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प्रियदर्शन

एनडीटीवी इंडिया में 15 वर्षों से कार्यरत. उपन्यास 'ज़िंदगी लाइव', कहानी संग्रह 'बारिश, धुआं और दोस्त' और 'उसके हिस्से का जादू', कविता संग्रह 'नष्ट कुछ भी नहीं होता' सहित नौ किताबें प्रकाशित. कविता संग्रह मराठी में और उपन्यास अंग्रेज़ी में अनूदित. सलमान रुश्दी और अरुंधती रॉय की कृतियों सहित सात किताबों का अनुवाद और तीन किताबों का संपादन. विविध राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर तीन दशक से नियमित विविधतापूर्ण लेखन और हिंदी की सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन.

  • इन कुछ वर्षों में ही अपराजिता शर्मा के साथ आत्मीयता का एक मज़बूत धागा बहुत गहराई से जुड़ता चला गया. मैंने पाया कि वह बहुत प्रतिबद्ध क़िस्म की कलाकार है. मौजूदा राजनीतिक रुझानों के विपरीत उसने बहुत खुल कर अपनी राय बार-बार जाहिर की और अपने रेखांकनों के ज़रिए अपने हिस्से का प्रतिरोध लगातार जताया.
  • दरअसल गांधी को समझना इस देश के गुणसूत्रों को भी समझना है. गांधी इस देश की मिट्टी को पहचानते हैं. बेशक, इस पहचान को लेकर वे बीच-बीच में अपनी राय बदलते भी हैं. लेकिन सत्य, अहिंसा, सहिष्णुता उनके दर्शन के बीज शब्द हैं. वे यह भी मानते हैं कि ये बीज उन्हें भारतीयता की उदार परंपरा से मिले हैं. मगर ऐसा नहीं कि इस परंपरा से जो भी मिल रहा है, वह उन्हें स्वीकार्य है. इसके क्रूर या अमानवीय तत्वों की वे आलोचना करते हैं और उन्हें बदलने की कोशिश करते हैं.
  • इसमें शक नहीं कि महात्मा गांधी सावरकर की रिहाई के हक़ में थे. यही नहीं, अपनी रिहाई न होने से मायूस सावरकर जिन लोगों को चिट्ठियां लिख रहे थे या तार भेज रहे थे, उनमें महात्मा गांधी भी थे. महात्मा गांधी ने भी सावरकर की रिहाई को लेकर ब्रिटिश सरकार को चिट्ठी लिखी थी. यह जानना दिलचस्प है कि सावरकर की रिहाई के लिए गांधी ने क्या-क्या दलीलें दी थीं. महात्मा गांधी ने बेशक सावरकर के शौर्य की तारीफ़ की थी, लेकिन यह भी कहा था कि वे ब्रिटिश सरकार के वफ़ादार हैं. वे मानते हैं कि भारत के सर्वोत्तम हित ब्रिटिश सरकार के साथ ही रहने में हैं.
  • तीन दिन से लखीमपुर खीरी में जो कुछ हो रहा है, वह संवैधानिक भावनाओं और प्रतिज्ञाओं के प्रति उत्तर प्रदेश सरकार और भारतीय जनता पार्टी की अक्षम्य और आपराधिक अवहेलना का एक नया उदाहरण है.
  • यूपी में पिछले दिनों जो मुठभेड़ संस्कृति पैदा हुई है, वह कानून के प्रति पुलिस की अवहेलना को कुछ और बढ़ाती है.
  • आज की तारीख़ में कांग्रेस के बारे में क्या लिखा जाए? क्या नवजोत सिंह सिद्धू के इस्तीफे के साथ इस बात पर हंसा जाए कि पंजाब में कांग्रेस किस तरह अपने ही दांव में उलझ कर रह गई है? या फिर कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी के कांग्रेस में शामिल होने का उदाहरण देते हुए बताया जाए कि कांग्रेस अब भी एक संभावना है और नया ख़ून उसकी रगों में बहने को तैयार है?
  • हालांकि सुप्रीम कोर्ट की घोषणा जितनी उम्मीद पैदा करने वाली है, उतने ही सवाल भी. हमारे यहां कई मामलों को ठंडे बस्ते में डालने का यह जाना-पहचाना तरीक़ा है कि उन पर जांच कमेटी बना दी जाए या उन्हें किसी विशेषज्ञ समिति के पास भेज दिया जाए. अब तो सीबीआई जांच भी ऐसा ही एक तरीक़ा बन गई लगती है. सवाल और भी हैं. मान लें कि सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेषज्ञ कमेटी बना ही दी. वह कमेटी क्या करेगी? अगर सरकार देश की सुरक्षा का हवाला देते हुए इस कमेटी को सूचना देने से इनकार कर दे तो क्या होगा?
  • मृत्यु बड़ी चीज़ नहीं है. वह हर किसी के लिए नियत है. लेकिन मृत्यु की भी अपनी गरिमा होती है जिसमें किसी का जीवन झलकता है. अगर यह गरिमा नहीं है तो इस अनुपस्थिति की वजह किसी व्यक्ति के चरित्र में खोजने की जगह हमें उस व्यवस्था में देखनी होगी जिसने इस व्यक्ति को बनाया.
  • सोनू सूद के घर आयकर टीम क्यों पहुंची? सोनू सूद ने ऐसा क्या किया कि सरकार को अपनी एजेंसियां उसके घर दौड़ानी पड़ीं? क्या वाकई दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार के एक शैक्षणिक कार्यक्रम में ब्रांड अंबैसडर के तौर पर सोनू सूद का जुड़ना सरकार को इतना बुरा लगा कि उसने तत्काल उन्हें सबक सिखाने की सोच ली?
  • दुनिया के करोड़ों हिंदीभाषियों के लिए हिंदी दिवस गर्व का नहीं, शर्म का विषय होना चाहिए. लेकिन हर साल यह बात दुहराते जाने के बावजूद हम इस शर्म को हर बार गर्व की तरह ओढ़ने को मजबूर होते हैं. आखिर वह कौन सी विडंबना है जो एक भाषाबहुल देश की सबसे बड़ी भाषा के तौर पर हिंदी की सहज स्वीकृति के आगे ऐसी प्रश्नवाचकता लगाती है कि हमें हिंदी दिवस और उसके कर्मकांड ज़रूरी लगने लगते हैं?
  • यह सच है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत वहां की जनता के लिए किसी दु:स्वप्न से कम नहीं. वहां फिर इस्लाम और शरीयत के नाम पर ऐसे क़ानून थोपे जा रहे हैं, जिनका समानता, स्वतंत्रता और विवेक से वास्ता नहीं दिखता है.
  • देशद्रोहियों की सूची बढ़ती जा रही है. अब इसमें नया नाम इन्फ़ोसिस का आ जु़ड़ा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुखपत्र माने जाने वाले ‘पांचजन्य’ के जिस लेख में इन्फ़ोसिस को देशद्रोही बताया गया है, उसमें ईमानदारी के साथ स्वीकार किया गया है कि इन्फ़ोसिस पर इस खुले आरोप के प्रमाण लेखक के पास नहीं हैं. लेकिन पांचजन्य के संपादक चुनौती दे रहे हैं कि इन्फ़ोसिस चाहे तो इस तथ्य का खंडन करे.
  • भारत में जितना दुरुपयोग सोशल मीडिया का दिख रहा है, उससे कहीं ज़्यादा दुरुपयोग क़ानूनों का दिख रहा है. सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर यह टिप्पणी की, उसी दिन एक और अदालत ने दिल्ली दंगों की जांच को लेकर दिल्ली पुलिस को तीखी फटकार लगाई.
  • इतिहास की स्मृतियों को धड़कता और सांस लेता हुआ होना चाहिए. वहां पुरानी कराहें सुनाई पड़नी चाहिए. वहां गिरे ख़ून के कतरे हमारी आत्माओं पर पड़ने चाहिए. वहां जाकर किसी को समझ में आना चाहिए कि यह इतिहास क्यों दुहराए जाने लायक नहीं है, इस इतिहास की भूलों से सबक सीखा जाना क्यों ज़रूरी है.
  • एनडीटीवी के हमारे सहयोगी कमाल ख़ान ने ख़बर दी है कि मथुरा में दोसा बेचने वाले एक शख़्स का ठेला लोगों ने तोड़ कर फेंक दिया. क्योंकि वह मुसलमान था और उसने अपनी दुकान का नाम श्रीनाथ दोसा कॉर्नर रखा था.
  • अफ़ग़ानिस्तान के ताज़ा हालात और तालिबान पर क्या केंद्र सरकार की कोई नीति है? गुरुवार को सभी दलों की बैठक के बीच विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बताया कि नीति है- यह 'वेट ऐंड वॉच'- यानी देखो और इंतज़ार करो- की नीति है.
  • 87.58 मीटर तक भाला फेंक कर टोक्यो ओलंपिक में देश को स्वर्ण पदक दिलाने वाले नीरज चोपड़ा ने एक भाला और फेंका है- इस बार उन कुत्सित सांप्रदायिक कुढ़मगज़ों पर, जो हर बात में हिंदू-मुसलमान और भारत-पाकिस्तान की तलाश करते रहते हैं.
  • यह देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है? लेकिन क्या यह वही देश है जिसने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी? और क्या यही आदर्श थे जिनके साथ यह लड़ाई लड़ी गई थी? जिस हिंदुस्तान का सपना इस देश ने देखा था, क्या यह वही हिंदुस्तान है?
  • नीलम के साथ जो कुछ हुआ, वह ऐसी कोई सूक्ष्म कार्रवाई नहीं थी- उन्हें सीधे थप्पड़ लगाया गया. उन्हें उनके विभाग की एक शिक्षक ने ही थप्पड़ मारा. इसकी वजह भी हैरान करने वाली है. कॉलेज की एक बैठक के बाद विभाग की इंचार्ज चाहती थीं कि वे मिनट्स पर दस्तख़त करें. नीलम मिनट्स पढ़ने लगीं. उन्होंने कहा कि वे पढ़ कर ही दस्तखत करेंगी. इससे भड़की हुई विभागाध्यक्ष ने उन्हें चांटा मार दिया.
  • अरसे तक तालिबान भारतीय मीडिया के लिए तमाशा और चुटकुला रहा. कई टीवी चैनल रोज़ रात के शो में ओसामा बिन लादेन और मुल्ला उमर का ख़ौफ़ बेचते रहे, बताते रहे कि तालिबान आ गया है.  लेकिन जब तालिबान वाकई आ गया है तो अब तरह-तरह के अंदेशे और सवाल सामने आ रहे हैं.
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