मुझे यकीन है कि एक दिन ऐसा आएगा जब सरकार विज्ञापन देते वक्त उसी पन्ने या होर्डिंग पर उसका खर्च बताएगी जैसे जब केरल के मुख्यमंत्री पिनारायी विजयन का विज्ञापन अंग्रेज़ी के अख़बारों में छपा था तब बीजेपी के नेता आर बालाशंकर ने ट्वीट किया कि सीपीएम कितनी बाज़ारवादी बन गई जिसने पिनारायी के शपथ ग्रहण के मौके पर राष्ट्रीय अखबारों में दो पन्ने का विज्ञापन दिया है। डीएनए अख़बार ने भारतीय जनता पार्टी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का बयान छापा है कि ऐसा लगता है कि सीपीएम अपनी विचारधारा से दूर जा रही है। पार्टी उनके कदमों का अनुकरण कर रही है जिनकी आलोचना करती थी।
वैसे मौका था कि आज सीपीएम के नेता जमकर मोदी सरकार के इस विज्ञापन को लेकर हंगामा करते, पर लगता है कि अख़बार वे भी नहीं ठीक से नहीं पढ़ते हैं। कुल मिलाकर मामला इज़ इक्वल टू का है। विज्ञापन सिर्फ विरोधी की सरकार का ग़लत है। अपनी सरकार का नहीं। अगर विरोधी की सरकार हमारी पार्टी के अख़बार में विज्ञापन दे तो ग़लत नहीं है। बंगाल से सीपीएम का एक मुखपत्र अखबार है 'गणशक्ति'। पार्टी का ही अखबार है। इस अखबार के पहले पन्ने पर मोदी सरकार का विज्ञापन छपा है। कैलाश विजयवर्गीय जी ने 'गणशक्ति' का पहला पन्ना देखा होता तो डर ही जाते और कहते कि कहीं सीपीएम अपनी विचारधारा से दूर जाते-जाते उनकी विचारधारा के करीब तो नहीं आ रही है। क्या ऐसा दिन आ सकता है कि बीजेपी के 'कमल संदेश' पर सोनिया गांधी का फोटो छप जाए और कांग्रेस के मुखपत्र 'कांग्रेस संदेश' पर प्रधानमंत्री मोदी का। 'कमल संदेश' और 'कांग्रेस संदेश', नाम भी एक समान है दोनों का।
'सामना' शिवसेना का अखबार है। इसके संपादकीय के बारे में माना जाता है कि यह पार्टी और पार्टी प्रमुख की राय है। 'सामना' में मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर संपादकीय छपा है। इसमें कहा गया है कि मोदी मैजिक नहीं चला। क्षेत्रीय दलों को नहीं हरा पाए। 'सामना' ने लिखा है कि मोदी सरकार ने एक के बाद एक योजनाएं शुरू कीं, लेकिन लोगों को कुछ ही योजनाओं के बारे में पता है। पुरानी सरकार भी यही सब योजनाएं अलग नाम से चला रही थी, जो भ्रष्टाचार में फंस कर रह गई।
शायद कहने का यह मतलब है कि इन विज्ञापनों का खास लाभ नहीं हो पा रहा है। मैंने भी आपसे कहा है कि विज्ञापन आपके पैसे से ही छपते हैं इसलिए आप ज़रूर देखें। पढ़ें कि सरकार ने क्या-क्या काम किया है। वैसे मोदी सरकार ने 'सामना' अखबार में पहले पन्ने के लिए अपनी सरकार का विज्ञापन दिया है। पहले पन्ने पर मोदी जी नज़र आ रहे हैं। संपादकीय पन्ने पर मोदी जी की आलोचना है।
कांग्रेस ने कहा है कि ये विज्ञापनों की सरकार है। विज्ञापन को लेकर कांग्रेस और बीजेपी अक्सर दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार की घोर आलोचना करते हैं। यह भी सही है कि किसी ने 500 करोड़ से अधिक का बजट नहीं सुना था, इसलिए भी लोगों में नाराज़गी बढ़ी लेकिन क्या किसी को पता है कि केंद्र के इन विज्ञापनों पर कितने खर्च हुए। पता चले तब तो हंगामा हो कि कितना पैसा खर्च हुआ। आम पार्टी पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री केजरीवाल ने जब अपने घर आए अख़बारों के पहले पन्ने पर मोदी ही मोदी देखा तो उन्हें लगा कि इज़ इक्वल टू करने का मौका है। उन्होंने झट से ट्वीट किये और पट से चैनलों पर चल भी गए। ट्विट पर मुख्यमंत्री कहते हैं कि मोदी सरकार दो साल की सालगिरह के कार्यक्रम पर 1000 करोड़ रुपये से ज़्यादा ख़र्च कर रही है। जबकि दिल्ली सरकार के सभी विभागों का सालाना विज्ञापन खर्च 150 करोड़ से भी कम है।
दिक्कत हमारी राजनीति है। प्रतिस्पर्धा के चक्कर में ये दल दलील कम अपना फायदा ज़्यादा देखते हैं, इसलिए ऐसे मसलों में फंस जाते हैं। यह भी तो सोचना होगा कि हमीं पूछते हैं कि सरकार ने क्या किया। तो सरकार कैसे बताएगी। एक तरीका विज्ञापन तो है ही। अब आपको एक किसान की कहानी बताता हूं। नाशिक से किशोर बेलसरे ने एक किसान की कहानी भेजी है।
एक रुपये का सिक्का लिए ये किसान आपसे कुछ कहना चाहता है। देवीदास परभणे की ज़िंदगी का गणित अगर आप सुलझा सकते हैं तो प्लीज़ डू समथिंग। देवीदास के पास पुणे के बाज़ार की रसीद है। देवीदास जी 952 किलो प्याज़ बेचने आए थे। बेचकर जब हिसाब किया तो बचा एक रुपया। ऐसा नहीं है कि उन्हें दाम नहीं मिले। 952 किलो प्याज़ बेचकर उन्हें 1523 रुपये 20 पैसे मिले।
कमाई: 1,523.20 रु
ट्रांसपोर्ट: 1,320.00 रु
कमीशन: 91.35 रु
मज़दूरी: 77.55 रु
अन्य : 33.30 रु
कुल बचत: 1.00 रु
दरअसल हुआ यह है कि नाशिक में एशिया के प्याज़ के सबसे बड़े थोक बाज़ार में अप्रैल से दाम गिरकर एक-तिहाई रह गए हैं। किसानों का कहना है कि 100 किलो प्याज़ के लिए हमें 400 से 450 रुपये मिले हैं। जबकि उन्हें 1100 से 1200 रुपये मिलने चाहिए। इस साल प्याज़ की बंपर फसल हुई है इसलिए भी दाम गिरे हैं। हर साल ये कहीं न कहीं होता है। कभी आलू के किसान बंपर फसल के फेर में फंसते हैं तो कभी प्याज़ तो कभी किसी और चीज़ के किसान। अब किसान सरकार से प्रति क्विंटल पर 300 से 400 रुपये की सब्सिडी मांग रहे हैं।
अगर महीनों की मेहनत पर किसान के हाथ में एक रुपया बचेगा तो समझिये कि हालत कितनी ख़राब है। हम कृषि मंत्रालय की कृषि लागत और मूल्य आयोग की साइट पर गए। यह देखने के लिए कि किस फसल में किसान को लागत की तुलना में कितना मुनाफा होता है। इसकी साइट पर रिपोर्ट तो 2015-16 के हैं लेकिन उनके भीतर लागत और मुनाफे के जो आंकड़े हैं वो 2013-14 के हैं। इससे यह पता नहीं चलता कि नई सरकार के आने के बाद खेती में मुनाफा कितना बढ़ा है। इन आंकड़ों के अनुसार एक हेक्टेयर खेत में किसान ने धान उगाने के लिए 22,645 रुपये लगा दिये। किसान को मिला 24,151 रुपये यानी मुनाफा हुआ 1,506 रुपये। क्या किसान का इससे काम चलेगा। वो कर्ज लेता है तो उसका ब्याज भी होता होगा। इस रिपोर्ट के अनुसार धान की खेत में मुनाफा 10 फीसदी रहा, मकई में 12 फीसदी मुनाफा रहा। ज्वार में -.2 फीसदी मुनाफा रहा। बाजरा में -3 फीसदी मुनाफा। मूंग की खेती 6 का मुनाफा रहा।
आंकड़ों को खोजने और पढ़ने में काफी सावधानी की ज़रूरत होती है। फिर भी जब सरकार का ज़ोर आंकड़ों पर इतना रहता है तो कृषि मंत्रालय के इस आयोग को हर साल का ब्योरा देना चाहिए। कृषि मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार 2014-15 में धान का खरीद मूल्य 1,360 रुपये क्विटंल था, जिसे मोदी सरकार ने 15-16 में बढ़ाकर 1410 रुपये प्रति क्विंटल किया है। क्या 50 रुपये की इस वृद्धि से किसानों को लागत का 50 फीसदी मुनाफा मिला। क्या वे लागत भी वसूल पा रहे हैं। लोकसभा चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने वादा किया था सरकार बनने पर किसानों को लागत मूल्य के अलावा 50 प्रतिशत मुनाफा मिलेगा। हमने ये वादा इसलिए याद दिलाया क्योंकि प्रधानमंत्री जी ने गुरुवार को सहारनपुर में मुझे ऐसा ही करने के लिए कहा है। क्या पता इससे किसानों का भला हो जाए और फिर किसानों का भला होगा तो प्रधानमंत्री को भी वाहवाही मिलेगी।