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This Article is From Feb 13, 2017

यूपी चुनाव 2017 : इस बार होगी मायावती की राजनीतिक योग्यता की सबसे कठिन परीक्षा

यूपी चुनाव 2017 : इस बार होगी मायावती की राजनीतिक योग्यता की सबसे कठिन परीक्षा
मायावती के राजनीतिक करियर के लिए लिए यह चुनाव बेहद अहम है
सहारनपुर: उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए होने वाले मतदान से पहले अपनी सबसे बड़ी रैलियों में से एक के लिए चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती ने सहारनपुर को चुना. यह निर्वाचन क्षेत्र उन इलाकों में से एक है जहां बुधवार को विधानसभा के दूसरे चरण में मतदान होना है. सहारनपुर की जनसंख्या में 42 प्रतिशत मुसलमान हैं, 22 प्रतिशत दलित हैं - मुसलमानों की तरफ मायावती का ध्यान बहुत ज्यादा है, वहीं लोकसभा चुनाव में दूरी बना चुके दलितों को भी इस बार वह गंवाना नहीं चाहती. सहारनपुर बुधवार को वोट करेगा, जब पश्चिमी यूपी राज्य की 403 में से 67 सीटों पर मतदान करेगा, पिछले हफ्ते 72 सीटों के लिए चुनाव हुए थे.

दलितों का प्रतिनिधित्व करने वालीं मायावती के लिए यह दो चरण बाकी के पांच चरणों से ज्यादा आसान होने वाले हैं क्योंकि वह राज्य के पश्चिमी इलाके में वैसे भी लोकप्रिय हैं. यहां दलितों और मुसलमानों की संख्या ज्यादा है. पिछले विधानसभा चुनाव में जब अखिलेश यादव ने बड़ी जीत हासिल की थी, तब मायावती ने सहारनपुर की ही सात में चार क्षेत्रों में जीत दर्ज की थी. सहारनपुर के दक्षिण में मुजफ्फरनगर है जहां 2013 के दंगे अभी भी यूपी की राजनीति में एक ज्वलंत मुद्दा बने हुए हैं. इन दंगों में करीब 60 लोग मारे गए थे जिनमें से ज्यादातर मुसलमान थे और अखिलेश यादव पर लापरवाही और कार्यवाही में ढिलाई का आरोप लगाया गया था. स्थिति को शांत करने के लिए सेना तक को बुलाना पड़ गया था.

दंगों में मारे गए मुसलमानों में ज्यादातर पसमंदा जाति के थे जो दलित या पिछड़ा वर्ग में आते हैं. यूपी की 18 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है जिसमें 85 फीसदी पसमंदा जाति के हैं और इनमें से ज्यादातर अब मायावती के खेमे में आ रहे हैं. सहारनपुर से शुरू हुई रैलियों में मायावती बार बार पसमंदा मुसलमानों को यह आश्वासन देती आ रही हैं कि उनका गुस्सा दलितों का भी गुस्सा है.

दलित और मुसलमान मिलकर यूपी की 20 करोड़ की जनसंख्या का चालीस फीसदी हिस्सा हैं. मायावती को उम्मीद है कि उत्पीड़न और जातिगत हिंसा जैसे मुद्दे दोनों ही श्रेणियां झेल रही हैं और शायद इस बार मायावती को इसका फायदा मिल सके. राजनीति में टिके रहने के लिए यही उनकी रणनीति है. हालांकि दूसरी तरफ मुसलमानों को अखिलेश यादव अपने पाले में खींचने की कोशिश कर रहे हैं, और जैसा कि जगजाहिर है कि किस तरह लोकसभा चुनाव में बीजेपी के समर्थन में दलितों ने मायावती से भी मुंहमोड़ लिया था.

'2014 में दलित वोटों में आर्थिक आकांक्षाओं की परछाईं नजर आई थीं. 2017 में यह बिजली, सड़क, पानी और उससे भी ज्यादा कानून और व्यवस्था जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमने वाले हैं.' ऐसा अशोक सिंह का कहना है जो पश्चिमी यूपी के रामपुर में स्कूल शिक्षक हैं. उनका कहना है कि 'दलित लड़कियों का हर दिन बलात्कार हो रहा है लेकिन हमें एफआईआर दर्ज करने से रोका जाता है क्योंकि पुलिस थानों पर गैर दलितों का राज है. लेकिन वहीं अगर ऊंची जाति की लड़की के साथ कुछ होता है तो दंगे हो जाते हैं.' अशोक कहते हैं कि 'मोदी जी बतौर प्रधानमंत्री अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन उनका राज्य में कोई काम नहीं है. बहनजी एक बेहतर प्रधानमंत्री बनेंगी.'

2014 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी के अच्छे दिन की अपील के बाद मायावती को राज्य में 80 में से एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली थी. बीजेपी ने 72 सीटें झटकी थीं. खुद मायावती की जाटव जाति (चमड़े का काम करने वाले) जो दलित जनसंख्या का 55 प्रतिशत हैं, उन्होंने भी उस चुनाव में अपनी नेता से मुंह फेर लिया था. 2014 में मायावती के 16 प्रतिशत जाटव वोट बीजेपी की झोली में गिरे थे.

लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा. कॉलेज में पढ़ने वाले दीपक कहते हैं 'जाटवों ने सोच लिया है कि वह बीजेपी को हराने वाले हैं क्योंकि यह पार्टी दलित विरोधी है.' अपने साथियों की तरह दीपक भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और पिछले साल रोहित वेमुला की खुदकुशी और उना दलित प्रताड़ना के मामले को लेकर उन्होंने फेसबुक और व्हाट्सएप पर जोरों शोरों से अभियान चलाया था.

कुछ हफ्ते पहले ही आरएसएस के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आरक्षण पर बोलते हुए कहा था कि इतने सालों में इसका कोई फायदा नहीं हुआ. ऐसे में इस पर विचार किये जाने की जरूरत है. मायावती ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि बीजेपी एक ऊंची जाति और दलित विरोधी पार्टी है. हालांकि आरएसएस ने इस पर बात में स्पष्टिकरण दिया था लेकिन तब तक मायावती अपनी बाजी चल चुकी थीं.

इसी तरह के कुछ विवाद शायद बीजेपी के दलित वोटों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश को नाकाम कर सकते हैं. जहां जाटव मायावती की तरफ लौट रहे हैं, वहीं बीजेपी की नजर अब गैर जाटवों पर है जिनमें से 45 फीसदी ने 2014 में पार्टी को समर्थन दिया था. यही वजह है कि 85 आरक्षित सीटों में से पार्टी ने 21 ही जाटवों को दी है जबकि उनकी आबादी राज्य में दलित जनसंख्या के आधे से भी ज्यादा है. दलित वोटों से अलग हटकर बात करें तो मायावती के प्रति मुसलमानों का समर्थन बढ़ता जा रहा है - 2012 में उनके पास 20 प्रतिशत मुसलिम वोट थे. और इस समर्थन के पीछे बड़ा हाथ पसमंदा समुदाय का है. अमीर मुसलमानों को अभी भी सपा भा रही है.

सहारनपुर की एक यूनिवर्सिटी में वरिष्ठ प्रोफेसर खालिद अनिस अंसारी कहते हैं 'ऊंची जाति के मुसलमान, पसमंदा मुसलमान की बजाय हिंदू ओबीसी उम्मीदवार को वोट देना ज्यादा पसंद करेंगे. मसलन बेहात से बीएसपी उम्मीदवार हाजी इक़बाल जो पिछड़ी जाति बंदकुची (चिड़िया पकड़ने वाले) से ताल्लुक रखते हैं. उनके निर्वाचन क्षेत्र में 1.4 लाख मुसलमान हैं जिनमें से महज़ 15 हजार ऊंची जाति के पठान और पीरज़ादे हैं लेकिन इसके बावजूद वह हाजी को वोट नहीं करेंगे, भले ही बाकी का पूरा समुदाय उसे ही वोट दे.' अमीर और गरीब मुसलमानों के बीच मुद्दों और उम्मीदवारों की पसंद को लेकर इस अंतर से बीजेपी को फायदा मिल सकता है.

दलितों के साथ साथ मुसलमानों को भी अपनी तरफ करने की कोशिश में मायावती को इन दोनों वर्गों के बीच के फासले को मिटाना होगा. मुजफ्फरनगर दंगों के कई महीनों बाद तक आसपास के कई जिलों में दलितों और मुसलमानों के बीच हिंसा होती देखी गई है. ऐसे में इनमें से कुछ लोग मानते हैं कि आर्थिक मजबूती एजेंडा होना चाहिए जो कि मायावती के अभियान में नहीं दिख रहा है, वहीं बीजेपी और अखिलेश यादव लगाकार परिवर्तन और विकास को अपना अहम वादा बनाए हुए हैं.

रामपुर के दलित लेखकर कनवल भारती ने कहा - 'मायावती को विकास की बात करनी होगी. इसके साथ ही अपनी राजनीतिक शत्रुओं के खोखलेपन को भी सामने लाना होगा. जैसे कि पीएम ने कैशलेश लेनदेन के लिए भीम नाम का एप लॉन्च किया जो कि अंबेडकर के नाम पर लिया गया है. लेकिन कितने दलितों के पास बैंक में पैसा है? वह उनकी जगह किसी भी और नेता का नाम रख देते. अगर राजनेताओं को अंबेडकर का नाम किसी स्कीम से जोड़ना है तो उसका लेना देना शिक्षा और नौकरियों से होना चाहिए.'

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