिग्राफ में बाकी पांच लोगों के डिटेल नहीं हैं. वे कौन हैं कहां के हैं और क्या हैं.
पुलिस के पक्ष पर तुरंत विश्वास करना मुश्किल है लेकिन नज़रअंदाज़ भी नहीं करना चाहिए. हमारी सहयोगी नीता शर्मा को गृह मंत्रालय के सूत्रों ने बताया है कि नागरिकता कानून के ड्राफ्ट पर विचार किया जाएगा. सरकार को फीडबैक मिला है कि अगर कानून लागू हुआ तो हालात बेकाबू हो जाएंगे. आधिकारिक तौर पर अभी तक सरकार का यही स्टैंड है कि चट्टान की तरह का फैसला है. नागरिकता कानून पास होने के वक्त अमित शाह ने साफ शब्दों में कहा है कि वे नागरिकता रजिस्टर लेकर आ रहे हैं. उनका एक पुराना बयान भी काफी देखा जा रहा है कि जिसमें वे बता रहे हैं कि कब-कब क्या-क्या होगा.
आज के अखबारों में कई जगह खबर है कि असम के बीजेपी के विधायकों ने मुख्यमंत्री सोनेवाल से कहा है कि जनता से बात कीजिए. असम में नागरिकता कानून के विरोध का शिकार बीजेपी के विधायक भी हुए हैं. कार्यकर्ताओं में भी कानून का विरोध है. इंडियन एक्सप्रेस में एक विधायक पद्मा हज़ारिका का बयान छपा है. हज़ारिका ने कहा है कि 6 दिसंबर को मैंने खुद 500 बांग्लादेशी को अपने दम पर निकाला और दौड़ा कर भगाया है. क्या मैंने ऐसा अपने समुदाय के विरोध में कोई काम किया है? अब यह साफ नहीं है कि 6 दिसंबर को पद्मा हज़ारिका ने जिन 500 बांग्लादेशी घुसपैठियों को खदेड़ा है उनमें कितने हिन्दू बांग्लादेशी हैं और कितने मुस्लिम बांग्लादेशी हैं. असम में धर्म के आधार पर बसाने और भगाने का ही तो विरोध है. सबको भगाने की बात है. बीजेपी को देखना चाहिए कि वो देश भर में हिन्दू बांग्लादेशियों का पक्ष ले रही है और असम में उसके विधायक खदेड़ते हुए कम से कम न दिखें. असम के मुख्यमंत्री सोनेवाल का बयान छपा है कि नागरिकता संशोधन कानून के तहत एक भी नया आदमी बांग्लादेश से नहीं आएगा. असम में नागरिकता मिलने वाले लोगों की तादाद बहुत कम होगी. तो कहां पर ज्यादा होगी? क्या उनके पास असम के लिए यही सफाई बची है. हिन्दी प्रदेश के दर्शकों को इस मुद्दे को ठीक से समझने की ज़रूरत है. यूपी बिहार का मसला असम में जाकर बदल जाता है. इस वक्त असम में रहने वाले हिन्दू बांग्लादेशी के पक्ष में कोई सभा नहीं कर रहा है. न ही उनके जश्न मनाने की अभी तक तस्वीरें आ सकी हैं. न ही मुख्यमंत्री इन लोगों के बीच जाकर नागिरकता संशोधन कानून की खूबिया समझा रहे हैं. आम तौर पर यही होता है कि जिस समुदाय के लिए कानून बनता है, राजनीतिक दल उनकी रैली बुलाते हैं, खूब भाषण होता है. क्या असम में हिन्दू बांग्लादेशियों के पक्ष में कोई सभा होगी?